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तुम सदृश्य नही कोई इस जहाँ में

6 जनवरी 2022

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तुम सदृश नही कोई इस जहां में,

निखरती हो तुम सदैव मेरे ईहा में।

कवि की मनोरचना से भी हो तुम

रम्य,

मनोभाव तुम्हारे है प्रकृत से भी

उत्तम।

तेरे कलित चेहरे पर उलझी लटों

का क्या कहना,

चाँद-तारों से बना हो मानो गजरों

का गहना।

प्रीत के रंगों से सजा गुलबदन

तुम्हारा,

जैसे लगा हो हल्दी चंदन का लेप

गहरा।

इक निगाह में जो भा जाए ऐसा

है तेरा आनन,

अल्हड और निष्छल का प्रतिमूर्ति

तेरा मानस।

सुधामयी तेरे नयनों से बहता प्रेम

सैलाब,

बदमस्त तेरे होंठ ऐसे मानो जैसे

खिलता गुलाब।

देख तेरे चारु को शरमाये दर्पण,

निशापुष्प से अलंकृत है तेरा

नवयौवन।

विश्वसुन्दरी के ताज से करूँ

तुझे सुशोभित हे! मृगनयनी,

असीम पयोधि सी तुम हो

हे ! प्रियदर्शिनी

जब कभी राहों में मुझको

मिलती हो देखता हूं मैं तुम्हें

ऐसे,

चाँद को चकोर निर्निमेष देखता है

जैसे।

चाँद का एकांत प्रेमी है जैसे चकोर,

वैसे ही निर्जन प्रेमी है तेरा आलोक।

हे ! पुहुप मिले मुझे जो तेरा स्नेह,

तेरे सजदे में उद्यत रहूं सदैव।

हर जन्म में मेरी होकर रहे

ऐसा कुछ जतन करूँ,

देख मेरे सजल नयन  में तुझे मैं

प्रेम का रोग लगा दूं।

स्वरचित एवं मौलिक-

आलोक पाण्डेय गरोठवाले

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