शुभराज्योत्सना सी मेरे अंतः स्थल पर तुम
अति प्राचीन धरा सी दिख जाती हो
लाजवंती सी आँखों में राज छिपे है जैसे
कुछ क्षण में सब कह जाती हो
अरुण सूर्य सा मैं
देखता धरा को जैसे
वैसे
तुम्हें निहारते हुए
खुद के अजनबी एहसासों को निहारता हूँ
जमीन पे बिखरी शबनम की बूंदें
चहकती है जैसे
वैसे
तुम्हारी
मुस्कान मेरे अंदर रच बस जाती है
कहो अब
कुछ तो कहो
चुप क्यों हो..
मुझमे तुम हमेशा रहो
क्या हर बार कहना जरूरी है
की तुम मेरे हो
समझते नहीं कि तुम
मेरे जेहन में
उषा में तुम हो
गोधूलि बेला में तुम
जीवन में तुम
मरण में तुम
सृंगार में तुम
विध्वंश में तुम
क्या अब भी कुछ बाकी है
जो रह गया है हममे तुममे
कहो उसे भी कर दूं
जो हुआ ही न हो।