पैदा हुए शरीरों में सुंदर सुंदर है आत्मा।
करती है सृष्टि में अपनी कौतूहल
निरंकार सृष्टि में आभास कराती ताकत का
साक्ष्य प्रस्तुत करती है जीवंत इस सृष्टि का
पर सजा हुआ यह संसार और उजड़ती आत्मा।
कर रही है विध्वंश कर रही है खात्मा।
मर्म जगत का इतना है बस कैसा व्यवहार रहा
सृष्टि के पैदा होते हैं जीव जीव आहार रहा।
फिर भी इस आत्मा ने खोजा इसका एक आधार
बिना जीव को कष्टदिये मिल जाए उसको आहार
चलो समय ने इसे संभाला भर दिया अनाज भंडार
लेकिन फिर कुंठित रूहो ने राजसत्ता का भोगा है
आहार का झगड़ा ठीक रहा वर्चस्व कहां से ठीक रहा
हेआत्मा सर्व गुण है तुझमें माना यह मन कैसा है
जो तेरी ताकत को भी उजाड़ सृष्टि में होता है
मन है ऐसा मन है वैसा तो आत्मा चीज है क्या
यह जीव जगाता है अंतरात्मा की बात है क्या
उजड़ रही है वही आत्मा उजड़ती आत्मा नाम है क्या?