टिमटिमाते तारे की रोशनी में
मैंने भी एक सपना देखा है ।
टुटे हुए तारे को गिरते देखकर
मैंने भी एक सपना देखा है ।
सोचता हूं मन ही मन कभी
काश ! कोई ऐसा रंग होता
जिसे तन-बदन में लगाकर
सपनों के रंग में रंग जाता ।
बाहरी रंग के संसर्ग पाकर
मन भी वैसा रंगीन हो जाता ।
सपनों से जुड़ी है उम्मीदें, पर
उम्मीदों की उस परिधि को
क्या नाम दूं ? सोचता हूं तो
मन किसी अनजान भंवर में
दीर्घकाल तक उलझ जाता है।
कोई अनसोची जवाब उभरता
फिर क्षण भर में लुप्त हो जाता है ।
उम्मीद ही तो वह संजीवनी है
जिसके सहारे सपनों की राह में
आने वाली हर चुनौतियों के आगे
ना कभी मस्तक झुका ना दिल हारा ।
उम्मीदों की इसी कश्ती में होकर सवार
मैं सपनों की रंगीन दुनिया ढूंढ निकालूँगा ।
@ गोविन्द पंडित स्वप्नदर्शी