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और हम भीगते रहे (कहानी)

21 जनवरी 2022

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रात का घना अन्धकार!रह-रहकर मेघ तेज स्वरों में गरज रहे हैं |बिजली भी चमक रही है |कभी आड़ी-तिरछी,कभी सीधी -सरल उज्ज्वल तन्वंगी बिजली!मैं देर से खिड़की के पास खड़ी बिजली की कीड़ा देख रही हूँ|अद्भुत दृश्य है !आकाश की कालिमा को चीरती बिजली कभी यहाँ तो कभी वहाँ चमक कर लुप्त हो जाती है |क्षण भर के लिए अन्धेरा कम होता है,फिर वही अन्धेरा!उदास अँधेरा !अकेलेपन को सघन करता अँधेरा !पर इसके पहले कि आकाश निराशा से काला पड़े,फिर बिजली चमक उठती है |यह बिजली कभी हब्शी पिता के सीने पर उत्पात करती नन्ही गोरी बिटिया लगती है,कभी शिव की तीसरी आँख|चंचल बिटिया के रूप में वह मन में उल्लास भरती है,तो विनाशकारी रूप में हताशा ,क्योंकि वह जहाँ और जिस पर गिरती है उसका सत्यानाश हो जाता है |कितना अजीब है कि शीतल जल से निर्मित बिजली में इतनी तड़प है कि वह लास्य और तांडव दोनों कर सकती है |
आज दिन भर मेघ बरसते रहे |रात को भी उनका तारतम्य टूटा नहीं है |रात की बारिश मुझे उदास करती है |तुम्हारा अभाव मन को मथता है |तुम्हारी कमी खलती है |तुम्हारे साथ बारिश में भीगने,खेतों की मेड़ों पर फिसलने ,बागों में दौड़ने का सपना देखा था |तुम मिलकर भी नहीं मिले।
जब भी बारिश होती है उसकी बूंदों में तुम्हारा चेहरा दिखता है।मैं उन बूंदों से कभी बाहें भिगोती हूँ कभी चेहरा।कभी होंठों से उसके शीतल स्पर्श को महसूस करती हूँ।बूंदें सिर्फ तन को नहीं भींगोती मन भी उसके साथ भीग जाता है।
तुम्हारी बहुत याद आती है।तुम मुझसे हजारों मिल दूर होकर भी दूर नहीं हो ओम!
ठीक है तुम वहां हो और मैं यहां ,पर कोई रेखा नहीं खिंची है हम दोनों के बीच। जब तुम यहाँ थे एक दिन ज्यों- त्यों करके मैंने कह ही दिया था कि तुम मेरे दिलो-दिमाग पर छाए हुए हो।तुम मेरी बात पर गंभीर हो गए थे और बस इतना ही कहा था,"यह खतरनाक बात है।"क्या खतरनाक था ओम,प्रेम करना ? तो क्या तुम भी यह मानते थे कि प्रेम किया जाता है ।नहीं ना!फिर....! तुम अक्सर मेरी बात पर तेज धार चला देते थे,जैसे उसी दिन जब मैंने तुमसे फोन करने को कहा था तो तुमने छूटते ही कहा ,क्या आपको लगता है मैं ऐसा करूँगा?"
पर प्रेम में डूबी मेरी आवाज लरज  गई,"हां यदि मेरी चाहत सच्ची होगी तो...।" तुम हँस पड़े ,"ठीक है रात को बात करूंगा ।" कितना सुंदर और सम्मोहक है तुम्हारा नाम 'ओम'। लगता है ब्रह्मांड का सारा आकर्षण इस नन्हे शब्द में ही समा गया हो।एक दिन तुमसे कह भी दिया--कुछ है तुम्हारे नाम में ....।तुमने कहा,"ऐसा तो कुछ खास नहीं।"मेरे स्वर में फिर से नशा घुल गया ---तुम नहीं जान सकते क्या- क्या है इस नाम में।तुम तपाक से बोल उठे,"पर मेरे माता पिता ने रखा है यह नाम।"  तुम्हारी मादक आवाज बात करते-करते अक्सर बदल जाती तब लगता कि मैं तो मोह में हूं पर तुम निस्संग हो।.. और... मोहासक्त अपना विवेक खो देता है पर निस्संग शक्ति से भरा होता है ।
तुम एक बुलंदी पर थे इसलिए जो कुछ बोलते थे,उसमें एक वजन होता था, जैसे बहुत गहरे से उपज रहे हों तुम्हारे शब्द!तभी तो वे बांध लेते थे मुझे।कितना तो कम बोलते थे तुम ...वह भी अक्सर फोन पर और ज्यों ही मेरे भीतर की प्रेमिका मचलती थी तुम काम का बहाना करके पलायन कर जाते थे।ऐसा क्यों था ओम? क्या तुम्हें प्रेमिका रूप से डर लगता था? एक दिन तुमने कहा," अरे, आप तो बच्ची की तरह हैं। मैंने तो बड़ी समझा था।" मैंने तुम्हें समझाया भी कि यह बच्ची तुमसे बड़ों -सा प्यार चाहती है ,इसे मारना मत। दुनिया से इस बच्ची को बड़ी मुश्किल से बचाकर रखा है ।यह सच था कि तुम उम्र में मुझसे छोटे थे पर जाने क्यों मैं तुम्हें छोटा नहीं मान पाती थी ।हाँ, कभी -कभी यह लगता था कि पता नहीं तुम इसे किस रूप में ले रहे होगे। एक दिन कह भी दिया--कहीं मेरा उम्र  में बड़ा होना उपहास का कारण ना बन जाए, तो तुमने कहा ,"प्रेम में क्या उम्र देखी जाती है ?"तुम बीच-बीच में ऐसी बात जरूर कह देते थे जिससे पता चलता था कि तुम्हारे मन में भी मेरे लिए 'कुछ' है जैसे उसी दिन जब मैंने तुमसे शिकायत की," तुम्हें मेरी परवाह नहीं ?"तो अपनी लरज़ती आवाज में तुमने कहा ,"हां,क्यों नहीं ?बिना परवाह के ही न बात कर रहा हूँ।"तुम मेरी चाहत को खूब अच्छी तरह समझने लगे थे।इसीलिए जब भी मैं प्यार का इज़हार करती थी।तुम भावुक स्वर में कहते,"जानता हूँ,सब जानता हूँ।"
“एक दिन जब मैंने तुम्हें ताना दिया कि पूरे शहर के लिए इतना कुछ करते हो और मेरे लिए?तुमने कहा," बात कर रहा हूं ना।"तुम्हें पता चल गया था कि तुमसे बात करना मेरे लिए सबसे बड़ी खुशी है ।पर शायद मेरा इतनी गहराई से जुड़ना तुम्हें परेशानी में भी डाल रहा था,तभी तो तुमने उस दिन कहा," किसने कहा था बात इतना आगे बढ़ाने को !"  "तुमने"। "मैंने! कब...?"मैं हँसी--आखिर तुम इतने अच्छे हो ही क्यों ?तुम चुप हो गए थे ।मेरी दीवानगी को बढ़ते देखकर तुमने बात करना भी कम कर दिया था पर इससे मुझे क्या फर्क पड़ता? मैं तो मन की आंखों से हर पल तुम्हें  करीब देख रही थी। ओम,जब पहली बार मैंने तुम्हें देखा था तुम मुझे अच्छे लगे थे ।आम के पुराने ,घने ,विशाल पेड़ के नीचे खुले मंच पर जींस और शर्ट में तुम बैठे थे अपनी साधारण पर असाधारण रूप -रंग से दमकते तुम मुझे दूसरों से अलग लगे थे। सबसे अधिक प्रभाव तो तुम्हारी वक्तृता का पड़ा।भारी -भरकम शब्दों से बचते हुए जिस सहजता और सरलता से (दैनिक घटनाओं से जोड़कर) समस्याओं को तुमने देखा ,वह अद्भुत था ।विद्वानों की विद्वता से आक्रांत मैं तुम्हारी सहजता से प्रभावित हुई थी ।सच यही है ओम कि मेरे ऊपर तुम्हारे अधिकारी होने का नहीं तुम्हारे भीतर छिपे मनमोहन का असर पड़ा था ।इस संबंध में एक बार हम दोनों में बात भी हुई थी।मैंने पूछा था--तुम्हीं बताओ,अनायास बिना सोचे-समझे कोई क्यों मन में समा जाता है?क्यों कोई इतना अच्छा लगने लगता है कि जी चाहता है कि अपना सर्वस्व न्योछावर कर दें।तुमने कहा-"मैं नहीं जानता,पर ऐसा हो जाता है।कारण अज्ञात है पर यह गलत नहीं।सहज आकर्षण प्राकृतिक है।"
उस दिन तुम मेरे सामने थे।तुमने आते ही भरपूर निगाहों से मुझे देखकर मेरा हाल पूछा और मैं सिर हिलाकर रह गई।जाने क्यों मैं तुम्हारी आँखों में देख नहीं पाती थी।ऐसी लपट थी तुम्हारी आँखों में कि मेरी आँखें झुक जाती थीं।दिल इतनी तेजी से धड़कने लगता था कि मैं ठीक से खड़ी भी नहीं हो पाती।उस दिन तुमने कुछ प्रेम -कविताएँ पढ़ीं,जो मेरे लिए लिखी थी तुमने।
ओम,तुम मेरे इतने करीब थे कि तुम भी नहीं जान पाए थे।मेरा मन,जीवन और दिन रात यहां तक कि सपने भी तुमसे भर गए थे पर "हर पल तुमसे भरा भरा फिर भी ये मन नहीं भरा" मैं तुम्हें बहुत पास से देखना चाहती थी।तुम्हारे हाथ,दुनिया के सबसे खूबसूरत हाथ (जिसकी एक अंगुली में तुमने सफेद मोती की अंगूठी पहनी थी)छूना चाहती थी।तुम्हारे भुजाओं की मजबूती आंकना चाहती थी।तुम्हारे सुंदर ,सुडौल होंठों के नरम -गरम अहसास को महसूसना चाहती थी।हमेशा बंद रहने वाली तुम्हारी शर्ट के ऊपरी दो बटन खोल देना चाहती थी,जिसके नीचे घने काले बादल थे।उन बादलों में चेहरा छुपाकर मैं जीवन के सारे दुःख भूल जाना चाहती थी और  .... और .... ।हाँ ,यह सच हैैं  कि मैं तुम्हें पूरी तरह पा लेना चाहती थी।तुम क्या चाहते हो,यह तुम पता नहीं चलने देते थे।पर मुझे पता था कि तुम भी मेरी ही तरह उद्वेलित थे।
और उस दिन जब हम एक समारोह से लौट रहे थे।बारिश होने लगी थी।तुमने मुझे अपनी कार में लिफ्ट दी थी।बारिश की विकरालता के कारण कार को सड़क के किनारे रोकना पड़ा था।कार के शीशे चढ़े हुए थे।हम  एक -दूसरे के इतने पास थे कि हमारी सांसें एक -दूसरे से टकरा रही थीं।दोनों ही अपने को संभाले हुए थे पर बारिश की मर्जी कुछ और ही थी।आखिर तुमने मेरे होंठों को अपनी होंठों की सीपी में कैद कर लिया।बाहर बारिश में पेड़- पौधे ,जमीन आसमान भीग रहे थे और हम दोनों बारिश थमने तक प्रेम की बारिश में भीगते रहे..भीगते ही रहे।
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शुक्रिया इतनी सुंदर टिप्पडी के लिए

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