मैं बहुत परेशान थी,जी चाहता था कि खुद को खत्म कर लूँ ।बात सिर्फ इतनी थी कि मेरा प्रेमी वादे के अनुसार मिलने नहीं आया था बस। पर मैं उसकी वादाखिलाफी को बेवफाई समझ हताश हो रही थी। मेरी हताशा का कारण उसका पलायनवादी स्वभाव था और शायद मेरा अविश्वास भी,जो इस शहरी संस्कृति की देन है। अपने को आत्मघात के विचार से मुक्त करने के लिए मैंने सोचा, कि गाँव चलते हैं, मरने से पूर्व सबसे मिल तो लें। शहरी व्यवस्था ने मुझे वैसे भी गाँव से काटकर रख दिया था। कई वर्षों के बाद मै वहाँ जा रही थी । जब मैं गाँव से शहर आई थी ,उस समय इतनी भोली और नादान थी कि कोई भी आसानी से मुझे बेवकूफ बना लेता था। सीधी-सादी,साडी़ के पल्लू से बदन छिपाती ,तेल लगाकर चोटियाँ बनाती मैं शहरी महिलाओं के द्वारा उपहास की नजर से देखी गई|मगर धीरे-धीरे मैंने खुद को शहर के अनुरुप ढाल लिया और अब मुझे देखकर कोई समझ नहीं सकता था कि मेरे तन-मन में आज भी गाँव की मिट्टी की सुगन्ध है| और इसीलिए तो मैं हताश थी प्रेम की चरमावस्था पर पहुँचकर कोई कैसे धोखा दे सकता है? ट्रेन मुझे गाँव की तरफ ले जा रही थी । मेरी आँखें झूमते वृक्षों, लहलहाते खेतों , अजीबोगरीब स्टेशनों के नामों को भागते देख रही थीं और उनके साथ ही वे दो जोडी़ प्यार भरी आँखें भी भाग रही थीं जो उस दिन आश्वस्त कर रही थी कि इस समय की तरह ही उसमें मेरी परछाई रहेगी हमेशा । फिर वे आँखें बदल क्यों गई? बगल में कोई खाँसा,मैंने डिब्बे के अन्दर नजरें घुमाई। उफ! कितनी गन्दगी हैं?फर्श पर तो कूडे़ का ढेर था ही, सीटों पर बैठे लोग भी गन्दगी फैला रहे थे। पसीने की गन्ध डिब्बे में भरी गंध से मिलकर कुछ ऐसी बदबू फैला रही थी कि उबकाई आने लगी । मैंने अपनी नजरें खिड़की से बाहर टिका दीं। गाडी़ एक स्टेशन पर रुकी थी और साथ ही कोलाहल मच गया था ।चाय-समोसेवाले अपनी गन्दी केतली व झाबे लेकर दौड़ रहे थे। छोटे -छोटे बच्चे भी नारियल ,मूंगफली और भुटटे लेकर लोगों से मिन्नत कर रहे थे। धूप और गन्दगी से काले पडे चेहरे,पसीने से सराबोर सूखे शरीर? उफ यह पेट ! क्या -क्या कराता है? मन धबराने लगा । मैंने आँखें बन्द कर लीं। सौन्दर्य प्रेमी मेरा मन जिन्दगी का यह असुन्दर यथार्थ न देख सका । आँखें बन्द करते ही सामने उसका सुन्दर चेहरा डोल गया । उस चेहरे के हर हिस्से के मेरे होंठों ने छुआ है और वह भी मासूम बच्चे की तरह आँखें बन्द कर मेरा प्यार स्वीकारता रहा है। फिर वह क्यों नहीं आया ? ट्रेन चल पडी़ ,अगला पड़ाव मेरा गाँव ही था। दूर से ही मुझे उसकी पहचान मिलने लगी। अब जंगल आएगा फिर खेत , फिर नदी। नदी तक तो हम घूमने आते थे। वहाँ से सीपियॉं ,पत्थर चुनकर मैंने अपने कमरे को सजाया था। ट्रेन रुक गयी। मैंने अपना सामान उठाया, बाहर निकली । स्टेशन पर हुए परिवर्तनों ने मुझे चौका दिया। चारों तरफ दुकानें। गाँव कस्बे का रुप ले चुका था। पक्की सड़कें भी बन गई थीं। मैंने एक रिक्शेवाले को आवाज दी और घर की तरफ चल पड़ी। रास्ते में कई परिचित चेहरे दिखे, किसी ने मुझे पहचाना नहीं। किसी तरह मन को संभालती अपने मुहल्ले तक आ पहुंची। रिक्शे से उतरते ही मैं घिर गई। बच्चे मुझे गौर से देख रहे थे। कुछ लड़कियों ने मुझे पहचान लिया था और नमस्ते कह रही थीं। कुछ तो माँ को खबर देने घर में घुस पड़ी। माँ बाहर आई। मैंने माँ के पाँव छुए और भीतर आकर बैठ गई। देखा तो मेरी पाँचों बहनें ससुराल से आई हुई हैं ।तीनों भाभियाँ हैं और भाई-बहनों के ढेर सारे बच्चे भी। मेरे सिर में दर्द हो रहा था पर भीड़ मुझे घेरे हुए थी। कोई मेरे कटे बालों को छूता तो कोई नए कुरते को। मैं नर्वस हो रही थी |माँ ने मेरे चेहरे पर थकान देखकर भीड़ को यह कहकर हटाया कि सब लोग बाद में आना। कमरा खाली हुआ, तो थोडी़ राहत महसूस हुई- यहाँ कहाँ आ गई मैं ? लगता था मैं हूँ ही नहीं। चुपचाप चारों तरफ देख रही थी जैसे कुछ समझ नहीं पा रही हूँ । तभी माँ ने चाय लाकर दी और कहा कि थोड़ी देर आराम कर लो फिर बातें करेंगे । वे चली गई । चाय पीकर मैं लेटी तो अपने आप आंखों से आंसू बह निकले-तुम क्यों नहीं आए थे? किसी ने तुम्हें भड़का तो नहीं दिया मेरे खिलाफ। काश , तुम समझ सकते कि एक पल भी तुम्हारे बिना जीना कितना मुश्किल है मेरे लिए।
'दीदी मैं आऊंं', मेरी छोटी बहन थी । मैं संभल कर बैठ गई यह चौथे नम्बर की बहन थी।
-कैसी हो?
'ठीक हूँ दीदी।'
-ठीक कहाँ हो ? इतनी दुबली कैसे हो गई ?
'क्या करूँ दीदी ?इतना जंजाल है कि सेहत ही नहीं बनती।'
गाँव की परम्परा के अनुसार मेरी पाँचों बहनें 14 वर्ष की उम्र में ही ब्याह दी गई थीं और सभी के तीन-चार बच्चे थे। यह भी उन्हीं में से एक थी। बीस वर्ष की अवस्था और चार बच्चे। अभी खुद ही बच्ची लगती थी। मैं बड़े ध्यान से उसकी सूरत देखती हूँ - 'कितनी सुन्दर हैं? और इसका घरवाला! जैसे हंस के साथ कौआ! पर उसके नखरे! उफ, बात-बात पर बहन को आँखें दिखाता है, शायद मैं नहीं झेल पाती उसे।'
- तुम्हारे पति क्या कर रहे है आजकल?
'शराब की दुकान पर काम करते हैं।'
-तब तो पीते भी होगे।
'नहीं दीदी....|' पर मुझे पता था वह झूठ बोल रही है। मुझे अपना 'वह' याद आता है। कितना अच्छा है कोई लत नहीं और फिर कितना सुन्दर! मुझसे भी अधिक। पर आया क्यों नहीं ?
माँ आकर बैठ जाती हैं। कैसी हो गई हैं। चेहरा पहले से भारी । पिता जी की मृत्यु के बाद से माँ बिलकुल अकेली पड़ गई है। तीन बहुएँ हैं,पर किसी से नहीं बनती। लगी राम- कहानी सुनाने-सब बिगड़ गई हैं। ब्यूटी पार्लर जाती हैं।
बाल औंर भौंहें बनवाती हैं। सलवार कुर्ता ,और मैक्सी पहनती हैं, देर से सोकर उठती हैं । कोई लाज-शरम नहीं। बेटे भी जोरु के गुलाम हैं। मेरी कोई परवाह नहीं करते । पागल की तरह बड़-बड़ करती रहती हूँ ,पर सब मनमानी करते हैं |जी चाहता है कहीं दूर चली जाऊँं। मुँह न दिखाऊँ अपना, न इनका देखूँ।
पर मैं जानती थी कि माँ उनके बिना नही रह पातींं। कई बार अपने पास रखने का प्रयास किया पर एक सप्ताह में उन्हें नाती-पोतों की याद परेशान कर देती और अन्तत: मुझे उनको गाँव भेजना पड़ता।
-और माँ मोहल्ले का हाल बताओ।
'क्या बताएँ, बड़ा खराब जमाना आ गया हैं।हमारे जमाने में कहाँ था ये सब! शीला ने कुजात में शादी कर ली है। राम-राम आग लगे इस जवानी को ! जाति- धर्म का लिहाज ही नहीं और मीरा तो भाग गई बम्बई किसी के साथ हिरोइन बनने। जब बरबाद होकर टके-टके पर बिकेगी तब पता चलेगा और.. रामकली मर गई।'
-'मर गई ' मैं चौंक पड़ी। वह मेरे बचपन की साथी थी।
'हाँ, शादी तो बचपन में ही उसकी माँ ने कर दी थी |पर गौने जाने के समय तक तो उसे फिल्मी हवा लग गई। कहने लगी देहाती के साथ नहीं जाऊँगी। गाँव में गोबर पाथना मेरे वश की बात नहीं।’
-फिर क्या हुआ?
'होना क्या था ?एक मुसलमान लड़के के चक्कर में फँस गयी थी। बाद में पता चला , उसके बीबी-बच्चे भी हैं ।इसके भी बच्चा रह गया। फिर एक रात को पता नहीं कैसे ढिबरी से आग लग गई और कुत्ते की मौत मर गई। जो जैसा बोएगा वैसा काटेगा।’
माँ की बात से मेरा हदय तीव्र गति से धड़कने लगा । मैं भी तो आत्महत्या की बात सोच रही थी । मेरी मृत्यु के बाद भी तो ऐसे ही विचार व्यक्त करेंगे लोग । उफ! सिहर उठी मैं। यह हदय ..छोटा-सा मांस-पिंड ...इतना भारी पड़ता है कि पूरा व्यक्तित्व उसके समक्ष नगण्य हो जाए। नहीं, आत्महत्या का विचार ही कायरतापूर्ण है। मैं यह नहीं करूंगी । यह पूरे जीवन का संघर्ष सिर्फ इसलिए व्यर्थ हो जाय कि वह मुझसे प्यार नहीं करता?नहीं, यह तो मूर्खता हैं, पर वह क्यों नहीं आया था उस दिन?
थोड़ी ही देर बाद अन्य भाभियां आ गई । हँसी- ठिठोली होने लगी। छोटी भाभी बोलीं, ’’अरे बीबी तो दिन पर दिन जवान होती जा रही हैं। कोई मिल गया है क्या?’’ मझली भाभी भी हँसी- अब शादी कर ही लीजिए। पर बडी़ भाभी उदास चेहरा बनाकर बोलीं- 'बीबी, हम तो सलाह नहीं देगे|शादी -विवाह सब बेकार है बस गुलामी । दिन-रात की किच-किच। न मन का खा सको ,न पहन सको,न घूम सको।’
बहनों ने भी भाभी की बात का सर्मथन किया 'और क्या दीदी को देखो,मजे से कमाती हैं, जो चाहे करती हैं। हम लोग पढ़ी नहीं, अब पछता रही हैं।’
मैं भी हँसी-'पर भाई शादी में सुख भी तो हैं। अकेलेपन का दुख तो बड़ा भारी है। पति से अपना सुख-दुख तो बाँट सकते हैं। रात को अकेले डर तो नहीं लगता। जो चाहा फरमाईश कर दिया। यहाँ तो दिन- रात घर-बाहर की समस्याओं से जूझना पड़ता हैं। आजादी की बड़ी कीमत देनी पड़ती हैं।' बड़ी भाभी ने बात काटी-सब कहने का सुख हैं,शादी सिर्फ बर्बादी हैं। मैं तो पछता रही हूँ शादी करके।
मैंने उन्हें छेड़ा-'पर जब रात को भैया बाँहों में लेकर प्यार करते होंगे तब तो..।’
भाभी के कपोल रक्तिम हो गए-''अरे छोड़ो उ त बस खानापूरी है। मन हो चाहे न हो बस पति की इच्छा पूरी करो,नहीं तो दूसरे दिन से लड़ाई शुरू।’’
एक बहन भी बोली-’’हमें तो घिन आती है ।तनिक भी इच्छा नहीं होती उनके पास जाने की, पर डर के मारे उनका मनचाहा करना पड़ता है।’’
करीब-करीब सभी बहनों और भाभियों ने 'यौन: को बुरा बताया । मैं सोचने लगी कि क्या सच ही यौन एक फूहड़ हरकत मात्र है ?क्या यौन से ऊर्जा नहीं फूटती? उसके हृदय से लगते ही मेरे रोम-रोम में जो ऊर्जा फिर शक्ति का संचार होने लगता हैं,वह क्या है ? इतना स्वर्गिक सुख और इतना नगण्य! शायद अशिक्षा ही इन स्त्रियों की उदासीनता को बढा़ रही है पर स्वस्थ सम्बन्ध होने पर भी वह उस दिन क्यों नहीं आया था ?
दूसरे दिन आस-पडा़ेस की ढेर सारी लड़कियाँ आई। कुछ तो मेरे सामने पैदा हुई थीं पर इस समय कई- कई बच्चों की माँ थीं। कई लड़कियाँ तो बाल विवाह के कारण टूट-सी गई थी । कुछ को दुखों व तनाव ने समय से पहले ही बुढ़िया बना दिया था। सबकी अपनी समस्याएँ थीं । सब रो रही थीं और अपने जीवन से असन्तुष्ट थीं। मुझे शर्म आ रही थी। लग रहा था एकाएक मेरी उम्र बढ़ गई है। सभी को आश्चर्य था कि मैं एक उम्र पर आकर ठहर कैसे गई हूँ ? सबको मैं सबसे अधिक सुखी लग रही थी। स्वस्थ,सुन्दर,आत्मनिर्भर और स्वतन्त्र! सबकी यही लालसा थी कि काश,वह मेरे जैसा जीवन जीतीं। वे भोली ग्रामीण स्त्रियाँ शहरी जीवन की समस्याओं से अनजान थीं। वह मेरी ऊपरी चमक-दमक से प्रभावित थीं,पर मेरे मन के दुख तक पहुँचने का माद्दा उनमें न था। उन्हें क्या पता था कि मैं एक पुरूष को प्यार करती थी। सम्पूर्ण मन से समर्पित थी,पर अकेले जी रही थी। उन्हें क्या पता था कि स्वतन्त्र होकर भी मैं उसके बन्धन में थी। इतने बन्धन में कि साँस पर भी अपना अधिकार न था। उन्हें क्या पता था कि अपने पूरे जीवन की साधना को मैंने उस पर सहर्ष अर्पण कर दिया था और वादा करके भी वह उस दिन नहीं आया था।