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वाह कोलकाता. आह कोलकाता .!!

2 जुलाई 2018

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देश की संस्कारधानी कोलकाता पर गर्व करने लायक चीजों में शामिल है फुटपाथ

पर मिलने वाला इसका बेहद सस्ता खाना। बचपन से यह आश्चर्यजनक अनुभव हासिल

करने का सिलसिला अब भी बदस्तूर जारी है । देश के दूसरे महानगरों के

विपरीत यहां आप चाय - पानी लायक पैसों में खिचड़ी से लेकर बिरियानी तक खा

सकते हैं। अपने शहर खड़गपुर से 116 किलोमीटर पूर्व में स्थित कोलकाता

जाने के लिए यूं तो दर्जनों मेल व एक्सप्रेस ट्रेन उपलब्ध है, लेकिन पता

नहीं क्यों कोलकाता आने - जाने के लिए सवारी के तौर पर मुझे लोकल ट्रेनें

ही अब तक पसंद है। शायद सुपर फास्ट ट्रेनों के बनिस्बत लोकल ट्रेनों में

मुझे अधिक अपनापन महसूस होता है। हॉकरों का शोर - शराबा और सहयात्रियों

की बतकही सुनते - सुनते मैं कब कोलकाता पहुंचा और कब वापस लौट भी आया पता

ही नहीं चलता। जीवन संघर्ष के शुरूआती दौर में काम - काज के सिलसिले में

अनेक बार कोलकाता की गलियों में भटका। युवावस्था तक पहुंचते - पहुंचते

मुझे आखिर वह चीज मिल ही गई, जिसकी मुझे बेहद जरूरत थी ... नौकरी। मरने

वाला कोई ... जिंदगी चाहता हो जैसे ... की तर्ज पर। लेकिन विडंबना कि

कलमकार होने के नाते तनख्वाह इतनी कम कि क्या नहाए , क्या निचोड़े जैसी

हालत। इसके चलते मैने कोलकाता में कमरा लेने के बजाय अपने शहर से रोज

कोलकाता तक दैनिक यात्रा का विकल्प चुना और रुट के हजारों डेली पैसेंजरों

में मैं भी शामिल हो गया। लेकिन यहां कोलकाता ने बांहे फैला कर मेरा

स्वागत किया। हावड़ा स्टेशन के बाहर तीन रुपये में चार रोटी के साथ थोड़ी

सी सब्जी और प्याज - मिर्च का एक - एक टुकड़ा मिल जाता था। यही खाकर मैं

नौकरी पर जाता था और लौटने पर फिर यही खाकर वापसी की ट्रेन पकड़ता था।

खाने का जुगाड़ हुआ तो मेरी दूसरी चिंता चाय को लेकर हुई। क्योंकि मुझे

थोड़ी - थोड़ी देर पर चाय पीने की आदत है। लेकिन कोलकाता ने मेरी इस

समस्या का भी चुटकियों में हल निकाल दिया। लोकल ट्रेनों में आठ आने का

भाड़ भर चाय तो कई साल बाद तक मिलता रहा। कोलकाता की गलियों में भी मैने

आठ आने यानी पचास पैसे में आधी प्याली चाय कई दिनों तक पी। कालचक्र के

साथ बहुत कुछ बदलता रहा। लेकिन कोलकाता का उदार चेहरा जस का तस। जीवन में

अच्छे दिनों का अनुभव होने पर भी मैने कोलकाता का बेहद सस्ता खाना खाया।

चंद पैसों में मनपसंद मिठाई भी। मेरी पसंदीदा चाय तो कोलकाता की सड़कों

पर कदम - कदम पर बहुतायत से मिलती रही है। अब भी पांच रुपये में तृप्ति

मिलने लायक चाय भाड़ में पीने को मिल जाती है। जिसका कोलकाता जाने पर मैं

खूब आनंद लेता हूं। यहां के बेहद सस्ते खान - पान को लेकर मेरे मन में

अनेक बार सवाल उठे। इतने विशाल शहर में कैसे कम पैसे में इतना अच्छा खान

- पान मिल जाता है। साधारणत: मेरी इस शंका का स्वाभाविक जवाब यही मिला कि

फुटपाथ पर अत्यधिक बिक्री से दुकानदारों को कम पैसे में अच्छा - खासा

मुनाफा मिल जाता है। लिहाजा उन्हें कम पैसे में चीजें बेचने में कठिनाई

नहीं होती। लेकिन हाल के मांस के साथ मृत पशुओं के सड़े मांस मिला कर

बेचे जाने की घटना ने मेरे विश्वास को गहरा धक्का पहुंचाया है। सोच कर

भी हैरानी होती है कि कोई पैसे कमाने के लिए ऐसा कर सकता है। पड़ताल का

दायरा बढ़ने के साथ ही अब तो इस रैकेट के तार आस - पास कस्बों तक जा

पहुंचे हैं। ताजे मांस में मृत पशुओं के सड़े मांस मिला कर करोड़ों कमाने

वालों की कारस्तानी यह कि उन्होंने चिड़ियाखाना में जानवारों को दिये

जाने वाले जुठा मांस भी लोगों की थाली में परोसना शुरू कर दिया । ऐसी

घटनाएं कोलकाता के चिर - परिचित छवि के बिल्कुल विपरीत है। मांस गिरोह

ने कोलकाता को जानने और प्यार करने वालों के विश्वास को गहरा आघात

पहुंचाया है। उन्हें उनके किए की सजा मिलने ही चाहिए। इस विडंबना पर मन

में बस यही टीस उभरती है... वाह कोलकाता ... आह कोलकाता।

इस पर चंद पंक्तियां मन से निकल पड़ी।

खाते हैं सड़े मांस शौक से

ताजे फल खाने को तैयार नहीं

शराब बिकती गली - गली मगर

दूध पीने को कोई तैयार नहीं

जख्म देने वाली चीजें मंजूर है मगर

कड़वी दवा पीने को कोई तैयार नहीं

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