वक्त भागता रहा
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वक्त भागता रहा, ज़िंदगी ठहर गई,
एक कोशिका खिली विश्व पर फहर गई।
एक अंश जीव का प्राण से रहित मगर,
छा गया ज़मीन पर बन गया बड़ा कहर।
आम ज़िंदगी रुकी खास लोग बंध में,
बाँटता चला गया धूर्त देश अंध में।
तोड़ मानदंड को मौत की लहर गई,
वक्त भागता रहा, ज़िंदगी ठहर गई।
चंद, बाँटते खुशी शेष बेचकर कफ़न,
मानवी स्वभाव को कर रहे वृथा दफ़न।
गर्व के पहाड़ पर बन महान चढ़ गये,
झूठ की पुआल में आग संग बढ़ गये।
हंस की वरिष्ठता ताल छोड़कर गई,
वक्त भागता रहा, ज़िंदगी ठहर गई।
सौम्य, जानवर हुए मानवीय साव से,
बंधु-बांधवों सहित दृष्टि के दुराव से।
नित्य आचमन लहू भोज के लिए मही,
नीच हो गये स्वतः जो कभी गिरे नहीं।
योग्यता, सुयोग्य की पंथ से छहर गई,
वक्त भागता रहा, ज़िंदगी ठहर गई।
विष भरी निगाह से सुख कहाँ कभी फले?
प्रतिक्रिया विधान है देर से मिले भले।
दुष्ट की विधा स्वयं प्राप्ति हेतु अंत को,
जाँचती मनुष्यता धर्मकेतु संत को।
टीस जो जिगर बसी दंश बन घहर गई,
वक्त भागता रहा, ज़िंदगी ठहर गई।
...“निश्छल”