दौर चुनावी युद्धों का
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जड़वत, सारे प्रश्न खड़े थे
उत्तर भाँति-भाँति चिल्लाते,
वहशीपन देखा अपनों का
प्रत्युत्तर में शोर मचाते।
सिर पर चढ़कर बोल रहा था
वह दौर चुनावी युद्धों का,
आखेटक बनकर घूम रहे
जो प्रणतपाल थे, गिद्धों का।
बड़े खिलाड़ी थे प्रत्याशी
सबकी अपनी ही थाती थी,
बातें दूजे की, एक पक्ष को
अंतर्मन तक दहलाती थीं।
मुद्दे थे विजयी होने के
और विजय ही ध्येय रहा था,
साहिब, हथकंडे अपनाते
ऐसा जो अविधेय रहा था।
कितनों की नीयत डोली थी
लोभी, उन मधुर बयारों में,
बीत गया जब दौर चुनावी
डूबे थे सब व्यभिचारों में।
सिंहासन पर बैठा शासक
भूल चुका था वादे अपने,
कोस रही जनता ख़ुद को ही
व्यर्थ दिखाया उसने सपने।
भला बहुत था राज पुराना
जो शासक को ही भाता था,
वृथा स्वप्न वह दिखा जनों को
नहीं हृदय को अकुलाता था।
...“निश्छल”