वो दसक गुजरे ज़माने हो गयें
यादें भी अब बूढ़ी सी हो गई है
सहारे के लिऐ लाठी पकड़ ली
ये दिमाग अब ज्यादा नहीं सोचता
किसी किसी दिन भूखे भी सो जाती हूँ
कुछ खो गया है उसे याद करती रहती हूँ
सारी रात बस आँखों में हीं गुजर जाती है
आखिर वो क्या था जो हमने खो दिया
एक ख़्याल हर-पल सताता है
कुछ तो है, जो अब नहीं है
अकेले में बुदबुदाते भी रहती हूँ
शायद लोग पागल भी समझने लगे हैं अब
थोड़ा हँस भी लेती हूँ! बेवजह की
सीने में इक दर्द सा रहता है हमेशा
हर आती-जाती साँसों में दर्द महसूस सी होती है
मुझे अब आदत सी हो गई है तन्हाई की
आईने पर पर्दा कर रखा है
कई दिनों से खुद को देखी भी नहीं
लगता है मैं खुद को भूल चुकी हूँ
कल उसने भी बड़ी अजीब नजरों से देखा मुझे
क्या मैं अब अजीब दिखती हूँ
मैं पागल तो ना हो गई हूँ
जाने भी दो ना क्या फर्क पड़ता है
आज ना मुझे जलेबी खाने का मन कर रहा
पैसे कहाँ से लाऊँ, सारे खत्म हो गयें
ये डायरी बेच देती हूँ
ना ना इसमें बहुत सी यादें लिखी है
वैसे रद्दी भाव में बिके तो भी जलेबी ना मिलेगी
बहुत मंहगे हो गयें हैं जलेबी
छोड़ो आज पानी से ही गुजारा कर लेती हूँ
नल में पानी भी ना आ रही है
हाँ कर्मचारियों की हड़ताल जो है
वैसे भी ठंड में प्यास बर्दाश्त हो जाती है मुझे
अचानक से आज ठंड भी कितना बढ़ गया है ना
हाय राम इन ओस की बूंदों में कही मैं मर ना जाऊं
कितनी सर्द हवायें चल रही है
कपकपी सी हो रही पूरे देह में
कमबख्त आज नींद भी ना आयेगी मुझे
खाली पेट कभी किसी को नींद भी आती है भला
पता नहीं इन पागलों को कैसे आ जाती है
सोचती हूँ आज कुछ लिखा जाये
ये लो लिखने के नाम पर ही इन आँसुओं ने दस्तक दे दी
अरे रूक भी जाओ तुझे भी लिखूंगी
आज तो कुछ सोचा भी ना जा रहा
पता ना क्यूं गले में बहुत दर्द सी हो रही है
हे भगवान मुआ बारिश को भी आज ही आना था
तुम सारे मिल कर ना, मुझे मार ही डालो
पता है गुस्से में बहुत हँसी आती है मुझे
आज जोर-ओर से हँसने का दिल कर रहा है
आज तो उपर वाला भी हमें पागल ही कहेगा
वैसे करू भी तो क्या करूं
सुना था उपर वाला कभी किसी को भूखा ना सुलाता
आज देख भी लिया भूखे पेट का दर्द
पता है तीन दिन बाद मेले लगने वालें है यहाँ
पूरा शहर चमकेगा रौशनियों में
मुझे तो अभी से ही रंग-बिरंगे खाने दिख रहें
तीन दिन, बहुत होते हैं ना
हे राम कही मैं भूख से गुजर ना जाऊं
ये घड़ियाँ गिनते-गिनते अंतिम घड़ी ना आ जाये
पेट में अन्न ना हो तो बातें भी बेमन वाली ही होती है
तुम सुन रहे हो ना! बड़े मसीहा बने फिरते हो
क्या हम इसी किस्मत को लेकर पैदा हुऐ थे
फिर क्यों बना दिया मुझे ऐसा
एक मैं ही मिली थी तुझे! पागल करने को
बहुत दर्द हो रहा है मुझे, तड़़प रही हूँ भूखी
कोई अब सुनता भी नहीं
गुंगे बहरों की बस्ती है ये
अब तो गली के कुत्ते भी पहचानने लग गयें हैं मुझे
देखो ना, मेरे साथ वो भी शोर मचा रहे हैं कितना
अब किसी का दर्द कोई नहीं सुनता
सब अपने-अपने सुनाने में पड़े हैं
मैं भी भला किसे सुनाये जा रही हूँ
हम जानते हैं! नामुरादों का शहर है ये
ये मुझे अचानक से क्या हो रहा है
आँखे बोझिल सी हो रही है अब तो
थक चुकी हूँ खुद से बातें करते-करते
अंततः नींद को तो आना ही था।।
कपकपाती सर्दी और जाड़े की ये लम्बी रातें
बेख्याली में डूबी एक पागल सी लड़की
आखिरकार भूख से दम तोड़ ही देती है
उसकी डायरी उस रात की दास्तां कह रही थी
© kumar gupta