औरते बड़ी रंगरेज होती है,
जाने कहाँ से हुनर पाती है,ये
कोरे कोरे मन को,अपनी,
खूबियों से रंग जाती है,ये।
बालिका बनकर पिता के जीवन में,
भरदेती है,अनगिनत रंग,
मोम की तरह ढल जाती है,
हर सांचे में,हो जाती है
जिसके भी संग।
माँ की परछाई बनकर
आती है,ये।बड़ी होते होते
माँ की चिर सखी सी
हो जाती है,ये।
वधू की तरह अलंकृत होकर,
दूजे घर आती है,
गैरो को बना अपना,
फिर सजाती है,घर नया।
उसी नये घर की होकर रह
जाती है,ये।
ममता,दया,परवाह करते हुए
बिता देती है,जीवन सारा,
अपने इन्हीं मौलिक गुणों से,
और भी निखर जाती है,ये।
. कविता नागर