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मुक्त काव्य

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“अमीरी” अमीरी उन्मत्त पवन के झोंके सी करें आंखे बंद झरोखे सी उच्च शोर विध कानों में नाशिका श्वसन रुध कर देती फूलती और पचकती है तमस अंतस में भर देती अमीरी अभिलाषा सबकी फिर क्यों नहीं जनजन धन देती॥ अमीरी तख्त स्वच्छ सिंहासन की संचय निधि सुशासन की रचती पचती अरमानों में हृदय को

अहसास झकझोर कर जा रही है बड़े से बड़े दरख्तों को पवन बन रोज बहती थी चीर परिचित रफ्तार में इसी बाग में इसी बहार में॥ अचानक क्या हो गया इसे उतर आई है यह आंधी लिए भरभरा कर गिरने लगे फल पके-अधपके अपनी गठनियों में झूमते हुये थे संग टहनियों में॥ अवरुद्ध हुई जो

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