सुबह होने को है. थोड़ा कोहरा, थोड़ा अंधेरा दोनों मिलकर सैन फ्रांसिस्को शहर को एक मटमैला सा रंग दे रहे हैं. ज़्यादातर लोग अभी अपनी नर्म-गर्म बिस्तरों में ही दुबके हुए हैं.
लेकिन बहुत सारे ऐसे हैं जो जल्दी-जल्दी अपना पुराना कंबल, बदबूदार ओवरकोट, पानी का कनस्तर, एक-दो फटी किताबें और कुछ ऐसे सामान जिन्हें वो अपना कह सकते हैं जल्दी-जल्दी समेट रहे हैं और ठूंस रहे हैं एक ट्रॉली में जो शायद किसी सुपरमार्केट से चुराई गई हो.
जल्दबाज़ी इसलिए है क्योंकि जो जगह रात भर के लिए उनका बसेरा था वहां अब म्यूनिसपैलिटी की गाड़ियां पहुंचने वाली है, पानी की तेज़ बौछार से रात भर की बदबू, पेशाब और उल्टी के दाग को साफ़ करने, सस्ती शराब और बीयर की टूटी हुई बोतलों को हटाने जिससे जब अरबपतियों और आइडियाज़ का ये शहर जगे तो उसे सब कुछ खुशनुमा नज़र आए.
बेघर लोग
मुझे बेहद हैरत हुई जब इस शहर में मैने इतने बेघर देखे. हैरत और ज़्यादा हुई जब रात के धुंधलके में ट्विटर का ऑफ़िस देखा.
पीली रौशनी में उसका नीला साइनबोर्ड बैंगनी सा नज़र आ रहा था, लेकिन नज़र बार-बार टिक रही थी उसके ठीक सामने चौराहेनुमा जगह पर जहां कुछ उन्हीं ट्रॉलियों को जो उन्होंने सुबह में समेटा था, तो कुछ बस एक दो-कपड़े बगल में दबाए वहां जमा हो रहे थे रात काटने के लिए, अपने-अपने कोने तलाशने के लिए. गांजे का धुंआं और टट्टी-पेशाब की बदबू किसी तीसरी दुनिया के शहर की याद दिला रहा थे.
एक बार दिल चाहा वो तस्वीरें लूं, उनमें से कुछ लोगों से बातें करूं. साथी कैमरामैन ने कहा रात भर के लिए ही सही, खुले आसमान के नीचे ही सही लेकिन ये उनका घर है. क्या हमें अच्छा लगेगा कि कोई अंजान हमारे घर में घुस आए और हम जिस हाल में भी हों हमारी तस्वीर ले?
बात में दम था. लेकिन जो सवाल मुझे कुरेद रहा था वो ये कि जो गूगल, जो फ़ेसबुक, जो बड़ी-बड़ी टेक्नॉलॉजी कंपनियां दुनिया भर में खुशहाली फैलाने की बात कर रही हैं, जो मार्क ज़करबर्ग यहां से हज़ारों मील दूर और दिल्ली से चार घंटे की दूरी पर बसे चंदौली शहर को कंप्यूटर और इंटरनेट के ज़रिए इक्कीसवीं सदी का शहर बनाने की बात कर रहे हैं उनकी नज़र अपने इस शहर पर क्यों नहीं पड़ती?
क़ामयाबी की क़ीमत
एक स्टार्ट-अप में काम करने वाले एक मित्र से पूछा तो उनका कहना था कि इनमें से बहुत सारे लोग काफ़ी हद तक इन बड़ी-बड़ी कंपनियों की कामयाबी की ही कीमत चुका रहे हैं.
अरबों डॉलरों की बरसात ने हर चीज़ मंहगी कर दी है और सबसे ज़्यादा मंहगी है एक छत. पूरे देश में किराया जिस तेज़ी से बढ़ा है, सैन फ्रांसिस्को में वो उसकी तिगुनी रफ़्तार से बढ़ा है.
कई बड़ी-बड़ी कंपनियां शहर से एक डेढ़ घंटे की दूरी पर हैं लेकिन वहां काम करने वाले बहुत सारे लोग इसी शहर में रहना पसंद करते हैं और हर चीज़ की मुंहमांगी कीमत देने को तैयार रहते हैं. कंपनियों की एयरकंडीशंड और वाई-फ़ाई इंटरनेट से लैस आरामदेह बसें उन्हें घर से ऑफ़िस ले जाती हैं और फिर शाम को छोड़ जाती हैं.
पिछले साल तो लोगों ने अपना ग़ुस्सा गूगल की बसों पर उतारा, उसके शीशे तोड़े, उन्हें घंटों रोके रखा और नारा दिया ''गूगल गो बैक.'' उनकी मांग थी कि वहां काम करने वाले लोग वहीं रहें क्योंकि उनकी वजह से इस शहर में जो निचला तबका है उसकी ज़िंदगी दूभर हो रही है.
तीन साल पहले शहर के एक पिछड़े इलाके को ऊपर उठाने के लिए बड़ी कंपनियों को टैक्स में राहत देने की पेशकश हुई अगर वो उन इलाकों में अपना दफ़्तर ले आएँ. ट्विटर ने उसी का फ़ायदा उठाते हुए वहां अपना दफ़्तर बनाया है. इलाका उठ रहा है लेकिन जो पिछड़े हुए थे वो सड़कों पर आ रहे हैं या शहर छोड़ने को बेबस हो रहे हैं.
सही क़ौन है, ग़लत क़ौन है ये तय कर पाना बेहद मुश्किल लगता है. इसी शहर और उसके आसपास की हवा में इंटरनेट और टेक्नॉलॉजी के पैरोकार दुनिया के सात अरब से ज़्यादा लोगों को जोड़ने का ख़्वाब देख रहे हैं, लेकिन वही कामयाबी लोगों को जोड़ने की जगह तोड़ भी रही है वो एहसास कहीं दब सा गया है.