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परदेश और अपने घर-आंगन में हिंदी

14 सितम्बर 2016

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परदेश और अपने घर-आंगन में हिंदी

बृजेन्द्र श्रीवास्तव ‘उत्कर्ष’


राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था- "भारत के युवक और युवतियां अंग्रेजी और दुनिया की दूसरी भाषाएँ खूब पढ़ें मगर मैं हरगिज यह नहीं चाहूंगा कि कोई भी हिन्दुस्तानी अपनी मातृभाषा को भूल जाय या उसकी उपेक्षा करे या उसे देखकर शरमाये अथवा यह महसूस करे कि अपनी मातृभाषा के जरिए वह ऊँचे से ऊँचा चिन्तन नहीं कर सकता ।" वास्तव में आज उदार हृदय से, गांधी जी के इस विचार पर चिंतन-मनन करने की आवश्यकता है। हिंदी भाषा, कुछ व्यक्तियों के मन के भावों को व्यक्त करने का माध्यम ही नहीं है बल्कि यह भारतीय संस्कृति, सभ्यता, अस्मिता, एकता-अखंडता, प्रेम-स्नेह-भक्ति और भारतीय जनमानस को अभिव्यक्त करने की भाषा है। हिंदी भाषा के अनेक शब्द वस्तुबोधक, विचार बोधक तथा भावबोधक हैं ये शब्द संस्कृति के भौतिक, वैचारिक तथा दार्शनिक-आध्यात्मिक तत्वों का परिचय देते हैं । इसीलिए कहा गया है- "भारत की आत्मा को अगर जानना है तो हिंदी सीखना अनिवार्य है ।" विश्व-ग्राम में बदल रहे सम्पूर्ण विश्व-जगत को आज भारतीय संस्कृति-सभ्यता, धर्म-योग, सुरक्षा, अर्थव्यस्था और बाजार की चमक ने सम्मोहित कर दिया है । भारतीय फिल्मों , कलाकारों, पेशेवर कामगारों, धार्मिक गुरुओं, समाज-सुधारकों, राजनेताओं को चाहने वालों की संख्या करोड़ों में है तथा इन मनीषियों ने हिंदी भाषा के माध्यम से वैश्विक परिदृश्य में भारत को महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की ओर अग्रसर किया है । विश्व में नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, कनाडा, संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, मॉरीशस, दक्षिण अफ्रीका, यमन, युगांडा, सिंगापुर, न्यूजीलैंड, जर्मनी आदि; लगभग डेढ़ सौ से ज्यादा देशों में हिंदी वृहद् रूप में बोली या समझी या पसंद की जाती है। विश्व के अनेकों विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में हिंदी भाषा और साहित्य को प्रमुख स्थान प्राप्त है।


हिंदी भाषा में साहित्य-सृजन की दीर्घ परंपरा है और इसकी सभी विधाएँ वैविध्यपूर्ण एवं समृद्ध हैं । सूर, कबीर, तुलसी, मीरा, रसखान, जायसी, भारतेंदु, निराला, महादेवी, अज्ञेय, महावीर, जयशंकर, प्रेमचंद आदि ने अपनी विविध कलम-कारी से इस भाषा के साहित्य को वैश्विक पटल पर स्थापित किया है तथा विश्व को साहित्यामृत का पान कराया है । "रामचरितमानस" के बिना हिन्दू जनमानस की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। हिंदी भाषा पूर्णतया वै ज्ञान िक भाषा है तथा अंतरराष्ट्रीय राजनीति क संदर्भों, सामाजिक संरचनाओं, सांस्कृतिक विषमताओं तथा आर्थिक विनिमय की संवाहक है। हिंदी भाषा सरल-सहज दूसरी भाषा के शब्दों को अपने में समाहित करने वाली है। आधुनिक युग में हिंदी का तकनीक के क्षेत्र में भी वृहद् योगदान है| हिंदी भाषा में ई-मेल, ई-बुक, सन्देश लिखना हो या इन्टरनेट और वेबजगत में कुछ ढूढना , हिंदी भाषा में बोलकर कम्प्यूटर पर टंकण करना आदि सब कुछ उपलब्ध है । भारतीय जनसंचार जगत में हिंदी ही श्रेष्ठ है। भारत में आज भी मनोरंजन जगत में हिंदी का ही बोलबाला है। हिंदी फ़िल्में, आज भी वैश्विक स्तर पर हिंदी भाषियों को जोड़ने का काम करते हैं तथा दूसरों को हिंदी भाषा सीखने की प्रेरणा देते हैं। भारत की संस्कृति, धर्म, ज्ञान- विज्ञान एवं भाषा सम्पूर्ण विश्व को विश्व-बंधुत्व का पाठ पढ़ाती है तथा उनको अपने में आत्मसात करती है।


विश्व की बड़ी-बड़ी महाशक्तियां, बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ, बुद्धिजीवी विचारक-चिन्तक, समाजसेवी, आज उभरती हुई महाशक्ति भारत का साथ पाने को बेक़रार है। भारत से राजनीतिक, व्यवसायी या आध्यात्मिक संबंध करने के लिए ये महाशक्तियां यहाँ की संस्कृति-सभ्यता, भाषा और क्षेत्र को महत्व दे रहीं हैं। किन्तु, हिंदी की यह विडम्बना है कि वैश्विक स्तर पर सम्मान पाने पर भी, भारत की राजभाषा होने पर भी, भारत को एकता के सूत्र में पिरोने वाली भाषा होने पर भी, आज अपने देश में अपनों की ही उपेक्षा का शिकार है। हमारे देश के कुछ तथाकथित ज्यादा पढ़े-लिखे राजनीतिक-बुद्धिजीवी-समाजसुधारक समझे जाने वाले लोगों की “पाश्चात्य चरण-वंदना नीति” एवं “मत-विभाजन नीति” ही हिंदी की उपेक्षा का कारण है। क्या हमारे देश में किसी राजनेता के द्वारा लाखों की भीड़ को अंग्रेजी भाषा में संबोधित कर पाना संभव है ? क्या धार्मिक प्रवचन, पूजा-पाठ, खेत-खलिहान-पंचायत, बाजार-यातायात, गाँव-कस्बों-शहरों, गरीब-किसान-मजदूर या देश की अधिकांश आबादी जो अभी विकास से कोसों दूर है; क्या इन सबसे अंग्रेजी भाषा में सामंजस्य बिठा पाना संभव है ? क्या देश की शिक्षा व्यवस्था, सरकारी तंत्र, न्यायालय, प्रतियोगी परीक्षाओं, कार्यालयों, बड़े व्यावसायिक प्रतिष्ठानों, सूचनाओं आदि में अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व स्थापित कर राष्ट्रभाषा हिंदी और अंग्रेजी जानने वालों के बीच वर्ग-भेद और वैमनस्य का संबंध स्थापित नहीं किया जा रहा है ? विश्व के बहुत से ऐसे राष्ट्र हैं जो अपनी राष्ट्रभाषा के माध्यम से ही विश्व को अपनी श्रेष्ठता का लोहा मनवा रहे है तो विश्वगुरु होने का दंभ भरने वाले हम क्यों नहीं? विनोबा भावे ने कहा था, “मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज्जत करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिंदी की इज्ज़त न हो, यह मैं नहीं सह सकता।“ आखिर हम कब तक विदेशी दासता को सहते रहेंगे? आखिर कब हम वैचारिक रूप से स्वतंत्र होंगे ? ‘बापू’ ने कहा था, “राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा है|” आखिर हम कब तक गूँगे बने रहेंगे? वास्तव में हिंदी का अपमान देश की सनातन संस्कृति का, देश के संविधान का तथा सम्पूर्ण भारतीय जनमानस का अपमान है। आखिर किसी विदेशी भाषा का किसी स्वतंत्र राष्ट्र के राजकाज और शिक्षा की भाषा होना सांस्कृतिक दासता नहीं तो और क्या है ?

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