कमाल है, दुनियादारी के लिए कभी मैं झूठा होता हूँ
कभी फरेबी, कभी दिखावेबाज़, तो कभी चालाक.
किन्तु एक स्थान जहाँ मैं केवल मैं होता हूँ
बिना किसी आवरण के, नग्न.
जहाँ मेरी चेतना मुझे मेरी प्रत्येक ग़लती के लिए धिक्कारती है
जिन्हें मैं यूँ ही अनदेखा कर दिया करता हूँ.
जाने क्यूँ मेरा अन्तस् ही मेरे साथ सर्वाधिक कठोर है
यह मुझे न बख्श्ता है.
मैं लुक-छिप कर, इधर-उधर से निकल जाना चाहता हूँ
किन्तु यह मेरा रास्ता रोक, कड़ी निगाहों से मुझे घूरा करता है.
जाने कैसा द्वंद्व है यह, कैसी विचित्रता
किन्तु यह निश्चित है
कि आत्म-सुधार एवं आत्म-आलोचना से ही गुज़रता है
सत्य की खोज का रास्ता.