स्वदेशी और विदेशी गोवंश को लेकर कुछ विचारणीय पक्ष हैं. अनेक शोधों से सिद्ध हो चुका है कि अधिकांश विदेशी गोवंश विषाक्त प्रोटीन ”बीटा कैसीन ए१” वाला है जो हानिकारक ओपीएट ’बीसीएम७ ’ का निर्माण पाचन के समय करता है और अनेक हृदय रोगों के इलावा मधुमेह, ऑटिज्म व बहुत से मानसिक रोगों का कारण है.
हॉलस्टीन , फ्रीजियन, रेडडैनिश आदि सभी गौएँ इसी घातक प्रोटीन वाली हैं. दावा किया जाता है कि जर्सी की ७०% ए१ तथा ३०% ए२ प्रोटीन वाली हैं. कौनसी गौएँ किस प्रोटीन वाली हैं, , यह जानने के लिए कोई तंत्र या व्यवस्था बने होने की जानकारी हमारे पास नहीं है. पर इतना तो प्रत्यक्ष है कि आज भी घातक प्रोटीन वाली हॉलस्टीन, फ्रीजियन और उनकी ही संकर नस्ल ’एचऍफ़’ को हम बढ़ावा दे रहे हैं
दूध बढाने के भ्रम में ऐसा करके अनजाने में रोगों को बढ़ावा देने की भूल को समझने और रोकने की ज़रूरत है. कहा जाता है कि ‘गर्सीन’ नामक विदेशी नस्ल सही है पर इसकी जांच की कोई व्यवस्था तो की जानी चाहिए.
ऐसे में लगता है कि पशुपालन की नीतियों का एक बार नए सिरे से मूल्यांकन और नए शोध व सूचनाओं के प्रकाश में नीतियों का निर्धारण करने की जरूरत है.
न्यूज़ीलैंड की ’ए२ कार्पोरेशन ने इसप्रकार का यन्त्र बनाया है जिससे गौओं की जाँच करके जाना जा सकता है की उसमें कौनसा प्रोटीन कितना है.भारत में भी इस प्रकार के यंत्रों के विकास की आवश्यकता है. ज़रूरी हो तो इसे आयात किया जा सकता है.
भारत सरकार के करनाल (हरियाणा) में स्थित ‘ऐनबीएजीआर’ के ८ वैग्यानिकों ने भी सिद्ध किया है कि विदेशी गोवंश विषाक्त ए१ प्रोटीन वाला है और भारत का ९८℅ गोवंश लाभदायक प्रोटीन ए२ वाला है. सरकार और सरकारी विभागों में तालमेल व संवाद की दुर्दशा का प्रमाण है कि इस शोध के बाद भी नेता और प्रशासक विदेशी विशाक्त गोवंश को बढ़ावा देते जारहे हैं. इसे रोकने के लिये जनमत व जनान्दोलन (केवल इंटरनैट पर करें तो भी परिणाम होंगे ) की आवश्यकता है.
हमारे कुछ उपयोगी चकित्सा प्रयोग
हमनें अपने रोगियों पर स्वदेशी गोवंश के गोबर तथा गोमूत्र से कुछ उपयोगी प्रयोग किये हैं जो भावी शोध और खोज में उपयोगी सिद्ध हो सकते है. …
– माईग्रेन व सरदर्द के असाध्य व पुराने रोगियों पर गोघृत का प्रयोग करके देखागया कि वे सभी एक मास से भी कम समय में स्वस्थ हो गए.
उनके नाक. नाभि और पैरों के तलवों में प्रातः और सोते समय गो-घृत लगवाया गया. सभी को बिना अपवाद लाभ हो गया. अब उनमें से कई तो दूसरों की चिकित्सा सफलता से कर लेते हैं.
हमारा सूत्र यह है कि पैरों के तलवों का हमारे स्नायुकोषों, मस्तिष्क पर सीधा व गहरा प्रभाव होता है. अल्प मात्रा में लगा घी भी स्नायु कोशों का प्रभावी स्नेहन करता है. नाक में लगे घी का भी यही प्रभाव है.
ख़ास और शोध के योग्य बात यही है कि पैरों पर मालिश से स्नायुकोषों पर इतना प्रभाव कैसे होता है और वह भी गो-घृत से.
एलुमिनियम के पात्रों का प्रयोग दही बिलोने, घी पकाने के लिए हम वर्जित कर देते हैं.
हम सब नहीं जानते तो जान लें कि एल्जीमर्ज़ डिजीज का प्रमुख कारण यही ऐल्यूमीनियम है. लाल रक्त कणों के इलावा यह हमारे हृदय, पाचन व अन्य अंगों के कोशों को भी नष्ट करता है.
और यदि फ्लोराईड का केवल १० लाखवां अंश इसके साथ मिल जाये तो अल्युमिनियम द्वारा विनाष बहुत तेज़ गति से होने लगता है. संभवतः सभी टूथपेस्टों में फ्लोराईड मिला हुआ है. अतः मंजन का प्रयोग ही उचित है और या फिर हो सके तो दातुन करें.
– अनेक उच्च रक्तचाप के रोगियों पर हमने गोबर का प्रयोग किया और सफल रहा. देसी गौ के गोबर के उपले बना और सुखा कर उन पर रोगी को पाओं रख कर बैठने को कहा गया. आधे घंटे में असर नज़र आने लगता है. कुछ दिन या कुछ सप्ताह के प्रयोग से अधिकाँश रोगी ठीक हो जाते है.
सूत्र यही है कि गोबर विष पदार्थों को अवशोषित करके रक्तचाप को सामान्य करने में सहायक सिद्ध होता है.
दूसरा सूत्र यह है कि रक्तचाप का एक बड़ा कारण वे विष पदार्थ और रसायन हैं जिन्हें हम आहार में खाने को बाध्य हैं (रासायनिक खेती की अनुचित नीतियों के कारण ). पैरों के माध्यम से शरीर के विषों को गोबर की सहायता से निष्कासित करने का सूत्र तो उल्लेखनीय है ही.
– गोबर के उपलों को कांच के पात्र में गंगाजल व अल्कोहल ( ५०-५० %) में डूबा कर २ मास तक अंधेरे में रखा गया. उपले टूटे या बिखरे नहीं. अब इस तरल को छान कर प्रयोग किया गया.
केवल २-३ मी.ली तरल को २५-३० मी.ली. पानी में डाल कर पीनें से अम्ल-पित्त, छाती की जलन कुछ की देर में ठीक हुई. अनेक पित्त रोगियों पर इसका प्रयोग किया गया.
दुर्बल पाचन को सुधारने व विषाक्त प्रभावों को समाप्त करनें में यह बहुत प्रभावी है. एक और ख़ास बात यह हुई कि इस तरल में से अनेक प्रकार के फूलों की सुगंध आती है.
– ब्रह्म सुतली / प्रसरनी / हर्पीज़जोस्टर से मैं कष्ट पा रहा था. अभी शुरुआत ही हुई थी. मैंने पुराना और कांच की बोतल में रखा गो मूत्र इस पर लगा दिया.
मेरा अपना अनुभव है कि गर्म चीज़ों से यह रोग बढ़ता है. गोमूत्र उष्ण प्रकृती का है. आश्चर्य की बात यह हुई कि मैं कुछ ही मिनेट में मैं ठीक हो गया. दुबारा प्रयोग दोहराना नहीं पडा. पर ज़रूरत है कि इस प्रयोग को अभी और परखा जाए.
– मलद्वार में गो घृत का स्नेहन करने से अनेक मानसिक रोगों के अतिरिक्त सुखी खांसी, आँखों के रोग ( आईफ्लू आदि) में अद्भुत लाभ होता है. अनेकों रोगियों पर हमने आज़माया है.
शोध का विषय है की आखिर मलद्वार में गोघृत लगाने का प्रभाव इतनी तेज़ी से आँखों, गले, छाती, फेफड़ों, स्नायु कोशों पर कैसे होता है ?
– अपने मोबाईल पर गोबर की आधा सेंटीमीटर की टिकिया चिपकाने से उसका रेडियेशन प्रभाव बहुत घट गया. अब हमनें डाई बनवाने पर 5000 रु. खर्च करके मोबाईल पर चिपकाने वाली डिबिया सी बना दी है जिसमें गोबर का पिसा चूर्ण और अति अल्प मात्रा में सोने का वर्क डालते हैं. सोने के प्रभाव से इसकी आयु बढ़ जाती है. स्वर्ण डाले बिना भी ये काम करता है. बस इतना ही है कि बार-बार इसे बदलना पडेगा. डिबिया की ‘डाई’ बनाने पर एक बार ही खर्च होना है.बिना डिबिया के बिना भी गाबर चिपका कर लाभ लिया जा सकता है.
कुछ करने योग्य प्रयोगों का सुझाव. –
यंत्रों के अभाव में स्वदेशी-विदेशी गोवंश के प्रभावों का तुलनात्मक अध्ययन कठिन है. यदि वैज्ञानिक सहयोग उपलब्ध न हो तो कैसे पता चले कि कौनसा गोवंश किस प्रभाव का है ? चिकित्सक और वैज्ञानिक सहयोग करना भी चाहे और उसके पास यंत्र व प्रयोगशाला की सुविधा उपलब्ध न हो ? और हो भी तो सरकारी नीति ही अनुकूल न हो तो ? सरकार का तंत्र और सोच बदलने में समय लगता ही है और वह भी तब जब दिशा विपरीत हो.
यदि हम गोवंश की पहचान के बारे में अनुभव व परम्परा ज्ञान से जानते भी हैं तो उसे सिद्ध या स्थापित कैसे करें? अथवा अपने स्वयं के विश्वास और अपने ज्ञान को सही साबित करने के लिए क्या उपाय है ?
इसके बारे में कुछ सुझाव है. हम अपने अनुभव और समझ से इसमें और भी बहुत कुछ जोड़ सकते हैं.
– रक्तचाप जांचने वाला एक यंत्र लें. इसका प्रयोग जानने वाले किसीे फीर्मासिस्ट, कैमिस्ट या चिकित्सक का सहयोग लें. ५-७ मित्रों को साथ ले लें. सबके रक्तचाप की जांच कवाकर लिख लें. अब २-३ स्वदेशी और २-३ गौएँ विदेशी संकर नस्ल की अलग-अलग समूह में ज़रा दूरी पर बांधें. पहले स्वदेशी गोवंश के पास जाकर सब लोग उन्हें प्यार से उनकी पसंद का आहार खिलाएं और सींगों से पूंछ की और हाथ फेरते रहें. १०-१२ मिनेट बाद फिरसे रक्तचाप की जांच करें और लिख लें. अब विदेशी गोवंश के पास जाकर यही क्रिया दोहराए. लौट कर फिरसे सबका रक्तचाप देखें. यदि रक्तचाप बढ़ जाए तो समझ लें कि विदेशी गोवंश विषाक्त प्रभाव वाला है. स्वदेशी पर हाथ फेरने से रक्तचाप सामान्य होने लगे तो समझे कि वह लाभदायक गुणों वाला है, अनुवांशिक रूप से विदेशी गोवंश से अलग है.
ऐसा करते समय गोवंश का सही विवरण भी लिखें जिससे आप विषय को आगे ठीक से वर्णित कर सकें.
– दूसरे प्रयोग में तीन पौधे एक ही प्रकार के चुनें. अब दोनों प्रकार के गोवंश का मूत्र अलग-अलग किसी पात्र में एकत्रित करें. एक लीटर गोमूत्र में १० ली. पानी मिलाये और उस पर लेबल लगा कर रख दें कि वह किस गो का है. अब एक पौधे में प्रातः सायं देसी गो वाला और दुसरे में विदेशी गो वाला तथा तीसरे में सादा पानी डालते रहें. यदि विदेशी गो मूत्र से पौधा मरे या कमज़ोर हो तो वह विषाक्त है. तीनों पौधों का १० दिन का विवरण लिख कर रखें. कैमरा मिले तो फोटो भी उतारें. अनुमान यह है कि विदेशी गौओं का दूध, गोबर, गोमूत्र, स्पर्श विषाक्त होने के कारण पौधों, पर्यावरण व मनुष्यों पर इसके दुष्प्रभाव होते हैं.
– तीसरे प्रयोग में ३ पात्र ५-५ किलो के लें. एक में स्वदेशी गो का १ कि. गोबर, १ ली गो मूत्र डालें. अब इसमें १५० ग्राम गुड और १५० ग्राम उर्द साबुत का आटा डालें. गुड पशुओं वाला डालें. दाल का आटा न हो तो दाल को रात को भिगो कर प्रातः पीस लें.
इसी प्रकार दूसरे पात्र में विदेशी गो का गोबर, गोमूत्र डाल कर बाकी सामान डाल दे.
तीसरे पात्र में केवल विदेशी गो का गोबर और मूत्र ही डालें, गुड व आटा न डालें.
इन पात्रों को बोरी के टुकडे से ढक कर रखें. प्रतिदिन दिन में एक-दो बार इन्हें अलग-अलग डंडे से हिलाते रहें. ४-५ दिन तक क्रिया जारी रखें.
तीनो पात्रों पर १-२-३ अंक लगा दें.
अब चार पौधें एक जैसे चुनें और उन्हें भी १-२-३-४ न. दे दें. अब रोज़ सायं काल १ न. की खाद १ न. में, २ न. की खाद २ न. में तथा ३ न. की ३ न. के गमले /पौधे में डालते रहें. ४ न. में केवल सादा पानी डालें.
* यह खाद डालने से पहले उसे हिला लिया करें और उसमें १० गुना पानी मिला कर प्रयोग करें. अर्थात मानों आपने १०० ग्राम यह तरल खाद एक पात्र से निकाली तो उसमें १० गुणा यानी १ ली. पानी मिला कर खूब हिला लें, तब पौधे में डालें. रोज़ सायंकाल यह क्रिया दोहरायें. अनुमान यह है कि यदि विदेशी नस्ल विषाक्त है तो उसके गोबर और गोमूत्र से बनी खाद से २ व ३ न. के पौधे रोगी, कमज़ोर बनेंगे. इस प्रकार वैज्ञानिकों के सहयोग के बिना भी किसान गो वंश के बारे में सही जानकारी प्राप्त कर सकेंगे.
वैग्यानिको के सहयोग से करणीय
– दो सामान आकर के कमरों में वायु प्रदुषण की जांच की जाय. एक में स्वदेशी और एक में विदेशी गो को आधे घंटे ( या अधिक ) तक बाँध कर रखे. अब पुनः कमरे की वायु का नमूना लेकर जांच करके तुलना से निष्कर्षों प्राप्त किये जाएँ. संभावना है कि विदेशी गो के कमरे में विषाक्तता बढ़ेगी और स्वदेशी में घटेगी. मीथेन प्रदुषण के झूठ- सच की भी इससे जांच की जा सकती है. जांच यंत्रों और माईक्रोबाईलोजिस्ट के सहयोग के बिना यह प्रयोग संभव नहीं.
अंत में इतना निवेदन है की स्वदेशी गो वंश के गुणों को समझ कर इसकी रक्षा के उपाय प्रत्येक को अपने-अपने स्तर पर करते जाना चाहिए.