भगवान श्रीराम से जुड़े 10 गुप्त रहस्य......
भारत का इतिहास क्रमश: पौराणिक पंडितों, मुगलों, अंग्रेजों, ईसाई मिशनरियों, धर्मांतरित लोगों और वामपंथियों द्वारा विकृत किया गया। सभी ने अपने-अपने हित के लिए भारत की प्राचीनता और गौरव के साथ छेड़छाड़ की। यहां के धर्म को विरोधाभाषी बनाया और अंतत: छोड़ दिया।
कुछ लोग कहते हैं कि राम भगवान नहीं थे, वे तो राजा थे। कुछ का मानना है कि वे रामायण नाम के एक उपन्यास के काल्पनिक पात्र हैं। वे कभी हुए ही नहीं। वर्तमान काल में भी राम की आलोचना करने वाले कई लोग मिल जाएंगे। राम के खिलाफ तर्क जुटाकर कई पुस्तकें लिखी गई हैं।
इन पुस्तक को लिखने वालों में वामपंथी विचारधारा और धर्मांतरण करने वालों और धर्मांतरित लोगों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया है। तर्क से सही को गलत और गलत को सही सिद्ध किया जा सकता है। तर्क की बस यही ताकत है। तर्क वेश्याओं की तरह होते हैं, जो किसी के भी पक्ष में जुटाए जा सकते हैं, लेकिन हम यहां तर्क की नहीं, तथ्यों की बात करेंगे।
राम हुए या नहीं, इस पर कई शोध हुए। उनमें से एक शोध फादर कामिल बुल्के ने भी किया। उन्होंने राम की प्रामाणिकता पर शोध किया और पूरी दुनिया में रामायण से जुड़े करीब 300 रूपों की पहचान की।
'प्लेनेटेरियम' : राम के बारे में एक दूसरा शोध चेन्नई की एक गैरसरकारी संस्था भारत ज्ञान द्वारा कुछ वर्ष पूर्व पिछले 6 वर्षों में किया गया था। उनके अनुसार राम के जन्म को हुए 7,123 वर्ष हो चुके हैं। उनका मानना है कि राम एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे और इसके पर्याप्त प्रमाण हैं। राम का जन्म 5,114 ईस्वी पूर्व हुआ था।
सरोज बाला, अशोक भटनागर और कुलभूषण मिश्र द्वारा लिखित एवं वेदों पर वैज्ञानिक शोध संस्थान (आई-सर्व) हैदराबाद द्वारा प्रकाशित 'वैदिक युग एवं रामायणकाल की ऐतिहासिकता : समुद्र की गहराइयों से आकाश की ऊंचाइयों तक के वैज्ञानिक प्रमाण' नामक शोधग्रंथ में भी इसका उल्लेख मिलता है।
वाल्मीकि रामायण में लिखी गई नक्षत्रों की स्थिति को 'प्लेनेटेरियम' नामक सॉफ्टवेयर से गणना की गई तो उक्त तारीख का पता चला। यह एक ऐसा सॉफ्टवेयर है, जो आगामी सूर्य और चंद्र ग्रहण की भविष्यवाणी कर सकता है और पिछले लाखों वर्षों की ग्रह स्थिति और मौसम की गणना कर सकता है।
मुंबई में अनेक वैज्ञानिकों, इतिहासकारों, व्यवसाय जगत की हस्तियों के समक्ष इस शोध को प्रस्तुत किया गया। और इस शोध संबंधित तथ्यों पर प्रकाश डालते हुए इसके संस्थापक ट्रस्टी डीके हरी ने एक समारोह में बताया था कि इस शोध में वाल्मीकि रामायण को मूल आधार मानते हुए अनेक वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक, ज्योतिषीय और पुरातात्विक तथ्यों की मदद ली गई है। इस समारोह का आयोजन भारत ज्ञान ने आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर की संस्था आर्ट ऑफ लिविंग के साथ मिलकर किया था।
कुछ वर्ष पूर्व वाराणसी स्थित श्रीमद् आद्य जगदगुरु शंकराचार्य शोध संस्थान के संस्थापक स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती ने भी अनेक संस्कृत ग्रंथों के आधार पर राम और कृष्ण की ऐतिहासिकता को स्थापित करने का कार्य किया था।
एक शोधानुसार लव और कुश की 50वीं पीढ़ी में शल्य हुए, जो महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे। यह इसकी गणना की जाए तो लव और कुश महाभारतकाल के 2500 वर्ष पूर्व से 3000 वर्ष पूर्व हुए थे अर्थात आज से 6,500 से 7,000 वर्ष पूर्व।
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पुस्तकें और ग्रंथ : नेपाल, लाओस, कंपूचिया, मलेशिया, कंबोडिया, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका, बाली, जावा, सुमात्रा और थाईलैंड आदि देशों की लोक-संस्कृति व ग्रंथों में आज भी राम जिंदा हैं। दुनियाभर में बिखरे शिलालेख, भित्तिचित्र, सिक्के, रामसेतु, अन्य पुरातात्विक अवशेष, प्राचीन भाषाओं के ग्रंथ आदि से राम के होने की पुष्टि होती है।
रामायण : रामायण को वाल्मीकि ने राम के काल में ही लिखा था इसीलिए इस ग्रंथ को सबसे प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। रामायण और महाभारत यही ग्रंथ मूलत: हिन्दू इतिहास और राम व कृष्ण की प्रामाणिक जानकारी देते हैं। यह मूल संस्कृत में लिखा गया ग्रंथ है। इसके अलावा पुराणों में वर्णित इतिहास को मिथकीय रूप में लिखा गया है जिसमें तथ्यों की क्रमबद्धता नहीं हैं। दरअसल, यह कर्मकांड और पूजा-पद्धतियों पर आधारित इतिहास-कथाएं हैं।
रामचरित मानस : रामचरित मानस को गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा जिनका जन्म संवत् 1554 को हुआ था। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना अवधी भाषा में की। रामायण से अधिक इस ग्रंथ की लोकप्रियता है लेकिन यह ग्रंथ भी रामायण सहित अन्य ग्रंथों और लोक-मान्यताओं पर आधारित है।
अन्य भारतीय रामायण : तमिल भाषा में कम्बन रामायण, असम में असमी रामायण, उड़िया में विलंका रामायण, कन्नड़ में पंप रामायण, कश्मीर में कश्मीरी रामायण, बंगाली में रामायण पांचाली, मराठी में भावार्थ रामायण आदि भारतीय भाषाओं में प्राचीनकाल में ही रामायण लिखी गई।
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विदेशी रामायण : कंपूचिया की रामकेर्ति या रिआमकेर रामायण, लाओस फ्रलक-फ्रलाम (रामजातक), मलयेशिया की हिकायत सेरीराम, थाईलैंड की रामकियेन और नेपाल में भानुभक्त कृत रामायण आदि प्रचलित हैं। इसके अलावा भी अन्य कई देशों में वहां की भाषा में रामायण लिखी गई है। इससे पता चलता है कि रामकथा और राम का प्रभाव संपूर्ण धरती पर था।
श्रीलंका : श्रीलंका के संस्कृत एवं पाली साहित्य का प्राचीनकाल से ही भारत से घनिष्ठ संबंध था। भारतीय महाकाव्यों की परंपरा पर आधारित 'जानकी हरण' के रचनाकार कुमार दास के संबंध में कहा जाता है कि वे महाकवि कालिदास के अनन्य मित्र थे। कुमार दास (512-21ई.) लंका के राजा थे। इसे पहले 700 ईसापूर्व श्रीलंका में 'मलेराज की कथा' की कथा सिंहली भाषा में जन-जन में प्रचलित रही, जो राम के जीवन से जुड़ी है।
बर्मा और कंपूचिया : बर्मा को पहले ब्रह्मादेश कहा जाता था। रामकथा पर आधारित बर्मा की प्राचीनतम गद्यकृति 'रामवत्थु' है। लाओस में रामकथा पर आधारित कई रचनाएं हैं जिनमें मुख्य रूप से फ्रलक-फ्रलाम (रामजातक), ख्वाय थोरफी, पोम्मचक (ब्रह्म चक्र) और लंका नाई के नाम उल्लेखनीय हैं।
कंपूचिया की रामायण को वहां के लोग 'रिआमकेर' के नाम से जानते हैं, किंतु साहित्य जगत में यह 'रामकेर्ति' के नाम से विख्यात है।
इंडोनेशिया और जावा : संपूर्ण इंडोनेशिया और मलयेशिया में पहले हिन्दू धर्म के लोग रहते थे लेकिन फिलिपींस के इस्लामीकरण के बाद वहां भी हिन्दुओं का जब कत्लेआम किया गया और फिर सभी ने मिलकर इस्लाम ग्रहण कर लिया।
फिलिपींस की तरह वहां भी रामकथा को तोड़-मरोड़कर एक काल्पनिक कथा का रूप दिया गया। डॉ. जॉन आर. फ्रुकैसिस्को ने फिलिपींस की मारनव भाषा में संकलित इक विकृत रामकथा की खोज की है जिसका नाम 'मसलादिया लाबन' है।
रामकथा पर आधारित इंडोनेशिया के जावा की प्राचीनतम कृति 'रामायण काकावीन' है। काकावीन की रचना कावी भाषा में हुई है। यह जावा की प्राचीन शास्त्रीय भाषा है।
मलेशिया : मलयेशिया का इस्लामीकरण 13वीं शताब्दी के आस-पास हुआ। मलय रामायण की प्राचीनतम पांडुलिपि बोडलियन पुस्तकालय में 1633 ई. में जमा की गई थी। मलयेशिया में रामकथा पर आधरित एक विस्तृत रचना है 'हिकायत सेरीराम'। हिकायत सेरीराम विचित्रताओं का अजायबघर है। इसका आरंभ रावण की जन्म कथा से हुआ है। मलेशिया मूलत: रावण के नाना का आधिपत्य था।
चीन और जापान : चीनी रामायण को 'अनामकं जातकम्' और 'दशरथ कथानम्' ने नाम से जाना जाता है। इनमें रामायण के हर पात्र के नाम अलग हैं और चीन में रामकथा के मायने भी अलग हैं। 'अनामकं जातकम्' और 'दशरथ कथानम्' के अनुसार राजा दशरथ जंबू द्वीप के सम्राट थे और उनके पहले पुत्र का नाम लोमो था।
चीनी कथा के अनुसार 7,323 ईसा पूर्व राम का जन्म हुआ। जापान के एक लोकप्रिय कथा संग्रह 'होबुत्सुशू' में संक्षिप्त रामकथा संकलित है। यह कथा वस्तुत: चीनी भाषा के 'अनामकं जातकम्' पर आधारित है, किंतु इन दोनों में अनेक अंतर भी हैं।
मंगोलिया : चीन के उत्तर-पश्चिम में स्थित मंगोलिया के लोगों को रामकथा की विस्तृत जानकारी है। वहां के लामाओं के निवास स्थल से वानर-पूजा की अनेक पुस्तकें और प्रतिमाएं मिली हैं। मंगोलिया में रामकथा से संबद्ध काष्ठचित्र और पांडुलिपियां भी उपलब्ध हुई हैं।
दम्दिन सुरेन ने मंगोलियाई भाषा में लिखित चार रामकथाओं की खोज की है। इनमें 'राजा जीवक की कथा' विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिसकी पांडुलिपि लेलिनगार्द में सुरक्षित है। जीवक जातक की कथा का 18वीं शताब्दी में तिब्बती से मंगोलियाई भाषा में अनुवाद हुआ था।
तिब्बत : तिब्बत में रामकथा को किंरस-पुंस-पा कहा जाता है। वहां के लोग प्राचीनकाल से वाल्मीकि रामायण की मुख्य कथा से सुपरिचित थे। तिब्बती रामायण की 6 प्रतियां तुन-हुआंग नामक स्थल से प्राप्त हुई हैं।
तुर्किस्तान : एशिया के पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थित तुर्किस्तान के पूर्वी भाग को खोतान कहा जाता है जिसकी भाषा खोतानी है। एचडब्लू बेली ने पेरिस पांडुलिपि संग्रहालय से खोतानी रामायण को खोजकर दुनिया के सामने लाया।
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शिलालेख और भित्तिचित्र : राम के काल में संपूर्ण भारत (कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक) और सीरिया, इराक, ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार (बर्मा), लाओस, थाईलैंड, वियतनाम, कंबोडिया, मलेशिया, सुमात्रा, जावा, इंडोनेशिया, बाली, फिलिपींस, श्रीलंका, मालदीव, मारिशस आदि जगहों पर राम पताका फहराई जाती थी।
हिंदेशिया का नाम बिगड़कर इंडोनेशिया हो गया। यहां पहले वानर जाति का राज था। इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप का नामकरण सुमित्रा के नाम पर हुआ था। मध्य जावा की एक नदी का नाम सेरयू है और उसी क्षेत्र के निकट स्थित एक गुफा का नाम किस्केंदा अर्थात किष्किंधा है।
लाओस, कंपूचिया और थाईलैंड के राजभवनों तथा बौद्ध विहारों की भित्तियों पर उकेरी गई रामकथा चित्रावली आज भी संरक्षित है। लाओस के लुआ प्रवा तथा वियेनतियान के राजप्रसाद में थाई रामायण 'रामकियेन' और लाओ रामायण फ्रलक-फ्रलाम की कथाएं अंकित हैं।
लाओस का उपमु बौद्ध विहार रामकथा-चित्रों के लिए विख्यात है। थाईलैंड के राजभवन परिसर स्थित वाटफ्रकायों (सरकत बुद्ध मंदिर) की भित्तियों पर संपूर्ण थाई रामायण 'रामकियेन' को चित्रित किया गया है।
कंपूचिया की राजधानी नामपेन्ह में एक बौद्ध संस्थान है, जहां खमेर लिपि में 2,000 तालपत्रों पर लिपिबद्ध पांडुलिपियां संकलित हैं। इस संकलन में कंपूचिया की रामायण की प्रति भी है।
थाईलैंड का प्राचीन नाम स्याम था और द्वारावती (द्वारिका) उसका एक प्राचीन नगर था। थाई सम्राट रामातिबोदी ने 1350 ई. में अपनी राजधानी का नाम अयुध्या (अयोध्या) रखा, जहां 33 हिन्दू राजाओं ने राज किया था।
थाईलैंड में लौपबुरी (लवपुरी) नामक एक प्रांत है। इसके अंतर्गत वांग-प्र नामक स्थान के निकट फाली (वालि) नामक एक गुफा है। कहा जाता है कि बालि ने इसी गुफा में थोरफी नामक महिष का वध किया था।
प्रशांत महासागर के पश्चिमी तट पर स्थित आधुनिक वियतनाम का प्राचीन नाम चंपा है। थाईवासियों की तरह वहां के लोग भी अपने देश को राम की लीलभूमि मानते है। उनकी मान्यता की पुष्टि 7वीं शताब्दी के एक शिलालेख से होती है जिसमें वाल्मीकि मंदिर का उल्लेख मिलता है जिसका पुनर्निमाण प्रकाश धर्म (653-679 ई.) नामक सम्राट ने करवाया था। शिलालेख इस मायने में अनूठा है, क्योंकि वाल्मीकि की जन्मभूमि भारत में भी उनके किसी प्राचीन मंदिर का अवशेष उपलब्ध नहीं है।
वियतनाम के बोचान नामक स्थान से एक क्षतिग्रस्त शिलालेख भी मिला है जिस पर संस्कृत में 'लोकस्य गतागतिम्' उकेरा हुआ है। दूसरी या तीसरी शताब्दी में उत्कीर्ण यह उद्धरण रामायण के अयोध्या कांड के एक श्लोक का अंतिम चरण है। संपूर्ण श्लोक इस प्रकार है-
क्रुद्धमाज्ञाय रामं तु वसिष्ठ: प्रत्युवाचह।
जाबालिरपि जानीते लोकस्यास्यगतागतिम्।।
अर्थात : वियतनाम के त्रा-किउ नामक स्थल से प्राप्त एक और शिलालेख यत्र-तत्र-क्षतिग्रस्त है। इसे भी चंपा के राजा प्रकाश धर्म ने खुदवाया था इसमें वाल्मीकि का स्पष्ट उल्लेख है-
'कवेराधस्य महर्षे वाल्मीकि'।
'पूजा स्थानं पुनस्तस्यकृत:'।
अर्थात : तात्पर्य यह कि महर्षि वाल्मीकि का एक प्राचीन मंदिर था जिसका प्रकाश धर्म ने पुनर्निर्माण करवाया।
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राम की वंश परंपरा : राम हुए हैं यह इस बात का सबूत है कि उनकी वंश परंपरा मिलती है। वंश परंपरा किसी कथा के काल्पनिक पात्र की नहीं होती। यह ऐसी वंशावली है जिसके वंशज दूसरे धर्म के भी ऐतिहासिक पुरुष माने जाते हैं और जिनका अपना अलग अस्तित्व है।
रामायण के बालकांड में गुरु वशिष्ठजी द्वारा राम के कुल का वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार है:- ब्रह्माजी से मरीचि का जन्म हुआ। मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। कश्यप के विवस्वान और विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए। वैवस्वत मनु के समय जलप्रलय हुआ था। वैवस्वत मनु के दस पुत्रों (इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध) में से एक का नाम इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु प्राचीन कौशल देश के राजा थे और इनकी राजधानी अयोध्या थी।
इक्ष्वाकु के तीन पुत्र थे- कुक्षि, निमि और दण्डक। निमि तो जैन धर्म के तीर्थंकर हैं। इक्ष्वाकु के पहले पुत्र कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था। विकुक्षि के पुत्र बाण और बाण के पुत्र अनरण्य हुए। अनरण्य से पृथु और पृथु और पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ। त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए। धुंधुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था। युवनाश्व के पुत्र मांधाता हुए और मांधाता से सुसन्धि का जन्म हुआ। सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित। ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए।
भरत के पुत्र असित हुए और असित के पुत्र सगर हुए। सगर अयोध्या के बहुत प्रतापी राजा थे। सगर के पुत्र का नाम असमंज था। असमंज के पुत्र अंशुमान तथा अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए। दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए। भगीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतारा था। भगीरथ के पुत्र ककुत्स्थ और ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए। रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया। तब राम के कुल को रघुकुल भी कहा जाता है।
रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए। प्रवृद्ध के पुत्र शंखण और शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए। सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था। अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग और शीघ्रग के पुत्र मरु हुए। मरु के पुत्र प्रशुश्रुक और प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए। अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था। नहुष के पुत्र ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग हुए। नाभाग के पुत्र का नाम अज था। अज के पुत्र दशरथ हुए और दशरथ के ये चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हैं। वाल्मीकि रामायण- ॥1-59 से 72।।
लुजियान यूनिवर्सिटी अमेरिका के प्रो. सुभाष काक ने अपनी पुस्तक 'द एस्ट्रोनॉमिकल कोड ऑफ ऋग्वेद' में श्रीराम के उन 63 पूर्वजों का वर्णन किया है जिन्होंने अयोध्या पर राज किया था। रामजी के पूर्वजों का वर्णन उन्होंने क्रमश: इस प्रकार किया- मनु, इक्ष्वाकु, विकुक्शी (शषाद), ककुत्स्थ, विश्वरास्व, आर्द्र, युवनाष्व (प्रथम), श्रावस्त, वृहदष्व, दृधावष्व, प्रमोद, हर्यष्व (प्रथम), निकुंभ, संहताष्व, अकृषाश्व, प्रसेनजित, युवनाष्व (द्वितीय), मांधातृ, पुरुकुत्स, त्रसदस्यु, संभूत, अनरण्य, त्राशदष्व, हर्यष्व (द्वितीय), वसुमाता, तृधन्व, त्रैयारूण, त्रिशंकु, सत्यव्रत, हरिश्चंद्र, रोहित, हरित (केनकु), विजय, रूरुक, वृक, बाहु, सगर, असमंजस, दिलीप (प्रथम), भगीरथ, श्रुत, नभाग, अंबरीष, सिंधुद्वीप, अयुतायुस, ऋतपर्ण, सर्वकाम, सुदास, मित्राशा, अष्मक, मूलक, सतरथ, अदिविद, विश्वसह (प्रथम), दिलीप (द्वितीय), दीर्घबाहु, रघु, अज, दशरथ और राम।
राम के बाद कुश का कुल चला। कुश से अतिथि, निषाध, नल, नभस, पुंडरीक, क्षेमधन्व, देवानीक, अहीनगु, परिपात्र, बाला, उकथ, वज्रनाभ, षंखन, व्युशिताष्व, विश्वसह (द्वितीय), हिरण्यनाभ, पुश्य, ध्रुवसंधि, सुदर्शन, अग्निवर्ण, शीघ्र, मरू, प्रसुश्रुत, सुसंधि, अमर्श, महाष्वत, विश्रुतवंत, बृहदबाला, बृहतक्शय और इस तरह आगे चलकर कुश की 50वीं पीढ़ी में शल्य हुए, जो महाभारत में कौरवों की ओर से लड़े थे।
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सोने की लंका : श्रीलंका में वह स्थान ढूंढ लिया गया है, जहां रावण की सोने की लंका थी। ऐसा माना जाता है कि जंगलों के बीच रानागिल की विशालका पहाड़ी पर रावण की गुफा है, जहां उसने तपस्या की थी। रावण के पुष्पक विमान के उतरने के स्थान को भी ढूंढ लिया गया है।
श्रीलंका का इंटरनेशनल रामायण रिसर्च सेंटर और वहां के पर्यटन मंत्रालय ने मिलकर रामायण से जुड़े ऐसे 50 स्थल ढूंढ लिए हैं जिनका पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व है और जिनका रामायण में भी उल्लेख मिलता है।
श्रीलंका सरकार ने 'रामायण' में आए लंका प्रकरण से जुड़े तमाम स्थलों पर शोध कराकर उसकी ऐतिहासिकता सिद्ध कर उक्त स्थानों को पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित करने की योजना बना ली है। इसके लिए उसने भारत से मदद भी मांगी है।
वेरांगटोक जो महियांगना से 10 किलोमीटर दूर है वहीं पर रावण ने सीता का हरण कर पुष्पक विमान को उतारा था। महियांगना मध्य श्रीलंका स्थित नुवारा एलिया का एक पर्वतीय क्षेत्र है। इसके बाद सीता माता को जहां ले जाया गया था उस स्थान का नाम गुरुलपोटा है जिसे अब 'सीतोकोटुवा' नाम से जाना जाता है। यह स्थान भी महियांगना के पास है।
एलिया पर्वतीय क्षेत्र की एक गुफा में सीता माता को रखा गया था जिसे 'सीता एलिया' नाम से जाना जाता है। यहां सीता माता के नाम पर एक मंदिर भी है। इसके अलावा और भी स्थान श्रीलंका में मौजूद हैं, जिनका ऐतिहासिक महत्व है।
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रामसेतु को बचाने की जरूरत : भारत के दक्षिण में धनुषकोटि तथा श्रीलंका के उत्तर-पश्चिम में पम्बन के मध्य समुद्र में 48 किमी चौड़ी पट्टी के रूप में उभरे एक भू-भाग के उपग्रह से खींचे गए चित्रों को अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (नासा) ने 1993 में दुनियाभर में जारी किया और इसे नाम दिया- एडम ब्रिज। ईसाई मान्यता अनुसार यह एडम ब्रिज है।
जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (नासा वैश्विक परिवर्तन मास्टर निर्देशिका) द्वारा दिए गए अनुमान के अनुसार पिछले 9,000 वर्षों में समुद्र सतह का स्तर लगभग 2.8 मीटर अर्थात 9.3 फीट बढ़ा है। वर्तमान में रामसेतु के अवशेष समुद्र सतह से लगभग इसी गहराई (9 से 10 फीट नीचे) पर पाए गए हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वर्तमान में 7,000 ईसा पूर्व इस सेतु का प्रयोग भूमि मार्ग के रूप में किया जाता था। हजारों वर्ष पूर्व मानव द्वारा निर्मित सेतु का यह अकेला उदाहरण है।
रामसेतु के बारे में प्राचीनकाल से सभी लोग जानते थे लेकिन 2005 में इस पर ज्यादा बवाल मचा जबकि 2005 में भारत सरकार ने सेतुसमुद्रम परियोजना का ऐलान किया। भारत सरकार सेतुसमुद्रम परियोजना के तहत तमिलनाडु को श्रीलंका से जोड़ने की योजना पर काम कर रही है। इससे व्यापारिक फायदा उठाने की बात कही जा रही है। लेकिन यह परियोजना तभी पूरी होगी जबकि रामसेतु को तोड़ा जाए। मामला कोर्ट में होने के बावजूद रामसेतु के बहुत से हिस्से तोड़ दिए गए हैं।
रामकथा के लेखक नरेंद्र कोहली के अनुसार सरकार यह झूठ प्रचारित कर रही है कि राम ने लौटते हुए सेतु को तोड़ दिया था। जबकि रामायण के मुताबिक राम लंका से वायुमार्ग से लौटे थे, तो सोचें वे पुल कैसे तुड़वा सकते थे। रामायण में सेतु निर्माण का जितना जीवंत और विस्तृत वर्णन मिलता है, वह कल्पना नहीं हो सकता। यह सेतु कालांतर में समुद्री तूफानों आदि की चोटें खाकर टूट गया, मगर इसके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता।
लालबहादुर शास्त्री विद्यापीठ के लेक्चरर डॉ. राम सलाई द्विवेदी का कहना है कि वाल्मीकि रामायण के अलावा कालिदास ने 'रघुवंश' के तेरहवें सर्ग में राम के आकाश मार्ग से लौटने का वर्णन किया है। इस सर्ग में राम द्वारा सीता को रामसेतु के बारे में बताने का वर्णन है इसलिए यह कहना गलत है कि राम ने लंका से लौटते हुए सेतु तोड़ दिया था।
वाल्मीक रामायण में वर्णन मिलता है कि पुल लगभग 5 दिनों में बन गया जिसकी लंबाई सौ योजन और चौड़ाई दस योजन थी। रामायण में इस पुल को ‘नल सेतु’ की संज्ञा दी गई है। नल के निरीक्षण में वानरों ने बहुत प्रयत्नपूर्वक इस सेतु का निर्माण किया था। -(वाल्मीक रामायण- 6/22/76)।
वाल्मीकि रामायण में कई प्रमाण हैं कि सेतु बनाने में उच्च तकनीक प्रयोग किया गया था। कुछ वानर बड़े-बड़े पर्वतों को यंत्रों के द्वारा समुद्रतट पर ले आए थे। कुछ वानर सौ योजन लंबा सूत पकड़े हुए थे, अर्थात पुल का निर्माण सूत से सीध में हो रहा था। -(वाल्मीक रामायण- 6/22/62)
गीता प्रेस, गोरखपुर से छपी पुस्तक श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण कथा 'सुख सागर' में वर्णन है कि राम ने सेतु के नामकरण के अवसर पर उसका नाम ‘नल सेतु’ रखा। इसका कारण था कि लंका तक पहुंचने के लिए निर्मित पुल का निर्माण विश्वकर्मा के पुत्र नल द्वारा बताई गई तकनीक से संपन्न हुआ था। महाभारत में भी राम के नल सेतु का जिक्र आया है।
अन्य ग्रंथों में कालिदास के रघुवंश में सेतु का वर्णन है। स्कंद पुराण (तृतीय, 1.2.1-114), विष्णु पुराण (चतुर्थ, 4.40-49), अग्नि पुराण (पंचम-एकादश) और ब्रह्म पुराण (138.1-40) में भी श्रीराम के सेतु का जिक्र किया गया है।
गोवा के राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान (एनआईओ) में भू-वैमानिक समुद्र विज्ञान विभाग की प्राचीन जलवायु परियोजना के अध्यक्ष और वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. राजीव निगम ने भी उपरोक्त की पुष्टि की थी। उन्होंने पिछले पंद्रह हजार वर्षों के दौरान समुद्र की सतह पर आए उतार-चढ़ाव और इनके किनारों पर बसी मानव बस्तियों पर इनके प्रभाव पर प्रकाश डाला है। उनके अनुसार उनकी रिपोर्टों से 7,500 और उसके बाद से जलमग्न हुए या तत्पश्चात भूमि से घिरे कई तटवर्ती पुरातात्विक स्थलों के अस्तित्व का पता चलता है। इनमें शामिल हैं- हजीरा, धोलावीरा, जूनी कुरन, सुरकोट्डा, प्रभास पाटन और द्वारका इत्यादि।
राजीव निगम के अनुसार समुद्र का जलस्तर 7 हजार से 7 हजार 200 वर्ष पूर्व (5000 से 5200 ईसा पूर्व) के आसपास मौजूदा स्तर से लगभग 3 मीटर नीचे था। वर्तमान में रामसेतु लगभग इतना ही नीचे पानी में डूबा है
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लव और कुश : भरत के दो पुत्र थे- तार्क्ष और पुष्कर। लक्ष्मण के पुत्र- चित्रांगद और चन्द्रकेतु और शत्रुघ्न के पुत्र सुबाहु और शूरसेन थे। मथुरा का नाम पहले शूरसेन था। लव और कुश राम तथा सीता के जुड़वां बेटे थे। जब राम ने वानप्रस्थ लेने का निश्चय कर भरत का राज्याभिषेक करना चाहा तो भरत नहीं माने। अत: दक्षिण कोसल प्रदेश (छत्तीसगढ़) में कुश और उत्तर कोसल में लव का अभिषेक किया गया।
राम के काल में भी कोशल राज्य उत्तर कोशल और दक्षिण कोशल में विभाजित था। कालिदास के रघुवंश अनुसार राम ने अपने पुत्र लव को शरावती का और कुश को कुशावती का राज्य दिया था। शरावती को श्रावस्ती मानें तो निश्चय ही लव का राज्य उत्तर भारत में था और कुश का राज्य दक्षिण कोसल में। कुश की राजधानी कुशावती आज के बिलासपुर जिले में थी। कोसला को राम की माता कौशल्या की जन्मभूमि माना जाता है। रघुवंश के अनुसार कुश को अयोध्या जाने के लिए विंध्याचल को पार करना पड़ता था इससे भी सिद्ध होता है कि उनका राज्य दक्षिण कोसल में ही था।
राजा लव से राघव राजपूतों का जन्म हुआ जिनमें बर्गुजर, जयास और सिकरवारों का वंश चला। इसकी दूसरी शाखा थी सिसोदिया राजपूत वंश की जिनमें बैछला (बैसला) और गैहलोत (गुहिल) वंश के राजा हुए। कुश
प्रस्तुतकर्ता Saffron