रसोई और आयुर्वेद
पहले मुझे लगता था कि आयुर्वेद को अपनाना कितना कठिन होगा, पूरी जीवनशैली में आमूलचूल परिवर्तन करना पड़ेगा। अपना जीवन तो फिर भी ढाला जा सकता है, पर रसोई में कोई हस्तक्षेप गृहस्वामी के लिये मँहगा पड़ सकता है। गहरे उतरा, तो पाया कि कितना सरल है आयुर्वेद को अपनाना और किस तरह से भारतीय जीवन के प्रत्येक पक्ष में इसे पहले ही समाहित किया जा चुका है। जीवन जीने में कितनी सरलता से इसे जोड़ दिया गया है, हमारी रसोई से और हमारी जीवन शैली से, हमारे मनीषियों ने।
आयुर्वेद हमारी जीवनशैली, दिनचर्या और ऋतुचर्या में सदियों से पिरो दिया गया है। उससे भी अधिक वह हमारी पारम्परिक रसोई में विद्यमान है। तनिक और ध्यान से विश्लेषित किया तो दिखा कि हमारी रसोई आयुर्वेद की पारम्परिक प्रयोगशालायें हैं, हर घर में एक, हर दिन कार्यरत, और निष्कर्ष हमारा स्वास्थ्य। हमें कभी पता नहीं चला, पर जिस कुशलता से हमारे आयुर्वेद के पुरोधाओं ने इन सूत्रों की वैज्ञानिकता को रसोई में समाहित किया है, वह उपलब्धि आयुर्वेद से भी गहरी है। एक एक पकवान, किसी भी ऋतु का, किसी भी समय का, सबमें आयुर्वेद के सूत्र का आधार। अद्भुत है आयुर्वेद के काल का विस्तार और सन्निहित प्रक्रियाओं की सूक्ष्मता।
भारतीय रसोई या आयुर्वेदीय प्रयोगशाला
पिछले २०-३० वर्ष में भारतीय रसोई में आये बदलावों को छोड़ दें और तब रसोई में आयुर्वेद की स्थापना देखें तो आये बदलाव हमें आधुनिकता की मूर्खतापूर्ण नकल लगेगी। लगेगा कि जिन प्रयोगशालाओं में स्वास्थ्य के प्रयोग सदियों से चल रहे हैं, उनमें किस तरह हमने अवैज्ञानिकता को प्रवेश करने दिया। आइये, वाग्भट्ट के रसोई सम्बन्धित ऐसे ही चार सिद्धान्तों का विश्लेषण करते हैं।
वाग्भट्ट का पहला सिद्धान्त है कि जिस भोजन को सूर्य का प्रकाश और पवन का स्पर्श न मिले, वह भोजन नहीं, विष है जो धीरे धीरे हमें ही खा जायेगा। सूर्य का प्रकाश और पवन का स्पर्श अन्न, शाकादि के बनने में सहायक होता है। इन दोनों की अनुपस्थिति शरीर के प्रति लाभप्रद नहीं मानी गयी है। ऐसा जल भी दूषित माना जाता है। यही कारण रहा होगा कि जैन मतावलम्बी धरती के अन्दर होने वाले उत्पादों को नहीं खाते हैं। सूर्यास्त के पश्चात भोजन पकाने, खाने और संग्रहण भी संभवतः इसी कारण जैन समाज में निषेध हों। हो सकता है कि धूप में सुखाने से उसमें हानिकारक जीवाणु न आते हों। पवन का स्पर्श, संभव है, उसमें ऑक्सीजन और पोषक तत्वों को समाहित कर लेता हो और उसे स्वास्थ्यप्रद बना देता हो। अहिंसा प्रेरित जैनियों की आस्था निराधार तो कदाचित नहीं होगी, और निश्चय ही उसमें वाग्भट्ट के सूत्रों का स्वस्थ संचरण होगा।
वाग्भट्ट का दूसरा सिद्धान्त है कि जिस अन्न को खेत में पकने में अधिक समय लगता है, उसे पकने में उतना ही अधिक समय लगेगा। यहाँ पर गति का सिद्धान्त दिखता है। कहने का आशय है कि किसी भी अन्न में निहित पूर्णपोषकता निकालने के लिये उसे उसी अनुपात में पकाना चाहिये जिस अनुपात में प्रकृति ने उसे पकाया है। खेत में ३ माह में पके अन्न को कम पकाना पड़ेगा, जबकि ९ माह में पके अन्न को उससे कहीं अधिक पकाना पड़ेगा। माटी से पोषक तत्वों का एकत्रीकरण और भोजन के लिये उसका विघटन, ये दोनों एक दूसरे की विपरीत प्रक्रियायें हैं। न हम उसे पल्लवित करने को तीव्र कर सकते हैं और न ही उसे पोषक तत्वों में विघटित करने के लिये शीघ्रता कर सकते हैं। यदि हम ऐसा करते हैं तो हमें खाद्य तो मिलेगा पर उसमें पोषक तत्व नहीं मिलेंगे।
वाग्भट्ट का तीसरा सिद्धान्त है कि भोजन बनने के ४८ मिनट के अन्दर उसको खा लेना चाहिये। जैसे जैसे देर होती है, उसकी पौष्टिकता कम होती जाती है। २४ घंटे के बाद भोजन बासी हो जाता है और पशुओं के खिलाने के योग्य भी नहीं रहता है। बार बार ठण्डा गरम करने की प्रक्रिया में पोषकतत्व अपना मौलिक गुण खो बैठते हैं और विकृति उत्पन्न करते हैं। साथ ही साथ अन्नादि को पीसने के बाद १५ दिन के अन्दर ही उसका उपयोग कर लेना चाहिये, नहीं तो उनमें भी पोषकता का क्षय होने लगता है। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो यह बात बड़ी स्वाभाविक लगती है। एक बार पकने या पीसने से किसी भी अन्न के पोषक तत्व अपने सर्वाधिक ग्राह्य रूप में आ जाते हैं। इस समय वातावरण में व्याप्त न जाने कितने जीवाणुओं के लिये यह सुविधाजनक होता होगा कि वे उस पर धावा बोल दें। जैसे जैसे समय बीतता होगा, पके अन्न का मौलिक गुण इन जीवाणुओं के द्वारा परिवर्तित और दूषित होता होगा। यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि वाग्भट्ट द्वारा दी इतनी वैज्ञानिक सलाह का हम प्रायः हर दिन उल्लंघन करते हैं।
वाग्भट्ट का चौथा सिद्धान्त है कि किसी भी कार्य में यदि अधिक गति से किया जाये तो वह वात उत्पन्न करता है। भारत एक वात प्रधान देश है, यहाँ पर ७० प्रतिशत रोग वातजनित, २० प्रतिशत पित्तजनित और १० प्रतिशत कफजनित हैं। कहने का आसय यह है कि हम जीवन में या रसोई में जो भी प्रक्रियायें अपनायें, वे गतिमान न हों और सूक्ष्म न हों। धीरे पीसे आटे में और बिजली की चक्की के तेज पीसे आटे में यही गुण झलकता है। प्रयोग कर के देख लें कि धीरे पिसा आटे की रोटी अधिक समय तक मृदु रहती है, जबकि तेजी से पिसे आटे की रोटी बहुत शीघ्र ही कड़ी हो जाती है। इसी तरह मैदा जैसा सूक्ष्म अन्न वात बढ़ाता है। वही सूक्ष्मीकरण की प्रक्रिया रिफाइण्ड तेल और चीनी के साथ भी होती है, और स्वाभाविक है कि ये दोनों कड़वे तेल और गुड़ की अपेक्षा बहुत अधिक वात बढ़ाते हैं।
आइये देखते हैं कि आधुनिक जीवन शैली ने पिछले २०-३० वर्षों में इन चार सिद्धान्तों की किस तरह से धज्जियाँ उड़ायी हैं और किस तरह से हमारी रसोई आयुर्वेद की प्रयोगशाला से रोगों की प्रयोगशाला बन गयी है।
हांडी की दाल
प्रेशर कुकर पहले दो सिद्धान्तों का उल्लंघन करता है। प्रेशर कुकर में पकते समय न सूर्य का प्रकाश मिलता है और न पवन का स्पर्श। साथ ही साथ अपने प्रेशर से दाल को तोड़ कर उबाल देता है, दाल को उसके पोषक तत्वों में विघटित नहीं करता है। खेतों में दाल को पकने में ९ माह के आसपास लगता है, तो दूसरे सिद्धान्त के अनुसार उसे अग्नि पर भी देर तक पकाना चाहिये, धीरी आँच में। जिन्हें भी अपने गाँव की तनिक भी याद है उन्हें याद होगा कि प्रेशर कुकर आने के पहले हर घर में माटी की हांडी में दाल बनती थी, धीरे धीरे और अद्भुत स्वादिष्ट। प्रेशर कुकर में पकी दाल में पोषक तत्व मात्र १५ प्रतिशत पाये गये, जबकि माटी की हांडी की दाल में एक भी पोषकतत्व नष्ट नहीं हुआ। जगन्नाथ पुरी में आज भी माटी की हांडी में प्रसाद बनता है। माटी का सोंधापन और तत्वों में शरीर से एकरूपता, उसे इतना उत्कृष्ट पाकपात्र बनाते होंगे। साथ ही साथ प्रेशर कुकर में प्रयुक्त एल्युममिनियम का उपयोग स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यन्त संदिग्ध और हानिकारक है। यह तथ्य जानने के बाद, मेरे घर में दाल और खीर माटी की हांडी में ही बन रही है, स्वाद अद्भुत और पौष्टिकता शत प्रतिशत।
फ्रिज और ओवेन, पहले और तीसरे सिद्धान्त का उल्लंघन करते हैं। खाद्य को संरक्षित करने के नाम पर बार बार ठंडा गरम कर हम उसमें पौष्टिकता पूरी तरह से निकाल देते हैं और केवल अवशिष्ट खाते है। न केवल हम अपने पाचनतन्त्र का विनाश करने पर तुले हैं, वरन बिजली की अथाह बरबादी और क्लोरोफ्लोरोकार्बन के उत्सर्जन से पर्यावरण को भी क्षति पहुँचा रहे हैं। फ्रिज के ठंडे पानी ने देश में कब्जियत का प्रसार किया है। आवश्यकता इस बात की है कि हम घड़े का उपयोग करें। साथ ही साथ उतना ही बनाये जितना खा सकें। अधिक बनने पर संरक्षित न करें वरन आसपास के पशु पक्षियों को खिला दें। भारत में भोजन बचाकर और उसे अपोषक बनाकर खाने की परम्परा नहीं है। ताजी और गरम रोटी का सुख, स्वास्थ्य और स्वाद, सड़ाकर और बासी आटे से बने पाव और डबलरोटी से कहीं अधिक है।
मिक्सी आदि यन्त्र चौथे नियम को तोड़ते हैं। गति के सिद्धान्त की प्रकृति में उपेक्षा नहीं की जा सकती है। सिलबट्टा आदि में सब कुछ धीरे धीरे पिसता है और आवश्यकता से अधिक सूक्ष्म भी नहीं होता है। मिक्सी आदि में न केवल गति से पिसता है, वरन अतिसूक्ष्म भी हो जाता है, दोनों ही प्रकार से वह वातकारक है। इसी प्रकार पैकेट का आटा और डब्बाबन्द भोजन तीसरे और चौथे सिद्धान्त का उल्लंघन करते हैं। बंगलोर में रहने वाले मेरे कई मित्र बताते हैं कि पैकेट वाले आटे में घर जैसी बात नहीं, उससे पेट तो भरता है, पर संतुष्टि नहीं मिलती है। मुझे अपने गाँव की याद आती है, वहाँ सुबह उठकर दिन भर की आवश्यकता के लिये हाथ से चलने वाली चक्की में आटा पीसने का कार्य हमारी घर का महिलायें करती थीं।
हमारी रसोई में चलती परिपाटियाँ आयुर्वेद के सूत्रों का अमृत निचोड़ होता था, वह भी हर छोटी बड़ी प्रक्रिया में सरलता से सहेजा हुआ। चक्की, सिलबट्टा आदि यन्त्रों से न केवल हमारे स्वाद और स्वास्थ्य की रक्षा होती थी, वरन घर में रहने वाली महिलाओं का समुचित व्यायाम भी हो जाता था। आधुनिक यन्त्रों ने स्वाद, स्वास्थ्य और श्रम के सुन्दर संतुलन को नष्ट कर दिया है, हमें भी मशीन बनाकर रख दिया है। अब न हम पौष्टिक खा पा रहे हैं, न स्वादिष्ट खा पा रहे हैं, न स्वस्थ हैं और न ही सुगढ़।
यथासंभव विकार उत्पन्न करने वाले परिवर्तनों को रसोई से विदा करें और रसोई को पुनः आयुर्वेद की प्रयोगशाला के रूप में सुस्थापित करें। आगामी पोस्ट में कुछ और आयुर्वेदिक तत्व।