[दुनिया ,देश और समाज के भविष्य को सुखद बनाने के लिए नयी पीढ़ी को आदर्शों और सिद्धांतों के प्रति प्ररिबद्ध करना आवश्यक है ,साथ ही साथ उन्हें इस प्रकार से संस्कारित किया जाय ताकि भविष्य में आने वाले तूफानों से वे अपने को बचा सकें .हमारे दिए हुए सार्थक संस्कारों की जड़ें इतनी मजबूत हों की वे कभी दिग्भ्रमित न हो पायें ,विचलित न हो पायें ,गलत राह पर न चले जाएँ .अर्थात प्रतिकूल वातावरण में भी अपने सिद्धांतों ,नैतिक मूल्यों को सुरक्षित रख सकें.कुछ इस प्रकार से भी कह सकते हैं उन्हें तत्कालीन व्यावहारिक ज्ञान दिया जाना आवश्यक है.हमारा स्वयं का आचरण भी महत्वपूर्ण है,बच्चों को संस्कारित करने के लिए.बच्चे के जन्म से पूर्व अपने आचरण को सुधार लें.]
शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार मानव विकास की प्रथम सीढ़ी है .गत पचास वर्षों में हमारे देश में शिक्षा के प्रसार में द्रुत गति से प्रगति हुयी है .देश में शिक्षितों की संख्या तीव्रता से बढ़ी है सिर्फ पचास वर्ष पूर्व जहाँ स्नातक ढूँढने से ही मिलते थे . आज स्नातक की शिक्षा प्राप्त कर लेना प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर लेने के समान हो गया है.व्यावसायिक क्षेत्र में किया गया स्नातक अवश्य महत्त्व पूर्ण माना जाता है आज किसी कारोबारी क्षेत्र में स्नाकोत्तर किया हुआ व्यक्ति विद्वान् या योग्य व्यक्ति कहलाता है .जैसे मेडिकल लाइन में ,इंजीनियरिंग लाइन में ,वित्तीय लाइन में ,इत्यादि में योग्यता प्राप्त करना सम्मान जनक होता है. आज समय की मांग है की समाज में अपनी विद्वता का डंका बजाना है तो किसी भी क्षेत्र में विशेषज्ञता पाना आवश्यक है .आधुनिक युग में शैक्षिक विकास के साथ साथ भोतिकवाद की दौड़ भी तेज हुयी है .प्रत्येक व्यक्ति येन केन प्रकारेण अधिक से अधिक सुख सुविधाएँ जुटा लेने को प्रयासरत है .जिसने गला काट प्रतिद्वंद्विता को जन्म दिया है .झूंठ ,मक्कारी धोखेबाजी ,चापलूसी ,हिंसा जैसे अवगुणों को अपनाना उसकी मजबूरी बन गयी है अर्थात नैतिकता का अस्तित्व समाप्त प्रायः होता जा रहा है .यह तो कटु सत्य है की बिना, नैतिक उत्थान के सिद्धांतों , की रक्षा किये मानव विकास संभव नहीं है . क्या ऐसे वातावरण में हमें आदर्शों को भूल जाना चाहिए ,या अपने बच्चों को आदर्शों पर अडिग रहने के लिए प्रेरित करना उचित होगा ? क्या वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा में आदर्शों को कट्टरता से अपनाये रहने से,वह उन्नति कर पायेगा ? क्या कोई अभिभावक अपने बच्चे को ज़माने की दौड़ में पिछड़ता हुआ देखना चाहेगा ? तो क्या बच्चों को आदर्शों से दूर रहने को कहना ठीक होगा ? क्या नैतिक मूल्यों को तिलांजलि देना पड़ेगा ? क्या बिना नैतिक आचरण के समाज का कल्याण संभव है ? फिर कौन सा रास्ता अपनाया जाये ताकि आदर्शों की रक्षा भी हो सके और संतान की उन्नति भी प्रभावित न हो ?
उपरोक्त सभी प्रश्नों को उत्तर यही है की हमें अपने बच्चों को इस प्रकार से संस्कारित करना होगा ताकि वे उसके भावी जीवन में आने वाले हर तूफ़ान का सामना कर सके , साथ ही जीवन के आदर्शों की रक्षा भी हो सके .उसके संस्कारों की जड़ें इतनी गहरी हों ताकि कोई उसे हिला न पाए .उसे दिग्भ्रमित न कर पाए ,वह विचलित न हो सके ,वह गलत रस्ते पर न चला जाये .और अपने जीवन की रक्षा भी कर सके .प्रतिकूल वातावरण में भी अपने नैतिक मूल्यों को संजो सके,उन्हें सुरक्षित रख सके .जैसे जैसे इन्सान शिक्षित होता जाता है उसकी तर्क शक्ति भी बढती जाती है.आज अपने बच्चों को अपनी सलाह मानने को मजबूर इसलिए नहीं कर सकते,की आप उसके बड़े हैं ,शिक्षक हैं , या माता पिता हैं.उसे कोई सलाह को मानने के लिए प्रेरित करना है तो अपनी सलाह देने के पीछे उसे तार्किक कारण भी समझाना होगा .यदि आप उसे ठीक प्रकार से समझा पाए तो ही वह आपकी शिक्षा या सलाह पर अमल करेगा.यही बढ़ी हुई तर्कशक्ति का समाज के कल्याण में उपयोग हो सकता और उचित दिशा निर्देश के अभाव में दुरूपयोग भी किया जा सकता है .क्योंकि यह मानव प्रकृति है की वह किसी शिक्षा के नकारात्मक पहलू को शीघ्र अपना लेता है ,जबकि सकारत्मक पहलू को देर से ग्रहण करता है .इसी कारण शिक्षा के बढ़ते प्रभाव के साथ साथ दुनिया में चालबाजियां ,मक्कारियां ,बेईमानियाँ ,एवं गैर कानूनी गतिविधियों का ग्राफ भी तेजी से बढा है अब अपराध भी उच्च तकनीक वाले होते हैं.जो समाज को चुनौती देते रहते हैं.प्रतिस्पर्द्धा के इस युग में आज जब कोई सिद्धांतों की बात करता है तो उसे पिछड़े पन का द्योतक माना जाता है .उसे पुराने ज़माने का सूफी सन्यासी मान कर नकार दिया जाता है.चतुर,चालक ,स्वार्थी ,भौतिक वादी इन्सान को स्मार्ट एवं आधुनिक माना जाता है .ऐसे वातावरण में यदि हम अपने बच्चे को समाज के आदर्शों का पाठ पढ़ाते हैं ,तो वर्तमान परिपेक्ष में बच्चों के लिए समस्या बन जाती है उन्हें समझ नहीं आता की वे अपने शिक्षक की बातों या अपने अभिभावकों की बातों को मानकर उनके बताये आदर्शों पर चलें या समाज के माहौल के अनुसार चल कर अपने भविष्य में आगे बढ़ें . इस उहा पोह की स्थिति में शिक्षक के आदर्शों का पलड़ा हल्का हो जाता है और बच्चा उनकी उपेक्षा करने लगता है .शिक्षक के बताये आदर्शों को यदि पाठ्यक्रम के अनुरूप,परीक्षा पास करने के लिए, कंठस्थ करना आवश्यक है तो वह उस सन्देश को परीक्षा देने तक याद रखता है, तत्पश्चात भूल जाता है .क्या वर्तमान समय को देखते हुए क्या आदर्श की शिक्षा देना बंद कर देना चाहिए? क्या समाज में आदर्शों का कोई महत्व नहीं रहा गया है ?क्या कोई ऐसा मार्ग नहीं खोजा जा सकता ताकि आदर्शों की रक्षा भी हो सके और हमारी संतान सीना तान कर ज़माने से लड़ते हुए कामयाबी की सीढियों पर चढ़ सके .अर्थात आदर्शों की शिक्षा देने का तरीका इस प्रकार हो जो बच्चों का भविष्य चमका सके और उसमे दुनिया की बुराइयों से लड़ने की योग्यता भी विकसित हो सके .गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा में आदर्शों के साथ आगे बढ़ सके .इसके लिए हमें आदर्शों का परिचय कराते समय उसके व्यावहारिक स्वरूप को अपनाने के लिए प्रेरित करना होगा .आदर्शों को लचीलेपन के साथ अपनाया जाये आदर्शों को कट्टरता से न अपना कर परिस्थितियों के अनुसार निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी जाये .बच्चों को नैतिक शिक्षा देते हुए उसके व्यावहारिक रूप में अपनाने के उपाय बताये जाएँ .ताकि बच्चे ज़माने के साथ चल कर अपने आदर्शों को भी अपनाते रहें और आदर्शों का अस्तित्व भी बना रहे .क्योंकि स्वास्थ्य समाज के विकास के लिए मानव को सभ्यता ,शिष्टता ,एवं अन्य आदर्श मानवीय मूल्यों को अपनाना भी नितांत आवश्यक है
व्याहारिक आदर्शों की शिक्षा की व्याख्या कुछ इस प्रकार की जा सकती है;-
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क्या हमें हमेशा सत्य बोलना चहिये ;
विश्वसनीयता कायम करने के लिए सत्य का दामन थामना व्यक्ति के लिए आवश्यक है . परन्तु आज के माहौल में सिर्फ सत्य बोलना अर्थात असत्य बोलने से परहेज करना मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव है.अतः सत्य का पाठ पढ़ाते समय पहले सत्य का जीवन में महत्त्व बताया जाय,सत्य व्यक्ति को समाज में सम्माननीय बनाता है ,विश्वसनीय बनाता है अतः सत्य बोलने का संकल्प लेना जीवन में कामयाब होने के लिए आवश्यक है. परन्तु विपरीत परिस्थितियों में असत्य बोलना भी किसी का जीवन बचा सकता है ,आपके किसी परिजन या मित्र के हितों की रक्षा के लिए ,या किसी षड्यंत्रकारी के फरेब से बचने के लिए झूंठ का दामन थामना कोई गलत नहीं होता .यदि झूंठ बोलने से किसी अपने का विश्वास टूटता है ,किसी के साथ धोखा होता है , ऐसे झूंठ से सदैव बचना चाहिए .यानि की सत्य बोल कर किसी का अहित नहीं करना चाहिय परन्तु झूंठ बोलकर किसी के साथ धोखा या विश्वासघात नहीं करना चाहिए . अतः यदि बच्चों को सिखाया जाय की सत्य बोलना एक उच्च आदर्श आचरण होता है और सफलता पाने का माध्यम भी.परन्तु विपरीत परिस्थितियों में कट्टरता के साथ सत्य का दामन पकडे रहना भी उचित नहीं है
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अह्निसा को अपनाना कितना उचित है ;
यह एक चिर परिचित आदर्श है और हमारे देश की पहचान भी.अतः हिंसा से दूर रहना इंसानियत का धर्म है .हिंसा शब्दों द्वारा भी हो सकती है और हथियारों से भी, दोनों ही हिंसा त्याज्य हैं,अनुचित हैं .हमारे देश में सदैव दया भाव एवं अहिंसा की पूजा की गयी है .परन्तु यदि आपका दुश्मन आप पर वार करने का प्रयास करता है या वार कर देता है तो अपने बचाव के लिए हिंसा का सहारा लेना भी आवश्यक होता है.आत्मरक्षा में हिंसा का प्रयोग अनुचित नहीं है,साथ ही अपने परिजनों को असुरक्षित छोड़ कर खतरों से दूर भागने का नाम अहिंसा नहीं हो सकती,परन्तु निरपराध व् निरीह प्राणियों से हिंसक व्यव्हार करना अवांछनीय है.वास्तविकता यह है की मांसाहारी व्यक्ति भी हिंसक ही हुआ,परन्तु सिर्फ उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में ही शुद्ध शाकाहारी लोग है,अन्यथा समस्त विश्व में मांसाहार किया जाता है.अब यदि आप अपने बच्चे को शुद्ध शाकाहारी रहने की सख्त हिदायत देते हैं तो उसके लिए दुनिया के सभी क्षेत्र वर्जित हो जायेंगे ,अर्थात आपका बालक कुएं का मैण्डक बन कर रह जायेगा .वर्तमान वैश्वीकरण के युग में समस्त विश्व मानव का कार्यक्षेत्र बन चुका है अतः उन्नत रोजगार प्राप्त करने ,उन्नत व्यापार करने ,शिक्षा प्राप्त करने या फिर मात्र भ्रमण करने के लिए विदेशों में जाना साधारण बात हो गयी है .आपके बच्चे के लिए अहिंसा का पाठ उसके विकास में बाधक बनकर खड़ा रहेगा , क्या आदर्श का यह स्वरूप आपके बच्चे के सुखद भविष्य के लिए उचित होगा ?.क्योंकि अहिंसा पर अमल करते हुए वह शाकाहारी भोजन न मिल पाने की स्थिति में कैसे जीवित रह सकेगा ?अतः क्या यह उचित नहीं होगा उसे पढाया जाये की मांसाहर करना उचित नहीं है , परन्तु अन्य विकल्प के अभाव में यदि मांसाहार करके भूख मिटाई जा सकती है , तो अपने जीवन को बचाने के लिए मांसाहार करना त्याज्य नहीं है .और जब भी .शाकाहारी भोजन उपलब्ध हो जाय, तुरंत मांसाहार से अलग हो जाना चाहिए| परन्तु यह भी आवश्यक है मांसाहार को आपका शरीर स्वीकार कर ले अन्यथा भूखे रह जाना ही श्रेयस्कर होगा .
अहिंसा को इस रूप में समझा जाये ,हमलावर मत बनो परन्तु यदि कोई आप के ऊपर हमला करता है, तो आत्म रक्षा में हिंसा करना ,हमलावर को माकूल जवाब देना कोई गुनाह नहीं है
क्या ईमानदारी इंसानियत का आधार है ?;
ईमानदारी इंसानियत का सर्वोच्च आदर्श है .इस गुण के अभाव में मानव विकास भी लगभग असंभव है परन्तु वर्तमान युग में ,नकारात्मक शक्तियों के प्रभावकारी हो जाने के कारण इमानदार होना ,उसे निभाना आसान भी नहीं है .कोई व्यक्ति स्वयं इमानदार हो सकता है परन्तु जब उसकी ईमानदारी से किसी के हितों को नुकसान होता है, तो वह अपने पूरी शक्ति उसका विरोध करने में लगा देता है.आज पूरा माहौल ही अनैतिक होने के कारण उसके विरोधी के लिए जीतना आसान हो जाता है और इमानदार व्यक्ति के लिए घातक सिद्ध होता है.आए दिन इमानदार अफसरों इमानदार कर्मचारियों एवं अन्य कार्यकर्ताओं की हत्या के समाचार सुनने को मिलते रहते हैं.इस प्रकार अनेक इमानदार व्यक्ति या तो अपने जीवन से हाथ धो बैठते हैं , या अपनी जिन्दगी को नरक तुल्य जीवन जीने को मजबूर होते हैं .प्रश्न उठता है क्या ईमानदारी को छोड़ देना चाहिए ताकि कोई भी अपरिहार्ये स्थितियों से गुजरने को मजबूर न हो?
ऐसे माहौल में कोई मध्य मार्ग अपने बच्चों को सुझाना होगा.उसे बताना होगा की इमानदार बने रहने के लिय धैर्य के साथ समय की जटिलता को ध्यान रखना होगा .शांत मन से बेईमान को परास्त करने की रणनीति बनानी होगी, भावुकता से बचते हुए मुकाबला करना होगा.यदि बेईमान व्यक्ति किसी निजी कंपनी का कर्मचारी है, तो उसके अधिकारी से गुप्त रूप से सूचित कर पर्दाफाश किया जा सकता है .परन्तु यदि बेईमान व्यक्ति किसी निजी कम्पनी का मालिक है ,या किसी सरकारी विभाग में कार्यरत है तो कदम फूंक फूंक कर रखने की आवश्यकता है .पर्दाफाश करने से पहले किसी इमानदार अधिकारी को ढूंढना होगा उसके सहयोग से ही अपने मिशन में कामयाबी मिल सकती है यदि आप स्वयं किसी सरकारी विभाग के उच्च अधिकारी हैं ,इमानदार हैं ,और इमानदार ही रहना चाहते हैं ,तो भी आपको विनम्रता से ,बिना आक्रोशित हुए अपने अधीन कर्मचारियों से एवं अधिकारियों से पेश आना होगा .शांत मन से अपनी रणनीति बनाकर अपने मकसद को पाना होगा .कोई आपको रिश्वत देने का प्रस्ताव करता है तो उसे कभी भी अपमानित न करें,बल्कि शालीनता से उसे समझाए की यदि उसका कार्य कानून के दाएरे में आता है ,अथवा उसके द्वारा किये जा रहे कार्य की गुणवत्ता सही है और विभाग के नियमों के अनुरूप है तो उसका कार्य समय पर अवश्य होगा, उसके लिए कोई घूस देने की आवश्यकता नहीं है .रिश्वत देने का प्रस्ताव लेकर आने वाले की कोई गलती नहीं है क्योंकि आज वातावरण ही ऐसा है, अतः यदि आप इमानदार हैं तो उसे अपमानित करके अपने लिए मुसीबत खड़ी न करें .क्योंकि अपमानित हो कर जाने वाला आपके विरुद्ध षड्यंत्र भी रच सकता है .हो सकता है आपके इमानदार छवि को दागदार करने के लिए आप पर घूस खोरी का आरोप लगाने की साजिश रच डाले और आपके जीवन को कलुषित कर दे .
अतः इमानदार होने के साथ नम्रता धैर्य एवं दृढ़ता भी जरूरी है,विशेष रणनीति बनाकर अपने उद्देश्य को आगे बढ़ाना चाहिए .
दान क्यों देना चाहिए ?
दान देना हमारे देश की प्राचीन आदर्श परंपरा रही है .प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक माना गया है.
साथ ही धार्मिक मान्यताओं के अनुसार देवताओं को प्रसन्न करने का उपाय भी है .आर्थिक स्तर सबका भिन्न भिन्न होता है, किसी के पास अकूत सम्पति होती है, तो किसी के पास जीवन यापन के
न्यूनतम साधनों का भी अभाव होता है .कुछ लोग ऐसे भी होते जो शारीरिक अक्षमता के होते
हुए या मानसिक विकलांगता के कारण अपनी जीविका चलाने लायक धन अर्जित नहीं कर पाते.वे
आत्मनिर्भर होने में अक्षम रहते हैं .इंसानियत का तकाजा है प्रत्येक व्यक्ति को अपनी न्यूनतम आवश्यकताएं पूर्ण करने का अवसर मिले .न्यूनतम आवश्यकताएं अर्थात रोटी कपडा और निवास. जो व्यक्ति संपन्न हैं, वे उनको कुछ धन दान के रूप में देकर,जीवन यापन करने में सहायक हो सकते हैं. सभी धर्मों में बताया जाता है, की अपनी कुल कमाई का एक निश्चित अंश असमर्थ लोगों को दान में देना चाहिए .दान का एक स्वरूप श्रमदान भी होता है अपना शारीरिक सहयोग दे कर भी असमर्थ व्यक्ति की मदद की जा सकती है.किसी का मनोबल बढ़ाना किसी को विपत्ति के समय हिम्मत बंधाना भी मानसिक सहयोग के रूप में दान ही है.और इंसानियत का स्वच्छ रूप भी.अब यह प्रश्न उठना लाजिमी है की दान देने में कौन सी व्यावहारिकता की आवश्यकता होती है? दान तो दान है किसी को भी दिया जा सकता है .परन्तु क्या आपके द्वारा दिए गए दान का दुरूपयोग आपके लिए सहनीय होगा ? यदि आपकी गाढ़ी कमाई को कोई गलत कार्यों जैसे नशेबाजी,अय्याशी ,धोखाधड़ी ,सट्टेबाजीमें उडाये तो आपको पसंद आयेगा ?क्या ऐसे व्यक्ति को दिया गया धन आपको धार्मिक लाभ देगा ?क्या ऐसे व्यक्ति को दिया दान इंसानियत का भला करेगा ?
आज समाज में ऐसे अनेक लोग मौजूद हैं जो आपकी उदारता का लाभ उठा सकते हैं .अतः जिसे भी आप दान देना चाहते हैं ,उसके कार्य में सहयोग करना चाहते हैं उसकी पात्रता की जाँच करना नितांत आवश्यक है.ताकि आपके धन का सदुपयोग हो सके एवं समाज के लिए लाभकारी सिद्ध हो सके .एक अन्य बात सोचने वाली यह भी है की आप दान उतना ही करें जिससे आपकी अपनी न्यूनतम आवश्यकतायें प्रभावित न हों ,बाधित न हों .अपनी क्षमता से अधिक दान करना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है .समाज के अन्य व्यक्तियों का भला सोचने के साथ अपने हितों को भी नहीं नकारना चाहिए .अपना सब कुछ दान देकर (लुटा कर ) स्वयं साधनहीन हो जाना अव्यवहारिक कदम होगा आपकी दानवीरता का गुण अवगुण बन जायेगा
श्रम आज भी महत्वपूर्ण है;-
तेजी से बदल रही जीवन शैली में मशीनों का दखल बढ़ता जा रहा है .जो कार्य पहले सिर्फ मानव श्रम द्वारा ही होते थे ,आज मशीनों द्वारा बहुत कम समय में बिना शारीरिक श्रम के हो जाते हैं .आज इन्सान के लिए सिर्फ मानसिक कार्य बाकी रह गए हैं मनोरंजन के साधन भी बिना श्रम वाले हो गए हैं , जैसे टी .वी .,कंप्यूटर ,विडियो गेम्स ,सिनेमा .इंटरनेट इत्यादि .जो युवाओं को या बुजुर्गों को ही नहीं बच्चो को भी घर बैठे उपलब्ध रहते हैं.इस प्रकार की जीवन शैली का सर्वाधिक नुकसान बच्चों को हो रहा है जिनका विकास होना अभी बाकी है,और दिन भर बैठे रहने के कार्यों से उसके शरीर को आवश्यक खेल कूद का समय नहीं मिलता और शारीरिक विकास अवरुद्ध हो जाता है .और बालपन में ही अनेकों रोग लगने लगते हैं .छोटे छोटे बच्चों में बढ़ रहा मोटापा नयी जीवन शैली की देंन है .अतः यह सच्चाई बच्चों को बतानी आवश्यक है,की उनका जितना महत्त्व पूर्ण पढाई करना है,उतना ही महत्वपूर्ण शारीरिक व्यायाम करना भी है.शरीर को अधिक से अधिक सक्रीय रखना चाहिए,ताकि शरीर के प्रत्येक अंग को हिलने डुलने का अवसर प्राप्त हो.कोई भी कम छोटा नहीं होता .अपने ,प्रत्येक कार्य को बच्चों को स्वयं करने की आदत डालनी चाहिए .आस पास जाने के लिए वाहन का प्रयोग न कर, पैदल जाना स्वास्थ्य की द्रष्टि से लाभदायक रहता है .शरीर के प्रयाप्त विकास के लिए और सौष्ठव बनाये रखने के लिए यथा संभव व्यायाम एवं योगाभ्यास करना चाहिए .
विद्यार्थियों के लिए ;
प्रत्येक विद्यार्थी को यह भी समझना चाहिए श्रम शारीरिक हो या मानसिक विद्यार्थी जीवन का आधार है.जिसके कारण उसका शारीरिक विकास के साथ साथ मानसिक विकास उसे जीवन की ऊंचाइयों पर ले जाता है . सुखी जीवन की नींव श्रम द्वारा ही संभव है .क्योंकि मौज मस्ती सुख सुविधाएँ पूरे जीवन भर प्राप्त की जा सकती है परन्तु जीवन की उन्नति का मार्ग इसी उम्र में किये गए श्रम से मिल सकता है .
श्रम को भी दो भागों में बांटा जा सकता है अनुत्पादक श्रम एवं उत्पादक श्रम .वह श्रम जिससे समाज को हानि होती है किसी का अहित होता है,अनुत्पादक श्रम की श्रेणी में आता है जैसे चोरी,डकैती , धोखाधड़ी ,एवं कोई भी अपराधिक गतिविधि .क्या इन कार्यों को करने में श्रम नहीं लगता परन्तु ये श्रम समाज के लिए हानिकारक हैं. अतः सकारात्मक प्रभाव छोड़ने वाले श्रम ही श्रम की श्रेणी में आते हैं .प्रत्येक व्यक्ति को अनुत्पादक श्रम से बचना चाहिए .इसे एक उदहारण के रूप में समझा जा सकता है एक विद्यार्थी जब पूरी मेहनत एवं लगन से कक्षा में प्रथम आने का प्रयास करता है तो उसका श्रम सराहने योग्य है परन्तु यदि कोई विद्यार्थी अपने प्रतिद्वंद्वी छात्र को पीछे करने के लिए उसकी टांग तोड़ कर परीक्षा में बैठने के अयोग्य बनाने का प्रयास करता है,ताकि वह कक्षा में प्रथम स्थान पा सके, उसकी यह रणनीति एवं उसका श्रम निन्दनिए एवं अनुत्पादक होता है .इसे श्रम का विकृत रूप भी कह सकते हैं .
जीवन में सफलता श्रम द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है न की भाग्य के भरोसे रह कर ,या पूजा अर्चना के मध्यम से. पूजा अर्चना सिर्फ आत्म संतोष के लिए ही उचित है सफलता के लिए श्रम तो करना ही होगा .श्रम मानसिक हो या शारीरिक किसी भी कार्य क्षेत्र में सफलता पाने का एक मात्र मूल मन्त्र है
फास्ट फ़ूड से परहेज क्यों ?;
आज युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों से विशेष तौर पर खफा रहती है ,क्योंकि वे प्रत्येक उस वस्तु के सेवन करने के खिलाफ होते जो उन्हें बेहद पसंद हैं .जैसे फास्ट फ़ूड ,सोफ्ट ड्रिंक ,बीडी सिगरेट,शराब आदि नशे की वस्तुएं ,यहाँ तक की उन्हें चाय बिस्कुट जैसी वस्तुओं से भी ऐतराज होता है आखिर वे चाहते क्या हैं ?क्या हम सूफी सन्यासी बन जाएँ ?जहाँ तक नशे की बात तो ठीक है नशा खोरी गलत बात है परन्तु चाट ,पकोड़ी ,पिज्जा ,बर्गर ,पस्ट्री ,पेत्तिज ,कोल्ड ड्रिंक इत्यादि सभी को खाने की मनाही के फरमान निरंतर सुनाये जाते हैं .शायद उनसे हमारी ख़ुशी देखी नहीं जाती .बच्चों की इस सोच को लेकर ,प्रत्येक माता पिता ,अभिभावक के सामने एक जैसी समस्या बनी हुयी है .ऐसे वातावरण में यह एक चुनौती है की हम अपने बच्चों को स्वास्थ्य के लिए खतरनाक वस्तुओं से कैसे बचा सकते हैं ,और कैसे अपना विश्वास भी कायम रख सकते हैं ? बिना विश्वास बनाये हम अपनी कोई भी बात उन्हें नहीं समझा सकते और न ही मनवा सकते हैं .
इस समस्या का मुख्य कारण है ,हमारी शिक्षा संस्थानों में विज्ञानं गणित ,भाषा ज्ञान ,इतिहास,भूगोल सब कुछ पढ़ाते हैं ,परन्तु उनका अपना शरीर कैसे कार्य करता है उसका प्रत्येक अंग कैसे चलता है और उसे स्वस्थ्य बनाये रखने के लिए क्या खाना चाहिए क्या नहीं खाना चाहिए ,हमारा दैनिक क्रियाकलाप कैसा होना चाहिए इस बारे में विशेष ज्ञान उपलब्ध नहीं कराते,जो बाल विकास के लिए सर्वाधिक आवश्यक है,बिना स्वस्थ्य शरीर के न तो हम दुःख सहन करने की क्षमता पा सकते हैं और न ही सुख का लाभ ले सकते हैं अर्थात मनोरंजन कर सकते हैं .अतः यह बात हमें अर्थात माता -पिता तथा अभिभावकों को ही व्यक्तिगत तौर पर बच्चों को समझनी होगी .सबसे अच्छा होगा यदि हम स्वयं स्वास्थ्यकारी नियमों को अपनाएं .अपने खान पान अपने आचरण में शुद्धता लायें बच्चे अपने आप आपका अनुसरण करने लगेंगे .उन्हें यदि विटामिन्स ,मिनरल्स,प्रोटीन्स ,कार्बोहायड्रेट्स (CARBO HYDRATES) की शरीर को आवश्यकता के बारे में भी बता पायें ,और प्रत्येक भोज्य पदार्थ में उनकी उपलब्धता बता सकें तो अवश्य बच्चों को सही खान पान के लिए प्रेरित करना आसान होगा .कुछ वस्तुएं जिन्हें फास्ट फ़ूड भी कहते हैं ,जैसे पिज्जा , बर्गर,चाट पकोड़ी ,छोले भठूरे ,कोल्ड ड्रिंक जो आज बच्चों के पसंदीदा खाद्य पदार्थ बन चुके हैं ,के प्रयोग पर सख्ती से रोक न लगते हुए उनके सेवन को सीमित करने की नसीहत देना अधिक उचित होगा .सबसे अच्छा होगा आप स्वयं उनके साथ जाकर माह में एक बार उन्हें खिलाएं और इन वस्तुओं के सेवन को कम करने की प्रेरणा दें .और स्वास्थ्यवर्द्धक खाद्यपदार्थों को खाने के लिए प्रेरित कर, उनके स्वस्थ्य की रक्षा करें .
सज्जनता से क्या तात्पर्य है ? ;
आज इन्सान इतना स्वार्थी हो गया है की वह गलत सही उचित अनुचित को सोचे बिना अपना मतलब निकालने का प्रयास करता है .मानव की उन्नति के लिए सभ्यता का विकास होना भी आवश्यक है .सभ्यता कहें या सज्जनता , इंसानियत का पर्याय है .अर्थात इंसानियत के गुणों को अपनाते हुए यदि हम अपने सभी कार्यों को अंजाम देने लगें तो धरती पर स्वर्ग स्थापित हो सकता है .यद्यपि कहने में बहुत अच्छा लगता है की हमें सबसे उदार ,एवं सभ्यता से पेश आना चाहिए .परन्तु यदि कुटिल व्यक्ति से हम अपनी शराफत का व्यव्हार करेंगे तो वह हमारी शराफत का लाभ उठाते हुए अपने दुष्ट इरादों को अंजाम देगा.अतः किसी व्यक्ति से व्यव्हार करने से पूर्व उसके व्यक्तित्व को परखना भी आवश्यक होता है.यदि कोई व्यक्ति दुष्ट प्रवर्ति का है तो उसके कुटिल इरादों को काटने के लिए भी अपने को तैयार रखना आवश्यक है.ताकि उसके शिकंजे में फँस कर हम अपना अहित न कर बैठें.यही बात अपने बच्चों को बतानी होगी की दुनिया में सभी लोग उच्च चरित्र वाले नहीं होते .सभी के सोचने का ढंग अलग होता है सबकी कार्य शैली अलग अलग होती है .शरीफ इन्सान के साथ उदार व्यव्हार प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है तो दुष्ट व्यक्ति के कुटिल इरादों की पहचान करने की क्षमता भी होनी चाहिए ,उससे अपने बचाए रखने की समझ भी होनी चाहिए . हमारा उद्देश्य यह भी नहीं होना चाहिए की दुष्ट व्यक्ति के साथ दुष्ट व्यव्हार किया जाय परन्तु अपने बचाव के लिए आवश्यक उपाय करने भी आवश्यक हैं .
उपरोक्त उदाहरणों द्वारा मैंने बताने का प्रयास किया है ,किस प्रकार से अपने बच्चों को वर्तमान कलियुगी समय में संस्कारित किया जा सकता है .ताकि वे आदर्श जीवन भी जी सकें और संसार में अपने कार्य क्षेत्र में उन्नति की राह को प्रशस्त कर सकें .अन्य महत्त्व पूर्ण विषयों जैसे,सेवा भाव ,धार्मिक आचरण ,भाग्यवाद .सहन शक्ति का विकास,अपने से बड़ों का सम्मान (योग्य पात्र होने पर ) इत्यदि पर भी मार्ग दर्शन किया जा सकता है .(समाप्त)
प्रस्तुतकर्ता satya sheel Agrawal