वर्ष 1943 में जब द्वितीय विश्वयुद्ध अपने चरम पर था, तब बंगाल में भारी अकाल पड़ा था जिसमें लाखों लोग मारे गए थे.
प्रोफ़ेसर रफ़ीकुल इस्लाम तब 10 साल के थे और ढाका में रहते थे. वह कहते हैं, "जब भी मैं उन दिनों के बारे में सोचता हूं, मैं खो जाता हूं. वर्ष 1943 में बंगालियों को जिस आपदा का सामना करना पड़ा, वह विश्व के इतिहास की सबसे बड़ी आपदाओं में से एक है."
बीबीसी के कार्यक्रम विटनेस के लिए फ़रहाना हैदर ने मानवीय इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक बंगाल में पड़े भीषण अकाल के बारे में प्रोफ़ेसर रफ़ीकुल इस्लाम से बात की.
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प्रोफ़ेसर इस्लाम को अब भी याद है कि परेशान लोग खाने की तलाश में मारे-मारे फिरते थे.
वे बताते हैं, "लोग भूखे मर रहे थे क्योंकि ग्रामीण भारत में खाने-पीने की चीज़ें उपलब्ध नहीं थीं. इसलिए लोग कोलकाता, ढाका जैसे बड़े शहरों में खाने और आश्रय की तलाश में पहुंचने लगे. लेकिन वहां न खाना था, न रहने की जगह. उन्हें रहने की जगह सिर्फ़ कूड़ेदानों के पास ही मिल रही थी, जहां उन्हें कुत्ते-बिल्लियों से संघर्ष करना पड़ता था ताकि कुछ खाने को मिल जाए."
वो कहते हैं, "कोलकाता, ढाका की सड़कें कंकालों से भर गई थीं. इंसानी ढांचे जो कई दिन से भूखे थे और सिर्फ़ मरने के लिए ही बंगाल के कस्बों और शहरों में पहुंचे थे."
बंगाल का अकाल जापान के बर्मा पर कब्ज़ा कर लेने के बाद ही आया था. भारत पर काबिज़ अंग्रेज़ सरकार ने देश के अन्य क्षेत्रों से सूखा प्रभावित हिस्से तक अनाज पहुंचने पर रोक लगा दी थी.
इसका उद्देश्य एक तो इसे विरोधियों के हाथों में पड़ने से रोकना था और दूसरा यह कि स्थानीय लोगों को ठीक से खाना मिले.
प्रोफ़ेसर इस्लाम कहते हैं, "यह प्राकृतिक आपदा नहीं थी, यह मानवनिर्मित आपदा थी. ग्रामीण इलाकों में खाद्य पदार्थ सिर्फ़ इसलिए नहीं थे क्योंकि फ़सल बर्बाद हो गई थी बल्कि इसलिए भी क्योंकि अनाज को एक जगह से दूसरी जगह नहीं जाने दिया जा रहा था. उन्हें डर था कि यह जापानियों के हाथों में न पड़ जाएं."
वो कहते हैं, "मुझे लगता है कि यह फ़ैसला मित्र राष्ट्रों के नेतृत्व का था. कोलकाता में सेना के लिए खाद्य पदार्थों का अतिरिक्त स्टॉक था. लेकिन ग्रामीण इलाकों में खाने को कुछ भी नहीं था. और किसी को इसकी परवाह भी नहीं थी."
हड्डियों के ढांचे
प्रोफ़ेसर इस्लाम कहते हैं, "मैं राहत कर्मियों के एक छोटे से दल के साथियों के साथ हल्दी नदी पर स्थित टेरेपेकिया बाज़ार पहुंचा. वहां मैंने निर्वस्त्र, करीब-करीब कंकाल बन चुके करीब 500 महिला-पुरुषों को देखा."
वो कहते हैं, "उनमें से कुछ आने-जाने वालों से भीख मांग रहे थे तो कुछ कोने में पड़े थे, अपनी मौत का इंतज़ार करते. उनमें सांस लेने की शक्ति भी नहीं बची थी और दुर्भाग्य से मैंने आठ लोगों को अंतिम सांसे लेते देखा. इससे मैं अंदर तक हिल गया."
जंग की वजह से कीमतें आसमान छू रही थीं और जापानी आक्रमण को लेकर अनिश्चितता की वजह से शहरी इलाकों में जमाखोरी हो रही थी.
इसके फलस्वरूप देहात में चीज़ें बेहद महंगी हो गईं और जब लोग मरने लगे तो भारी संख्या में शहरों की ओर इस उम्मीद में पलायन होने लगा कि वहां राहत दी जा रही होगी.
प्रोफ़ेसर इस्लाम कहते हैं, "त्रासदी यह है कि कस्बों, शहरों में रहने वाले लोगों की उन बदकिस्मत लोगों से ज़रा भी सहानुभूति नहीं थी. इनमें से ज़्यादातर लोग उन्हीं सड़कों, शहरों में रह गए, वह कभी वापस गांव नहीं लौटे. गांव का ढांचा ही बर्बाद हो गया और बंगाल कभी भी उससे उबर नहीं पाया."
प्रोफ़ेसर इस्लाम के अनुसार उन्हें एक अकाल पीड़ित ने बताया, "मैं अपने भाई-बहनों में सबसे बड़ा था और जिंदा रहने के लिए दिहाड़ी मज़दूरी किया करता था. मैंने अपने पिता को गांव में छोड़ा और भाई-बहनों को कोलकाता ले आया. उनके पास बस आटा था. हम हर उस जगह जाते जहां खाना बंट रहा होता."
अकाल पीडि़त ने बताया, "उस दौरान मैंने बहुत-कुछ देखा. लोग घास और सांप तक खा रहे थे. मेरी दो बहनों उस दौरान मारी गईं."
'सबसे ख़ुश इंसान'
बर्मा पर जापानी कब्ज़े से भारत में भारी दहशत फैल गई. बड़ी संख्या में नागरिक और सैनिक सीमापार कर भारत आ गए.
प्रोफ़ेसर इस्लाम बताते हैं, "मेरे पिता रेलवे में डॉक्टर थे और ढाका आने से पहले हम लालमुनि हाट में रहते थे जो बड़ा रेलवे जंक्शन था और जिसे गेटवे ऑफ़ असम कहा जाता था. वहां हमने बड़ी संख्या में शरणार्थियों को देखा. सैकड़ों-हज़ारों शरणार्थी उस रास्ते बर्मा से भारत आ रहे थे. मैंने उस दौरान एंबुलेंस, ट्रेन, सैन्य अस्पतालों में युद्ध के नुक़सान को भी देखा."
बंगाल तब खाद्य पदार्थ आयात किया करता था जिसमें बर्मा के चावल शामिल थे लेकिन जापान के कब्ज़ा करने के बाद वह रुक गया.
उसी समय ब्रितानी शासकों ने भी बंगाल के तट को अलग-थलग करने की नीति पर अमल शुरू कर दिया ताकि जापान की बढ़त को रोका जा सके.
इसी समय, 1943 के पूरे साल भारत से ब्रिटेन और ब्रितानी फौजों को खाद्य सामग्री भेजा जाना जारी रहा. आमतौर पर इस बात पर सहमति है कि 1943 का बंगाल अकाल गलत नीतियों और लापरवाही का नतीजा था.
ब्रितानी इतिहासकारों के अनुमानों के अनुसार इसमें 15 लाख लोग मारे गए थे जबकि भारतीय इतिहासकार यह संख्या 60 लाख तक बताते हैं.
प्रोफ़ेसर इस्लाम कहते हैं कि जो बच गए उनका हिसाब रखा जाना भी ज़रूरी है. वो कहते हैं, "एक किस्सा मुझे अब भी याद है जब हमने एक परिवार की मदद करने की कोशिश की थी. पति-पत्नी और दो बच्चे रोज़ शाम हमारे दरवाज़े पर आ जाया करते और मेरी मां थोड़ा भात और दाल उनके लिए बचा लिया करती. हमने उस परिवार को ज़िंदा रखा."
वो बताते हैं, "फिर एक दिन वह हमसे विदा लेने आए. वह गांव वापस लौट रहे थे. उस दिन मेरी मां दुनिया की सबसे ख़ुश महिला थी क्योंकि वह कम से कम एक परिवार को ज़िंदा रखने में कामयाब रही थी."
'लिखूं कैसे?'
यह एक ऐसी भयावह मानवीय त्रासदी है जिससे कम ही याद किया जाता है. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बंगाल के अकाल में ब्रितानी राज में सबसे ज़्यादा लोग मारे गए थे.
प्रोफ़ेसर इस्लाम कहते हैं, "साल 1943 के अकाल के दौरान मैंने जो कुछ देखा वह मेरी यादों में इतना साफ़-साफ़ दर्ज है कि मैं उसे कभी भूल ही नहीं सकता."
वो कहते हैं, "कई बार लोग मुझसे पूछते हैं कि आप अपनी आत्मकथा क्यों नहीं लिखते. सच कहूं तो मैं कैसे उस तकलीफ़, मानवीय त्रासदी को बयां कर पाऊंगा जो मैंने उस कमउम्र में देखी थी? मैं उसे लिख कैसे पाऊंगा?"
बंगाल के अकाल के दौरान हुए अनुभवों का प्रोफ़ेसर इस्लाम पर क्या असर पड़ा?
वो कहते हैं, "इंसान को बगैर किसी वजह या अपराध के इस तकलीफ़ का सामना क्यों करना पड़ा? और इंसान इतना क्रूर कैसे हो गया कि उनकी मदद नहीं की. इंसान को भगवान की सबसे शानदार रचना कहा जाता है लेकिन मेरे हिसाब से अकाल या युद्ध के दौरान यह भगवान की सबसे बुरी रचना बन गया था."
प्रोफ़ेसर इस्लाम कहते हैं, "उस दौरान हम जानवर बन गए थे."