जम्मू। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 एक 'अस्थायी प्रबंध' के जरिए जम्मू और कश्मीर को एक विशेष स्वायत्ता वाला राज्य का दर्जा देता है। भारतीय संविधान के भाग 21 के तहत, जम्मू और कश्मीर को यह ''अस्थायी, परिवर्ती और विशेष प्रबंध'' वाले राज्य का दर्जा मिलता है। भारत के सभी राज्यों में लागू होने वाले कानून भी इस राज्य में लागू नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए 1965 तक जम्मू और कश्मीर में राज्यपाल की जगह सदर-ए-रियासत और मुख्यमंत्री की जगह प्रधानमंत्री हुआ करता था।
जम्मू और कश्मीर के लिए यह प्रबंध शेख अब्दुल्ला ने 1947 में किया था। शेख अब्दुल्ला को राज्य का प्रधानमंत्री महाराज हरि सिंह और जवाहर लाल नेहरू ने नियुक्त किया था। तब शेख अब्दुल्ला ने अनुच्छेद 370 को लेकर यह दलील दी थी कि संविधान में इसका प्रबंध अस्थायी रूप में ना किया जाए। उन्होंने राज्य के लिए कभी ना टूटने वाली, 'लोहे की तरह स्वायत्ता' की मांग की थी, जिसे केंद्र ने ठुकरा दिया था।
इस अनुच्छेद के अनुसार रक्षा, विदेश से जुड़े मामले, वित्त और संचार को छोड़कर बाकी सभी कानून को लागू करने के लिए केंद्र सरकार को राज्य से मंजूरी लेनी पड़ती है। इस प्रकार राज्य के सभी नागरिक एक अलग कानून के दायरे के अंदर रहते हैं, जिसमें नागरिकता, संपत्ति खरीदने का अधिकार और अन्य मूलभूत अधिकार शामिल हैं। इसी धारा के कारण देश के दूसरे राज्यों के नागरिक इस राज्य में किसी भी तरीके की संपत्ति नहीं खरीद सकते हैं।
अनुच्छेद 370 के कारण ही केंद्र राज्य पर आर्थिक आपातकाल (अनुच्छेद 360) जैसा कोई भी कानून राज्य पर नहीं थोप सकता है। केंद्र राज्य पर युद्ध और बाहरी आक्रमण के मामले में ही आपातकाल लगा सकता है। केंद्र सरकार राज्य के अंदर की गड़बड़ियों के कारण इमरजेंसी नहीं लगा सकता है, उसे ऐसा करने से पहले राज्य सरकार से मंजूरी लेनी होगी।
आखिर क्या है इस धारा में
- भारतीय संविधान की धारा 370 जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा प्रदान करती है।
- 1947 में विभाजन के समय जम्मू-कश्मीर के राजा हरिसिंह पहले स्वतंत्र रहना चाहते थे लेकिन उन्होंने बाद में भारत में विलय के लिए सहमति दी।
- जम्मू-कश्मीर में पहली अंतरिम सरकार बनाने वाले नेशनल कॉफ्रेंस के नेता शेख़ अब्दुल्ला ने भारतीय संविधान सभा से बाहर रहने की पेशकश की थी।
- इसके बाद भारतीय संविधान में धारा 370 का प्रावधान किया गया जिसके तहत जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष अधिकार मिले हुए हैं।
- 1951 में राज्य को संविधान सभा को अलग से बुलाने की अनुमति दी गई।
- नवंबर, 1956 में राज्य के संविधान का कार्य पूरा हुआ। 26 जनवरी, 1957 को राज्य में विशेष संविधान लागू कर दिया गया।
विशेष अधिकार
- धारा 370 के प्रावधानों के अनुसार, संसद को जम्मू-कश्मीर के बारे में रक्षा, विदेश मामले और संचार के विषय में कानून बनाने का अधिकार है। लेकिन किसी अन्य विषय से संबंधित कानून को लागू करवाने के लिए केंद्र को राज्य सरकार का अनुमोदन चाहिए।
- इसी विशेष दर्जें के कारण जम्मू-कश्मीर राज्य पर संविधान की धारा 356 लागू नहीं होती। इस कारण राष्ट्रपति के पास राज्य के संविधान को बरख़ास्त करने का अधिकार नहीं है।
- 1976 का शहरी भूमि क़ानून जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होता। सूचना का अधिकार कानून भी यहां लागू नहीं होता।
- इसके तहत भारतीय नागरिक को विशेष अधिकार प्राप्त राज्यों के अलावा भारत में कही भी भूमि खरीदने का अधिकार है। यानी भारत के दूसरे राज्यों के लोग जम्मू-कश्मीर में जमीन नहीं खरीद सकते हैं।
- भारतीय संविधान की धारा 360 जिसमें देश में वित्तीय आपातकाल लगाने का प्रावधान है।वह भी जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होती।
- राज्य की महिला अगर राज्य के बाहर शादी करती है तो वह यहां की नागरिकता गंवा देती है।
कश्मीर के बहुसंख्यक मुसलमान
पहले यह सहमति कश्मीर मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करने वाले महाराजा, फिर (बाद में) सदरे रियासत से ली जाती थी।अब, संशोधन कर सदरे रियासत की जगह राज्यपाल कर दिया गया है। इस अनुच्छेद का वह प्रावधान हमेशा से विवादास्पद रहा जिसमें कश्मीर के बहुसंख्यक मुसलमानों के हमेशा बहुसंख्यक बने रहने का इंतजाम है। यानी प्रावधान यह है कि भारत के किसी भी क्षेत्र का नागरिक कश्मीर में जाकर न तो स्थायी तौर पर रह सकता , न कोई अचल संपत्ति खरीद सकता है और न ही स्थायी तौर व्यापार कर सकता है। (कश्मीर से जुड़े हिमाचल के हिस्से पर भी यह कानून लागू है) जबकि देश के बाकी राज्यों में ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं हैं। समय-समय पर सुझाव आता रहा कि कश्मीर के मस्लिमों को देश के बाकी राज्यों के विभिन्न क्षेत्रों में भेजकर वहां हिंदुओ या अन्य को बसा दिया जाए अथवा कश्मीरी लोगों के वहीं रहते हुए भी राज्य को हिंदू बहुल बना दिया जाए तो पाकिस्तान की तरफ से खड़ी होने वाली समस्याओं का हमेशा के लिए निदान हो जाएगा।
दूसरे राज्यों में भी हैं इस धारा के प्रावधान
वैसे कुछ अन्य राज्य भी है जो अपने जनजातीय रूप और प्रथाओं को बनाए रखने के लिए संसद की शक्ति को सीमित करते हैं। अनुच्छेद 371(क) में प्रावधान है कि जब तक निम्नलिखित मुद्दों पर नगालैण्ड विधानसभा अपनी ओर से कोई संकल्प पारित नहीं करती तब तक इस संबंध में (नीचे दिए गए) संसद का कोई भी अधिनियम नगालैण्ड राज्य पर लागू नहीं होगा। ये मुद्दे हैं-
क- नगाओं की धार्मिक या सामाजिक प्रथाएं
ख-नगा रूढ़िजन्य विधि और प्रक्रिया
ग- सिविल और दांडिक न्याय प्रशासन, जहां विनिश्चय नगा रूढ़िजन्य विधि के अनुसार होने हैं।
घ- भूमि और उसके सम्पत्ति स्रोतों का स्वामित्व और अंतरण।
राज्यपाल के पास हैं विशेष अधिकार
इस संबंध में अनुच्छेद 371(ख) के तहत राज्य के राज्यपाल को विशेष उत्तरदायित्व दिए गए हैं जो विधि और व्यवस्था के संबंध में हैं। राज्य के त्युनसांग जिले का प्रशासन राज्यपाल द्वारा ही चलाए जाने का प्रावधान है। त्युनसांग जिले का ही प्रतिनिधित्व करने वाले एक विधायक को त्युनसांग कार्यमंत्री बनाने का प्रावधान है। अनुच्छेद 371 से 371 (झ) में विशेष उपबंध हैं उनका संबंध नगालैण्ड के उक्त प्रावधानों के साथ ही असम, मणिपुर, आंध्रप्रदेश, सिक्किम, मिजोरम,अरुणाचल प्रदेश और गोवा राज्यों से हैं। प्रत्येक दशा में विचार यह है कि प्रादेशिक, जनजातीय या अन्य भावनाओं की तुष्टि की जाए और स्थानीय लोगों के हितो की रक्षा की जाए।
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