एक बार फिर काँपी धरती , पर्वत ने ली अंगड़ाई !
एक बार फिर सिहरा जीवन , मन में व्याकुलता छाई !
एक बार फिर हुआ शोर , और लोग निकल घर से भागे !
एक बार फिर दिखी मौत , सबको अपनी आँखों आगे !
एक बार फिर धूल उड़ी , और एक बार फ़िर अंधिआरा !
एक बार फिर प्रलय हुई , और जीवन फ़िर बाजी हारा !
टूट गया घर कहीं किसी का , कहीं किसी के महल गिरे !
हुआ बड़ा उत्पात , विधाता ही अब सबकी ख़ैर करे !
कहीं कोई मुस्कान नहीं , हर कहीं अश्रु और चीखें हैं !
कहीं कोई आराम नहीं , हर कहीं श्रमित से लोग खड़े !
देख रहा है कोई , अश्रु- पूरित आँखों से घर अपना !
जिसमे कभी रहा करते थे , सब अपने और बूढी माँ !
उसने सब कुछ गवाँ दिया अपना , अब किसके हेतु जिए !
जिनसे था जीवन उसका , वो सब अब उसको छोड़ गए !
हाय प्रकृति तू तो सबकी , जननी - माता कहलाती है !
सबके जीवन हेतु अन्न - जल , सबको सदा दिलाती है !
फिर विषम समय आने पर , क्यों पाषाण - हृदय बन जाती है ?
गर्भ - निहित पाषाणों के घर्षण से प्रलय कराती है !
बड़ा विकट है कंपन तेरा , बड़ी भयानक लीला है !
तेरे गर्भ के पाषाणों ने , मानव जीवन लीला है !