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बचपन

24 जून 2016

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  • काश! समय को हम वापस मोड़ पाते थी जहाँ बेपरवाह जिंदगी फिर वहीँ लौट पाते सारी जिम्मेदारियों से हो जाते मुक्त तब बच जाते अपना बड़प्पन दिखाने अब लौट जाते माँ के घर फिर उसी बचपन में जहाँ न कोई जिम्मेदारी थी न कहीं बड़प्पन दिखाना था न किसी से दुश्मनी थी न ही बैरी ये जमाना था न होड़ थी आगे बढ़ने की न किसी से पीछे रह जाना था न कोई होता था अपना न ही कोई बेगाना था न था गिरने का डर सपनों में पंख लगा दूर गगन में उड़ जाना था न थी परवाह चोट की मिट्टी से अपना याराना था खेल-खेल में कट्टी-बट्टी करने का कैसा वो जमाना था चिंता थी तो पढ़ाई करने की खाने-पिने का कहाँ ठिकाना था घर वापस आते ही माँ की मीठी डांट के साथ माँ के हाथों का बना खाना था मिल जाती थी जन्नत उस खाने में तब कहाँ चाइनिस और मुगलई खाने का जमाना था दिल की चोट से बेहतर थी वो शरीर की चोट यारों खुलकर रोना घर भर से प्यार पाने का बहाना था अब दिल टूटने पर भी छुपकर रोना पड़ता है लाल हुई अपनी आँखों को पानी से खुद धोना पड़ता है आंसूं छुपाकर लानी पड़ती है होंठों पर झूठी मुस्कान दोस्तों से भी करना पड़ताहै अपनी शान का झूठा बखान अब कहाँ दोस्तों से भी पूरा सच हम कह पाते हैं झूठी अकड़ दिखाने में सच्चे रिश्ते गंवाते हैं काश! झूठी शान में समय न अपना गंवाते काश! समय को हम वापस मोड़ पाते। प्रिया वच्छानी 

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ये निगाहें तकती हैं तेरी राह तुझे मेरी इतनी तो खबर होगी कब आओगे तुम मेरे पहलू में कब मेरी शामें सहर होंगी कोई वादा न याद दिलाऊंगी तुम्हें न बात कसम की किसी पहर होगी बीतेंगे दिन हमारे लम्हों की तरह जब संग तेरी मेरी रहगुज़र होंगी कहीं तो रुकेगा कांरवां ये दर्द का कहीं तो मुझे भी खुशी मय्य

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