वर्तमान में भूमंडलीकरण का प्रभाव यत्र-तत्र सर्वत्र देखने को मिल रहा है। देश, समाज, परिवार कोई भी क्षेत्र हो, कोई भी पक्ष हो हर जगह हमें भूमंडलीकरण का प्रभाव देखने को मिल रहा है। समाज का कोई भी क्षेत्र इससे अप्रभावित नहीं है। एक विश्व अथवा विश्व परिवार के सपने को संजोये निरंतर गतिशील इस समाज को जो सबसे पहले मिला है वह है 'भूमंडलीकरणÓ। भूमंडलीकरण ने भिन्न-भिन्न संस्कृतियों, देशों, समाजों एवं क्षेत्रों को एक-दूसरे के पास लाया है। परन्तु साथ ही इसने पूरे संसार को एक बाजार बना कर रख दिया है। भूमंडलीकरण के चलते जन्मा यह बाजार अपने आप में अतिविशिष्ट है। इस बाजार की विशेष बात यह है कि यहाँ हम न केवल अपनी जरुरत की चीजें खरीदते हैं, अपितु यहाँ उपलब्ध चीजों के आधार पर अपनी जरुरतें पैदा करते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो पहले जहाँ हम अपनी जरुरतों के हिसाब से बाजार उत्पन्न करते थे, आज बाजार के हिसाब से जरुरतें उत्पन्न कर रहे हैं। कोई भी नई चीज आती है, तो वह अकेले नहीं आती। वह अपने साथ बहुत सारी बातें लेकर आती है। यह बात भूमंडलीकरण पर भी लागू होती है। भूमंडलीकरण का भी हमारे जीवन में घुसपैठ अकेले ही नहीं हुआ है। यह अपने साथ बहुत कुछ लेकर आया है। भूमण्डलीकरण के साथ हमारे देश में स्पर्धा, मुनाफे की संस्कृति और मानवाधिकारों जैसे अनेक प्रभावशाली घटकों का आगमन हुआ है। अब यहाँ यह सवाल उठना लाजिमी है कि मानवाधिकार किस मानव के लिए है? भूमंडलीकरण की प्रमुख देन यह गलाकाट स्पर्धा किसकी, किसके साथ और किसलिए है? इससे होने वाला फायदा किसे मिलने वाला है? अगर हम देखेंं तो मानवाधिकार की अधिकांश बातें उनके पक्ष में की जाती हैं, जिनमें से कुछ को तो मानव कहने की अनुमति भी हमारी आत्मा नहीं देती। इस बाजारवादी माहौल में मुनाफा, शोषणकारी ताकतों एवं विदेशियों को मिल रहा है। यह बात किसी से छिपी नहीं है। उनको फायदा पहुंचाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं और लोगों को डर दिखाकर, लोभ दिखाकर उन्हें अपनी वस्तुओं को खरीदने के लिए मजबूर किया जाता है। कुछ इसी प्रकार का माहौल 'ड्रॉप्सीÓ जैसी बीमारी को हथियार बना कर तैयार किया गया था। 'ड्रॉप्सीÓ नामक बीमारी उत्तर भारत में एकाएक फैली थी। इस बीमारी का नाम तक पहले नहीं सुना गया था। डॉक्टरों के पास उसका कोई इलाज नहीं था। विशेषज्ञ और प्रयोगशालाएं उस बीमारी का निदान नहीं खोज पा रही थीं। तब एकाएक स्वदेशी बाजार में यह खबर फैली थी कि यह मारक बीमारी सरसों के तेल के सेवन के कारण फैली है। सरसों का तेल पूरे उत्तर भारत और बंगाल का मुख्य खाद्य तेल है। शहरों में यह तेल गांवों से आता था। इसे तत्काल प्रतिबंधित किया गया। विदेशी बाजार से तेल आयात किया गया और कहा गया कि यह भूमण्डलीकरण का नतीजा और फायदा है कि फौरन विदेशी खाद्य तेलों से घरेलू बाजारों को आपूर्ति हो गई जबकि प्रयोगों में यह बात सामने आ चुकी है कि इस बीमारी के जन्म या प्रसार में सरसोंं के तेल की कोई भूमिका नहीं है। इस बीमारी के जन्म की संभावनाएँ 'सत्यानाशीÓ के तेल का सेवन करने से उत्पन्न होती है। इस सत्यानाशी के तेल को कुछ
व्यापार ी निजी हितों के लिए सरसों के तेल के साथ मिला देते थे जबकि विदेशियों ने इसे इस तरह से प्रचारित किया कि इस बीमारी की मूल वजह सरसों का तेल है, उसके सेवन से यह बीमारी फैलती है। इसका परिणाम यह निकला कि लोगों ने सरसों के तेल का सेवन करना ही बंद कर दिया और परिणामत: आज विदेशी खाद्य तेलों ने पूरे भारत के बाजारों में अपने पैर जमा लिए हैं। न केवल तेल अपितु अन्य खाद्य पदार्थों के मामले में भी बाजार पर विदेशी कंपनियों का ही कब्जा है। देखने में यह पूरी तरह बाजारी व्यवसाय का मामला प्रतीत होता है, परन्तु ऐसा नहीं है। इस बाजारवादी सोच एवं व्यवस्था ने हमारी इस भारतीय संस्कृति को भी गहरी चोट पहुँचाई है, उसे प्रभावित किया है, उसे संकुचित किया है। अब यह सवाल उठना लाजिमी है कि कैसे? पूर्ण रूप से व्यापारिक इस साजिश का हमारी संस्कृति से क्या लेना-देना है? तो जान लीजिए कि इसका संस्कृति से बहुत गहरा लेना-देना है। न केवल हमारे देश भारत में अपितु हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी और खासतौर से उत्तर भारत में वसंत पंचमी का त्यौहार बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। यह वह समय है जब मकर संक्रांति के दिन सूर्य उत्तरायण होता है। कड़ाके की सर्दी के मौसम से पूरा उत्तर भारत धीरे-धीरे मुक्त होकर वसंत ऋतु की ओर बढ़ता है। यही वह समय होता है जब उत्तर भारत के सारे खेत सरसों के पीले फूलों का लहराता समुद्र बन जाते हैं। वसंत पंचमी का दिन ही विद्या,
ज्ञान और साहित्य की देवी सरस्वती की पूजा का दिन होता है.....साहित्योत्सव का दिन! लेकिन जबसे सरसों के खुले तेल पर पाबंदी लगी है तबसे किसानों ने सरसों उगाना लगभग बंद कर दिया है। ऐसा नहीं है कि अब सरसोंं की फसल उगाई ही नहीं जाती है, उगाई जाती है। परन्तु उतनी ही जितने की जरूरत हो। अब तो शायद ही कोई सरसों की अलग से खेती करता है, किसान गेहूं और जौ के बीच सरसों के कुछ बीज डाल देते हैं और उनकी आवश्यकता भर सरसों उत्पन्न हो जाता है। धरती के विशाल भू भाग पर पीली चादर बिछाए सरसोंं की मोहक छटा का दीदार तो दुर्लभ ही हो गया है। यह वो छवि होती थी, जिसे देखकर हर प्रेमी जोड़े का मन बावरा हो उठता था। चारों ओर प्रेमगीत गूंजते प्रतीत होने लगते थे। वसंत, प्रेम और सरसोंं के फूलों पर कितने गीत लिखे गए हैं, इसकी गणना भी नहीं हो सकती। यदि किसी स्थानीय भाषा या बोली में पड़ताल करें तो हमें सैकड़ों की संख्या में ऐसे गीत मिल जाएंगे, जिनमें इस मोहक, मनोरम दृश्य का जिक्र हुआ है। परन्तु आज जबकि सरसोंं की खेती सिमट सी गई है, इस पीली चादर के तो दर्शन ही दुर्लभ हो गये हैं। एकदम गायब सी हो गई है, मन को लुभाने वाली यह पीली चादर और गायब हो गए हैं और इससे जुड़े प्रेम एवं विरह के गीत भी। सभी भाषाओं में जो वसंत के गीत लिखे जाते थे, वे अब नहीं लिखे जाते। करघों पर जो सूती कपड़ा बनता था, उसके कुर्ते पीले रंग में रंगकर वसंत के दिन पहने जाते थे। यहां तक कि मध्यमवर्गीय कुलीन वर्ग जो ऐसे कपड़ों की जगह उच्चकोटि के वस्त्र धारण करते थे वे भी कम से कम अपना रुमाल इस पीले रंग में रंग ही लेते थे। लेकिन अब बाजारवाद के चलते सिंथेटिक कपड़ों पर कोई देशी रंग नहीं चढ़ता। बसंत पंचमी पर सरस्वती पूजा और
लेख नी की पूजा की परिपाटी तो अब भी निभाई जाती है, पर साहित्य, ग्रामीण सभ्यता, प्रकृति के साथ जो उत्सवधर्मी तादात्म्य था, वह अब खंडित हो चुका है। इसे संस्कृति की क्षति नहीं तो और क्या कहा जाए? समाजशास्त्रीय विचारकों के अनुसार विश्वासों, परम्पराओं और मूल्यों का संग्रह 'संस्कृतिÓ कहलाती है जिसे समाज क्रमश: अपनी परिपूर्णता के दौरान प्राप्त करते हैं और मनुष्यों की पीढिय़ां मूल्यवान धरोहर के रूप में उन्हें अपने बाद वाली पीढिय़ों के लिए छोड़ जाती हैं। हर समाज की व्यवस्था व आधार उस समाज की मूल्यवान संस्कृतियाँ होती हैं। दूसरी ओर, बात यदि भूमंडलीकरण की करें तो यह वह चीज है जिसने आर्थिक,
राजनीति क और सांस्कृतिक आयाम से मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित किया है। भूमंडलीकरण की एक प्रमुख विशेषता समाजों की विभिन्न संस्कृतियों पर प्रभाव डालना है। आज राष्ट्रों की संस्कृतियों का एक-दूसरे के निकट हो जाना सूचना के आदान-प्रदान और तकनीक, कम्प्यूटर तथा सेटेलाइट में विस्तार का परिणाम है। भूमंडलीकरण के इस दौर में मूल्यों की सुरक्षा और एशियाई संस्कृति के स्थान को ऊँचा उठाना संस्कृति के इस कानून की अद्वितीय विशेषताओं व योग्यता की सही पहचान पर निर्भर है। समझ-बूझ और राष्ट्रों के मध्य सहकारिता के लिए संस्कृति महत्वपूर्ण आधार है और वह सदैव मानवीय सभ्यता में विस्तार की भूमिका रही है। इसी बात के दृष्टिगत देशों के मध्य सांस्कृतिक आदान-प्रदान में वृद्धि भी बहुत महत्व रखती है। भूमंडलीकरण की तीव्र प्रक्रिया और उसकी उपलब्धियों पर कब्जा जमाने हेतु पश्चिमी देशों के प्रयासों के दृष्टिगत इस समय एशियाई देशों के मध्य सांस्कृतिक मतभेदों को कम करने और उनके मध्य समन्वय व समरसता को अधिक करने की आवश्यकता है। सांस्कृतिक समरसता का अर्थ समान सांस्कृतिक विशेषताओं को मजबूत करना है और भूमंडलीकरण की चुनौतियों से मुकाबले के लिए एक संयुक्त नीति अपनाये जाने की आवश्यकता है। क्योंकि आज भूमंडलीकरण का प्रभाव देश के समाज के सभी क्षेत्रों पर व्यापक रूप से देखने को मिल रहा है या दूसरों शब्दों में कहें तो आज संस्कृति भूमंडलीकरण की चपेट में फंसी हुई प्रतीत हो रही है। ऐसे में हमारे सामने यह बड़ा सवाल है कि इस भूमंडलीकरण की सुविधाओं का उपभोग करते हुए, इसके गुणों को विशेषताओं को आत्मसात करते हुए हम आगे बढ़े और साथ ही साथ अपनी संस्कृति को भी सुरक्षित रखेें। उपरोक्त उल्लेखों के बाद इसमें किंचित भी संदेह नहीं रह जाता कि भूमंडलीकरण का प्रभाव हमारे समाज एवं संस्कृति पर चुपके-चुपके ही सही, पर व्यापक रूप से पड़ा है। फिर ऐसे में समाज का आईना कही जाने वाली फिल्में इससे अप्रभावित कैसे रह सकती हैं? अर्थात भूमंडलीकरण का प्रभाव फिल्मों पर भी निश्चित रूप से पड़ा है। यह प्रभाव उनके फिल्मांकन से लेकर भाषा तक पर हमें हर जगह देखने को मिल रहा है। बालीवुड की फिल्में हो, हालीवुड या क्षेत्रीय फिल्में कोई भी फिल्म भूमंडलीकरण के प्रभाव से वंचित नहीं है। वहीं इस बात को कतई नकारा नहीं जा सकता कि अन्य भाषाओं की फिल्मों के हिन्दी में अनुवाद एवं हिन्दी फिल्मों के प्रचार-प्रसार में भूमंडलीकरण के कारकों से काफी सहयोग मिला है। परन्तु यह बात भी कटु सत्य है कि भूमंडलीकरण ने हिन्दी को भाषागत स्तर पर भी काफी हानि पहुंचाई है। साथ ही साथ फिल्मों में पहनावे एवं फिल्मांकन पर भी इसका प्रभाव साफ-साफ परिलक्षित हो रहा है। भूमंडलीकरण का ही प्रभाव है कि आज फिल्मों की सफलता का निर्धारण बाजार करने लगा है। आज उन फिल्मों को सफल नहीं माना जाता, जिनकी
कहानी अच्छी हो, जो जनभावना की प्रतिनिधि हों या जो जनमानस को झकझोर कर रख देती हैं। बल्कि आज वे फिल्में ही सफल कहलाती हैं, जो सौ करोड़ के क्लब में शामिल होती हैं, 400-500 करोड़ का बिजनेस करती हैं। अच्छी फिल्में कितने भी अवॉर्ड बटोर लें, कितने भी दिनों तक छविगृहों में जमी रहें, परन्तु वे तब तक सफल नहीं कहलातीं जब तक वे सौ करोड़ी न हो जाएं। आज फिल्मों के अभिनेता-अभिनेत्रियों एवं अन्य कलाकारों के भी यही हाल हैं। आज वही कलाकार बड़ा माना जाता है, जो मोटी फीस वसूलता है। इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसमें कितनी काबिलियत है, बस ये देखा जाता है कि वह अपनी ऊटपटांग हरकतों से, फूहड़ तरीकों से फिल्म को प्रचार दिला सके, पैसा दिला सके। यह बाजार का ही प्रभाव है कि आज फिल्मों के निर्माण पर जितना पैसा खर्च किया जाता है, उससे कहीं ज्यादा उनके प्रचार-प्रसार पर किया जा रहा है। भूमंडलीकरण का ही प्रभाव है कि अधिकांश फिल्मों की कहानी विषयगत अथवा सामाजिकता से ज्यादा व्यापार को ध्यान में रखकर लिखी जा रही हंै। इस भूमंडलीकरण ने फिल्मों पर न केवल बाजार को हावी किया है, अपितु उसके हर-एक पहलू को भी प्रभावित किया है। यदि हम फिल्मों की कहानी की बात करें तो अस्सी के दशक या उससे पहले की फिल्मों में समस्याओं एवं शोषणकारी व्यवस्था तथा उसकी बुराइयों को केंद्र में रखा जाता था। अधिकांश फिल्मों की कहानी वास्तविक भारत कहे जाने वाले ग्रामीण परिवेश पर आधारित होती थी। उसका नायक किसान, समाज सुधारक या शोषित मजदूर होता था, जो व्यवस्था के विरुद्घ आवाज उठाता था, जंग छेड़ता था। इस नायक में कोई अविश्विसनीय शक्तियां नहीं होती थीं और न ही फिल्मों में उसे येन-केन प्रकारेण विजेता की तरह दिखाया जाता था। हम जब पुरानी फिल्मों को देखते हैं, तो पाते हैं कि इन नायकों की जीवन शैली एवं परिणिति वास्तविक जीवन के बेहद करीब होती थी। जबकि आज की फिल्मी नायकों के चरित्र का वास्तविकता से दूर-दूर तलक कोई रिश्ता नहीं होता है। आज की अधिकांश फिल्मों का नायक सर्वशक्तिमान होता है। कैसी भी परिस्थितियाँ हों उसे पार कर जाता है। मजबूत से मजबूत दुश्मन को घुटनों पर ला देता है। कितनी भी बड़ी फौज हो या दुश्मनों की संख्या चाहे कितनी भी ज्यादा क्यों न हो, वह सबको अकेले ही धूल चटा देता है। उसकी कभी हार नहीं होती और फिल्म के क्लाइमेक्स में वह विजेता बनकर ही उभरता है। ऐसे नायकों का व्यक्तित्व आम व्यक्ति की क्षमताओं से कतई मेल नहीं खाता। ऐसे नायक पूर्णतया काल्पनिक एवं चकाचौंधपूर्ण होते हैं। आज के नायकों में किसी को भी अपनी छवि नहीं दिखती। फिल्माई गई समस्याओं से उसकी समस्याओं का कोई मेल नहीं होता क्योंकि आज का नायक जनमानस का, जनभावनाओं का प्रतिनिधि नहीं है। आज वह भूमंडलीकरण के प्रभाव से ओत-प्रोत हो बाजारवादी व्यवस्था का नुमाइंदा बनकर रह गया है। आज के फिल्म निर्माताओं को फिल्म का लोगों पर पडऩे वाले प्रभाव से ज्यादा मतलब फिल्म की आय से है। उसे सिर्फ इस बात से मतलब है कि फिल्म किस तरह से अधिकाधिक पैसा कमा सकेगी, वह इसी बात को केंद्र में रखकर फिल्में बना रहा है। इसके लिए वह हर हथकंडे अपनाता है। जो दर्शकों को कम से कम एक बार तो छविगृहों तक ला ही सके। इस मानसिकता ने फिल्मों के किसी भाग को सर्वाधिक प्रभावित किया है, तो वह है नायिका की भूमिका एवं फिल्मों के गीत। आज की फिल्मों से मदर इंडिया में निभाई गई नरगिस की भूमिका जैसी भूमिकाओं के लिए कोई जगह ही नहीं बन पा रही है। आज की हिरोईनें नुमाइश की चीज बन गई हैं, जिसके दबाव में उनकी प्रतिभा छिप सी गई है, कुंठित हो गई है। आज फिल्मों के रिलीज से पहले ही इस बात को बड़े ही जोर-शोर से प्रचारित-प्रसारित किया जाता है कि फिल्म में कितने अंतरंग दृश्य हैं और नायिका ने कितना अंग-प्रदर्शन किया है। हद तो यह हो गई है कि निर्माता-निर्देशक नायकों से भी अंग प्रदर्शन कराने लगे हैं। यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि अंग-प्रदर्शन एवं अश्लीलता आज की फिल्मों का महत्वपूर्ण भाग बन गया है और यहाँ तक कि इन्हें फिल्म की सफलता की गारंटी माना जाने लगा है। इससे किसी को भी फर्क नहीं पड़ता कि ऐसी फिल्में समाज को कितना नुकसान पहुंचा रही हैं। वर्तमान में शायद ही कोई फिल्म हो, जिसे पूरा परिवार एक साथ बैठकर देख सके। इस भूमंडलीकरण की आड़ में घुसपैठ करने वाले पश्चिमी सभ्यता का दूषित प्रभाव एवं अंधानुकरण ने फिल्मों में अश्लीलता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पुरानी फिल्मों में प्रेमालाप के दृश्य फूलों, पेड़ों एवं पक्षियों के माध्यम से सांकेतिक रूप से फिल्माए जाते थे। वे आज सारी सीमाएं तोड़ते हुए फूहड़ता से भी आगे जा चुके हैं। आधुनिक निर्माता-निर्देशक तो कहानी की माँग की बात कह करइतनी गंदगी परोस देते हैं कि सेंसर बोर्ड तक को उनपर कैंची चलानी पड़ती है। मिलन फिल्म के एक गाने 'सावन का महीना पवन करे सोर.... में नायिका द्वारा 'सोर का उच्चारण 'शोर करने पर उसे सही करने के लिए नायक द्वारा बार-बार समझाया जाता है। वहीं वर्तमान में फिल्माएं जाने वालों गानों में ऐसी देशीपन की महक बिल्कुल गायब सी हो गई, इतना ही कुछ गानों के बोल क्या हैं यह भी आसानी से समझ में नहीं आता। पहले के संगीत कर्णप्रिय एवं मन को शांति प्रदान करने वाले होते थे जबकि आज के गानों के संगीत को थोड़ी देर सुन लें, तो कुछ देर तक कान बजते रहते हैं। वहीं इनकी चपेट में ज्यादा देर रह गए तो सर दर्द की गारंटी है। पहले के गीतकारों की भाषा, शब्दों का चयन एवं गीतों के बोल काफी संयमित एवं संस्कारित होते थे, जबकि आज के गीतों में इनकी कोई झलक तक दिखाई नहीं देती है। राजकपूर फिल्म 'मैं नशे में हूँ में कहते हैं 'मुझ को यारों माफ करना, मैं नशे में हूँ.... जबकि आज के दौर में 'अग्निपथ में कैटरीना कैफ बड़े शान के साथ कहती हैं- 'चिकनी चमेली छुप के अकेली मैं पव्वा चढ़ा के आई...। इतना ही नहीं यो यो हनी सिंह तो इनसे भी दो कदम आगे बढ़ते हुए पूरे गर्व के साथ कहते हैं- 'चार बोतल वोदका, काम मेरा रोज का...। इसके साथ ही साथ हिन्दी फिल्मी गीतों में अन्य भाषाओं का प्रयोग इतना ज्यादा किया जाने लगा है कि कभी-कभी संदेह उत्पन्न होने लगता है कि ये गाना है किस भाषा में? आज 'सिंघम-2 में फिल्माये गये गाने 'आता माझी सटकली... जैसे गानों की होड़ लगी हुई है। वहीं फिल्मों के दृश्यों को आश्चर्यजनक बनाने के लिए तकनीक का इतना अधिक प्रयोग होने लगा है कि फिल्में वास्तविक जीवन से बहुत दूर एवं पूर्णतया काल्पनिक हो गई हैं। अगर बात भोजपुरी फिल्मों की करें तो यह भी भूमंडलीकरण के प्रभाव से बची नहीं है। अपितु इन पर भूमंडलीकरण का कहीं ज्यादा प्रभाव पड़ा है। वैसे तो भोजपुरी फिल्में ग्रामीणांचल की प्रतिनिधि मानी जाती हैं परन्तु आज इन फिल्मों से ग्रामीण परिवेश पूरी तरह से गायब हो गया है। इस बाजारवादी परिवेश, पूंजीवादी व्यवस्था एवं मुनाफाखोरी की मकडज़ाल में बुरी तरह से फंसकर भोजपुरी फिल्मों ने अपनी मौलिकता ही खो दी है। इतना ही नहीं, बाजार को लुभाने के लिए इन फिल्मों में जो हथकंडे अपनाए जा रहे हैं वो पूरे भोजपुरिया समाज की छवि को खराब कर रहे हैं, कलंकित कर रहे हैं। इन फिल्मों में ग्रामीण परिवेश में फिल्माये जाने वाले दृश्यों का ग्रामीण परिवेश से कोई मेल प्रतीत नहीं होता, वे पूरी तरह शहरी लगते हैं। इनकी नायिकाएं जैसे फूहड़ एवं वदन दिखाऊ वस्त्र पहनती हंै वैसे वस्त्र आपको पूरे भोजपुरी अंचल में लड़कियों एवं महिलाओं के शरीर पर संयोग से भी नहीं दिखेंगे। भाषा एवं व्यवहारिक स्तर पर भोजपुरिया समाज को बेहद संस्कारी एवं सुसंस्कृत माना जाता है। परन्तु आज की भोजपुरी फिल्मों के संवादों एवं गानों में जिस प्रकार से द्विअर्थी शब्दों का प्रयोग किया जा रहा है, वह पूरे भोजपुरिया समाज को न केवल कलंकित कर रहा है, अपितु उसके सम्मान को भी ठेस पहुँचा रहा है। आज की भोजपुरी फिल्मों की भाषा में भी वो मिठास नहीं दिखती जो कि भोजपुरी की मूल पहचान है। इन फिल्मों के संवाद सुनकर ऐसा लगता है जैसे भोजपुरी के शब्द हिन्दी के बीच जबरदस्ती ठूंस दिए गए हों। ऐसा भी नहीं है कि भूमंडलीकरण ने फिल्मों को केवल नुकसान ही पहुंचाया है। भूमंडलीकरण से सिनेमा जगत को बहुत सारे फायदे भी हुए हैं, जिससे कतई इंकार नहीं किया जा सकता। भूमंडलीकरण की ही देन है कि आज दूसरी भाषाओं की फिल्में भी हमें अपनी भाषा में आसानी से उपलब्ध हो जा रही हैं। इतना ही नहीं बड़े बैनरों अथवा बड़े बजट की फिल्में तो एक ही साथ कई भाषाओं, क्षेत्रों यहाँ तक की विदेशों में भी रिलीज की जा रही हैं। जिससे इनको व्यवसायिक स्तर पर तो फायदा पहुंचता ही है, इनको एक अंतर्राष्ट्रीय पहचान भी मिलती है। इस भूमंडलीकरण की ही देन है कि आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दिए जाने वाले अधिकांश पुरस्कार समारोहों, कार्यक्रमों में भारतीय फिल्में, गीत एवं कलाकार पूरी धमक के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं और भारतीय फिल्म उद्योग को गौरवान्वित कर रहे हैं। उपरोक्त विषयों को ध्यान से देखें तो हम पाते हैं कि भूमंडलीकरण के चलते हमारे संपर्क में आई अधिकांश बातें जो हमें अभिशाप बनती प्रतीत हो रही हैं, उसका प्रमुख कारण भूमंडलीकरण से ज्यादा हम स्वयं हैं। ये सारी मुसीबतें हमने अपने अंधानुकरण की प्रवृत्ति के चलते पाली हैं। यदि हम इसका साधन बनने के बजाए इसको अपना साधन बना लें, इसे अपनी जरुरतों, इच्छाओं एवं संस्कारों के अनुरूप साधें तो हमारे लिए तरक्की के नए रास्ते खुलेंगे। यह भूमंडलीकरण जो आज हमें मुसीबत, विनाशक बनता प्रतीत हो रहा है वह हमारा सबसे बड़ा साथी साबित होगा और प्रगति के नए सोपान स्थापित करने में सबसे बड़ा मददगार बनेगा।