शंकर पुर दस - बारह छप्परों और पांच - छे पक्कों मकानों वाला एक एक सुन्दर सा गांव है । गांव के लोगो का मुख्य पेशा खेती और साथ - साथ पशुपालन भी है। दूध, दही के व्यापार के कारण एक निम्न श्रेणी के जीवन जीने के लिए प्रयाप्त साधन थे। नरेशचंद्र गांव के सबसे विद्वान मनीषी थे,जो घर के बटवारे, झगड़ा- झंझट में सुलह करने के लिए जाया करते गांव के लोग भी उनका खूब सम्मान करते थे।गांव के लोग उनकी बात कभी नहीं काटते उन्हें विश्वास था कि नरेशचंद्र उनके साथ विश्वासघात नही कर सकते। नरेशचंद विवाद को सुलझाने में सत्य जैसे लाजमी उपकरणों का सहारा लेते।
शरद नवरात्रि का आगमन होने ही वाला है। गांव के सबसे वृद्ध आदमी शंकर दयाल के कहने पर इस बार दुर्गा पूजा के लिए एक समिति बनाई गई जिसका नाम शंकर दयाल दुर्गा पूजा समित रखा गया। बच्चे, जवान और बूढ़े सभी को दुर्गा पूजा के आगमन का बड़ी बे सबरी से इंतजार था। नरेशचंद्र के द्वार पर शाम को एक विशेष सभा की भीड़ होती जिसमें बच्चे और बजुर्गा सब शामिल रहते और समिति के सदस्यों की बातें सुनकर अपने अपने घरों में अपने अनुसार विश्लेषण करते। राजू राम दुलारे का 5 वर्ष का लड़का है। रामू के पास न जमीन है और न ही जानवर वह मजदूरी करके सो डेढ़ सौ कमाता तो उसको दो जून की रोटी नसीब होती थी राजू भाई नरेश चंद्र के द्वार से दुर्गा पूजा की खबर लेकर अपनी मां सुनीता से बोला "मां दुर्गा पूजा कब से होगी"
"अभी 10 दिन बाकी है सूप से चावल के दाने को साफ करते हुए कहा"
"अभी 10 दिन" राजू ने आश्चर्य जताते हुए कहा
सुबह का समय था लोग अपने खेतों में धान की कटाई के लिए हसिया ले जा रहे थे उनमें 90 फ़ीसदी महिलाएं थी पुरुष वर्ग को तो नरेश चंद्र के द्वार पर बैठा मूर्ति लाने के लिए लेखा-जोखा तैयार कर रहा है। धान की फसल पक्की लगी थी उसकी कोई फिक्र नहीं थी
दुलारे एक पुरानी साइकिल पर बैठ कर अपने नित काम के लिए चल दिया, नरेश के द्वार पर देखते ही लोगों ने एक स्वर में आवाज लगाई "अरे दुलारे भाई कहां चले"
"हमारा तो यही रोज का काम है अगर यहां भी ना जाए तो रोटी ना अंदर जाए"
"दुर्गा पूजा आने वाला है जरा तुम भी द्वार पर बैठा करो" नरेश ने कहा
"अरे नहीं नरेश भैया जी तो बहुत चाहता है पर बीवी बच्चों के पेट भी तो भरने हैं"
दुलारे जहां काम करता वहां भी दुर्गा पूजा की तैयारी जोरों शोरों से हो रही है। "अरे दुलारे" दुलारे को देखकर मालिक ने आश्चर्य से कहा। कुछ रुक कर मालिक ने शांत स्वर में कहा "आज काम बंद है दुलारे"।
यह सुनकर दुलारे का चेहरा उतर गया मनो कयामत आ गई दुलारे ने साइकिल धीमी गति से घुमाया और घर की तरफ चल दिया और सोच क्या रहा था यह वही जाने पर इतना अनुमान जरूर लगाया जा सकता कि दशहरा तक उसे कहीं और भी काम नहीं मिलेगा।
काम लगवा देते तो क्या हर्ज था, 10 दिन कहीं काम न पहना मजदूर के लिए रेत पर पड़ी मछली के समान है काम चलता तो कहीं दुर्गा पूजा की तैयारी नहीं होती। दुलारे अपने आप ही बात करता हुआ चला जा रहा है सड़क पर चलने वाले दुलारे को देखते चले जाते।
इधर शंकरपुर में नरेश चंद्र और साथियों ने मूर्ति, प्रसाद, हवन के कार्यक्रम, पंडार तथा भंडारे के लिए तकरीबन तीस हजार रुपए और दो तीन कुंटल राशन का अनुमान लगाया मगर 10, 12 घरों और किसानों से उम्मीद नहीं की जा सकती फिर भी गांव और पास के गांव में चंदा मांगने की तैयारी होने लगी
"अहिरन पुरवा से शुरू करें" खूनखून ने कहा।
"नहीं उदयपुर "से भोलाराम ने बात काटते हुए कहा। न इनकी न उनकी चंदा मांगने का का काम भटनागर पुर से शुरू हुआ आसपास के गांव में चंदा की रसीद काटकर कुल मिलाकर पन्द्रह हजार रुपए इकट्ठे हुए। इतने में तो सिर्फ माता जी की मूर्ति ही हो पाएगी नरेश चंद्र ने गंभीर स्वर में कहा।
"अभी हमारा गांव बचा है" भोला राम ने सांत्वना भरे शब्दों में कहा।
प्रक्रिया आगे बढ़ी अपने गांव में भी लोगों ने बच्चों तथा जयकारे के साथ हु हा करते हुए चंदा का काम शुरू हुआ, एक एक करके सभी घरों से चंदा वसूला गया, कोई 500 से कम देता तो चंदा लेते हैं नहीं थे, लोगों ने उत्साह तथा डर दोनों माध्यम से चंदा दे रहे थे क्योंकि शंकरपुर में पहली बार दुर्गा पूजा का आयोजन हो रहा था।
शाम हो गई थी दुलारे सिर झुकाए अंधेरे में चारपाई पर बैठा था चंदा की भीड़ उसके द्वार पर आ गई, नरेश चंद्र सविनय के साथ बोले "दुलारे भाई आपके पास खेत नहीं इसलिए मैं आपसे सीधा नहीं मांगता हूं पर अपनी स्वेच्छा से चंदा दे दीजिए।"
"मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है अगर होता तो मैं कुछ ना कुछ मदद जरूर करता आप मुझे माफ कीजिए गा।"
"ऐसा काम ना चल सकेगा दुलारे!"
"लेकिन मेरे पास तो कुछ भी नहीं है, मैं काम धंधे के अतिरिक्त कुछ भी मदद नहीं कर सकता।"
"काम तो हम सब करेंगे फिर भी हम चंदा देते हैं और फिर हम सब समान है ना भाई?"
"हम सब रूह से समान हो सकते हैं, पर यहां तो बात हैसियत की है और हमारी हैसियत की तो आप लोगों से कोई पर्दा नहीं है।"
"देना नहीं चाहते हो।"
"अरे यह आप क्या कह रहे हैं! 3 दिन से काम ठप पड़ा है मजदूर को काम न मिलना बरखा में सूखा के समान है।"
"ठीक है फिर हम चलते हैं जय राम जी की।"
चंदे का कारवां गुजर गया दुलारे वहीं करवट होते हुए लेट गया आंखों में आंसू थे और वह भी क्यों नहीं यह उसका दुर्भाग्य तो ही है कि एक कर्मशील व्यक्ति को सिर्फ चंदा और दुर्गा पूजा की तैयारी में काम न मिलना । दुलारे का चेहरा चिंतित और आंखों की पलकें भारी होने के कारण बार-बार गिर उठ रही थी।
सुनीता घर में रोटियां पका कर रामू और दुलारे को आवाज लगाई, रामू तो कहीं खेल रहा था पर दुलारी को भी आवाज साफ साफ सुनाई न दिया, वह उंगली से रेत की धूल पर किसी काल्पनिक जानवर के चित्र बना रहा था। सुनीता ने पीठ को हिलाते हुए कहा "चलिए खाना खा लीजिए।"
"क्या रामू ने खाया।"
"नहीं"
"और तुमने"
"पहले आप और रामू खा लो"
"नहीं रामू और तुम खा लो मैं (हिचकते हुए) मुझे भूख नहीं है।"
"क्यूं मजाक कर रहे हो"
रामू मां-बाप के वार्तालाप को सुनकर बहाने बनाते हैं कहा "अम्मा मैं अखिल के घर खेल रहा था तभी अखिल की अम्मा ने खाने के लिए कहा भूख भी लगी थी मैंने खा लिया।"
"तू सच कह रहा है या"
रामू ने बात को काटते हुए कहा मैंने खा लिया है।
कटोरा में केवल 3 रोटियां थी दुलारे ने एक रोटी खाई, पानी पिया और पेट से लाते हुए द्वार की ओर निकल गया सुनीता ने भी एक रोटी खाई और पानी पीकर लेट गई। एक- एक रोटी सुनीता और दुलारे के पेट में ऐसे निष्क्रिय प्रतीत हो रहे थी जैसे भीषण आग में दो बूंद जल। रामू बिना खाए ही लेट गया रात्रि के 11:00 बजे रामू के पेट में भूख के कारण ऐठन शुरू हो गई। सुनीता को नींद नहीं आई थी रामू के करवटें बदलते देख पूछा "क्या हुआ बेटा" रामू से रहा नहीं "गया भूख लगी है।"
सुनीता ने एक रोटी रख दी थी उसे लाकर रामू को देखकर नमक निकालने चली गई लौट कर आई तो देखा रामू खा चुका था। जब मनुष्य को भूख लगती है तो नीम का पत्ता भी गन्ने सा मीठा लगने लगता है।
सुबह हुई तो दुलारे ने अपनी साइकिल उठाई और आसपास के गांव में काम की तलाश में निकला, सब और दुर्गा पूजा की तैयारी का जश्न था सब काम छोड़कर दुर्गा पूजा समिति के अध्यक्ष के पास बैठे थे चार बजते - बजते दुलारे फिर निराश होकर लौट आया उसे रामू के पेट पीड़ा की सुध हुई पर क्या करता बेचारा! घर पहुंचा तो देखा उसके द्वार पर लोगों की तादाद लगी थी उसे कुछ अनहोनी घटना सूझी पर पास जाकर देखा तो लोग चंदे के रुपए और राशन गरीबों में बांट रहे थे उसके हिस्से में 1 महीने का राशन और तीन हजार रुपए आए। शंकर दयाल लाठी टेकते हुए आए और दुलारे की पीठ थपथपाते हुए कहा "किसी की मदद करना और किसी भूखे पेट में अन्न डालना सबसे बड़ी पूजा है दुर्गा पूजा का उत्सव अगली बार कर लेंगे।"