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डॉ. राकेश जोशी की हिंदी ग़ज़लें

4 मई 2015

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1 हमें हर ओर दिख जाएं, ये कचरा बीनते बच्चे भुलाए किस तरह जाएं, ये कचरा बीनते बच्चे यही है क्या वो आज़ादी कि जिसके ख़्वाब देखे थे ये कूड़ा ढूँढती माँएं, ये कचरा बीनते बच्चे तरक्की की कहानी तो सुनाई जा रही है पर न इसमें क्यों जगह पाएं, ये कचरा बीनते बच्चे ये बचपन ढूँढते अपना, इन्हीं कचरे के ढेरों में खिलौने देख ललचाएं, ये कचरा बीनते बच्चे वो जिनके हाथ में लाखों-करोड़ों योजनाएँ हैं उन्हें भी तो नज़र आएं, ये कचरा बीनते बच्चे वो जिस आकाश से बरसा है, इन पर आग और पानी उसी आकाश पर छाएं, ये कचरा बीनते बच्चे वो तितली जिसके पंखों में, मैं सच्चे रंग भरता हूँ कहीं उसको भी मिल जाएं, ये कचरा बीनते बच्चे कभी ऐसा भी दिन आए, अंधेरों से निकलकर फिर किताबें ढूँढने जाएं, ये कचरा बीनते बच्चे 2 धरती के जिस भी कोने में तुम जाओ वहाँ कबूतर से कह दो तुम भी आओ अगर आग से दुनिया फिर से उगती है जंगल-जंगल आग लगाकर आ जाओ बादल से पूछो, तुम इतना क्यों बरसे कह दो, लोगों की आँखों में मत आओ गूंगे बनकर बैठे थे तुम बरसों से अब सड़कों पर निकलो, दौड़ो, चिल्लाओ महल में राजा के कल फिर से दावत है भूखे-प्यासे लोगो, अब तुम सो जाओ फसलो, तुमसे बस इतनी-सी विनती है सेठों के गोदामों में तुम मत जाओ 3 लोकतंत्र की बातें करना, अच्छी बात नहीं है हालातों से ऐसे डरना, अच्छी बात नहीं है दब-दब कर जीते हो जीवन, सहकर अत्याचार सभी सब कुछ सहना, कुछ न कहना, अच्छी बात नहीं है अगर नहीं है जगह कहीं तो बीच सड़क पर सो जाना दबकर यूं फुटपाथ पे मरना, अच्छी बात नहीं है इस जंगल में नई इमारत उगती है हर रोज़ मगर नहीं कहीं है कोई झरना, अच्छी बात नहीं है लड़ना सीखो, मरना सीखो, हक़ की बात करो हरदम आँसू बनकर बहते रहना, अच्छी बात नहीं है 4 डीज़ल ने आग लगाई है, फिर भी ज़िंदा हूँ खूब बढ़ी महंगाई है, फिर भी ज़िंदा हूँ पत्थर बनकर पड़ा हुआ हूँ धरती पर याद तुम्हारी आई है, फिर भी ज़िंदा हूँ बहुत उदासी का मौसम है ख़ामोशी है मीलों तक तन्हाई है, फिर भी ज़िंदा हूँ खेतों में फसलों के सपने देख रहा हूँ नींद नहीं आ पाई है, फिर भी ज़िंदा हूँ एक कुआँ है कई युगों से मेरे पीछे आगे गहरी खाई है, फिर भी ज़िंदा हूँ सरकारों ने कहा गरीबों की बस्ती में खूब अमीरी आई है, फिर भी ज़िंदा हूँ जंगल-जंगल आग लगी है और तुम्हारी चिट्ठी फिर से आई है, फिर भी ज़िंदा हूँ 5 हर तरफ भारी तबाही हो गई है ये ज़मीं फिर आततायी हो गई है कुछ नए क़ानून ऐसे बन गए हैं आज भी उनकी कमाई हो गई है जब से हम पर्वत से मिलकर आ गए हैं ऊँट की तो जग-हँसाई हो गई है फिर किसानों को कोई चिठ्ठी मिली है फिर से ये धरती पराई हो गई है मैं तुम्हारे पास आना चाहता हूँ बीच में गहरी-सी खाई हो गई है वो तो बच्चों को पढ़ाना चाहता है पर बहुत महंगी पढ़ाई हो गई है
ओम प्रकाश शर्मा

ओम प्रकाश शर्मा

राकेश जी, आपकी तो हर रचना लाजवाब होती है, इस बार कई दिनों से आपकी कोई रचना नहीं आई...आपकी अग्रिम रचना की प्रतीक्षा है...! धन्यवाद !

6 जुलाई 2015

वैभव दुबे

वैभव दुबे

एक से बढ़कर एक उम्दा गजल।

4 मई 2015

शब्दनगरी संगठन

शब्दनगरी संगठन

राकेश जी, आपकी सभी रचनाएँ बेहतरीन हैं, लाजवाब हैं...बहुत खूबसूरत लेखनी है आपकी..आभार! शब्दनगरी से जुड़कर कैसा महसूस कर रहे हैं...अपने अनुभव ज़रूर लिखिए...धन्यवाद !

4 मई 2015

विजय कुमार शर्मा

विजय कुमार शर्मा

अलग-अलग विषयों पर गजलों के मार्फत आपने समाज को अच्छी शिक्षा दी है जोशी जी

4 मई 2015

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डॉ. राकेश जोशी की ग़ज़लें

4 मई 2015
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1 आज फिर से भूख की और रोटियों की बात हो खेत से रूठे हुए सब मोतियों की बात हो जिनसे तय था ये अँधेरे दूर होंगे गाँव के अब अँधेरों से कहो उन सब दियों की बात हो इक नए युग में हमें तो लेके जाना था तुम्हें इस समुन्दर में कहीं तो कश्तियों की बात हो जो तुम्हारी याद लेकर आ गई थीं एक दिन धूप

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डॉ. राकेश जोशी की ग़ज़लें

30 अप्रैल 2015
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1 आज फिर से भूख की और रोटियों की बात हो खेत से रूठे हुए सब मोतियों की बात हो जिनसे तय था ये अँधेरे दूर होंगे गाँव के अब अँधेरों से कहो उन सब दियों की बात हो इक नए युग में हमें तो लेके जाना था तुम्हें इस समुन्दर में कहीं तो कश्तियों की बात हो जो तुम्हारी याद लेकर आ गई थीं एक दिन धूप

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डॉ. राकेश जोशी की हिंदी ग़ज़लें

4 मई 2015
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1 हमें हर ओर दिख जाएं, ये कचरा बीनते बच्चे भुलाए किस तरह जाएं, ये कचरा बीनते बच्चे यही है क्या वो आज़ादी कि जिसके ख़्वाब देखे थे ये कूड़ा ढूँढती माँएं, ये कचरा बीनते बच्चे तरक्की की कहानी तो सुनाई जा रही है पर न इसमें क्यों जगह पाएं, ये कचरा बीनते बच्चे ये बचपन ढूँढते अपना, इन्हीं कचरे

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