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डॉ. राकेश जोशी की ग़ज़लें

30 अप्रैल 2015

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1 आज फिर से भूख की और रोटियों की बात हो खेत से रूठे हुए सब मोतियों की बात हो जिनसे तय था ये अँधेरे दूर होंगे गाँव के अब अँधेरों से कहो उन सब दियों की बात हो इक नए युग में हमें तो लेके जाना था तुम्हें इस समुन्दर में कहीं तो कश्तियों की बात हो जो तुम्हारी याद लेकर आ गई थीं एक दिन धूप में जलती हुई उन सर्दियों की बात हो जिनको तुमने था उजाड़ा कल तरक्की के लिए आज फिर उजड़ी हुई उन बस्तियों की बात हो ज़िक्र जब भी जंगलों का, आँसुओं का, आए तो पेड़ से टूटी हुई सब पत्तियों की बात हो 2 जैसे-जैसे बच्चे पढ़ना सीख रहे हैं हम सब मिलकर आगे बढ़ना सीख रहे हैं पेड़ों पर चढ़ना तो पहले सीख लिया था आज हिमालय पर वो चढ़ना सीख रहे हैं भूख मिटाने को खेतों में जो उगते थे गोदामों में जाकर सड़ना सीख रहे हैं कहाँ मुहब्बत में मिलना मुमकिन होता है इसीलिए हम रोज़ बिछड़ना सीख रहे हैं नदी किनारे बसना सदियों तक सीखा था गाँवों में अब लोग उजड़ना सीख रहे हैं धूप निकल कर फिर आएगी इस धरती पर दुनिया को हम लोग बदलना सीख रहे हैं 3 जब हकीक़त सामने है क्यों फ़साने पर लिखूँ ये है बेहतर, दर्द में डूबे ज़माने पर लिखूँ खेत पर, खलिहान पर, मैं भूख-रोटी पर लिखूँ बंद होते जा रहे हर कारखाने पर लिखूँ फूल, भँवरे और तितली की कहानी छोड़कर आदमी के हर उजड़ते आशियाने पर लिखूँ ख़त्म होते जा रहे रिश्तों के आँसू पर लिखूँ आदमी को रौंदकर पैसे कमाने पर लिखूँ याद तुमको क्यों करूँ मैं, और क्यों करता रहूँ इक कहानी अब मैं तुमको भूल जाने पर लिखूँ जिसकी सूरत रात-दिन अब है बिगड़ती जा रही मैं उसी धरती को अब फिर से सजाने पर लिखूँ बस्तियों में आम लोगों की गरीबी देखकर कुछ घरों में क़ैद मैं सबके ख़ज़ाने पर पर लिखूँ सोचता हूँ, तेरे जाने का कोई न ज़िक्र हो एक दिन एक गीत तेरे लौट आने पर लिखूँ 4 अब उजालों से कोई आता नहीं है भीड़ में भी कोई चिल्लाता नहीं है मैं कभी डरता नहीं हूँ भीगने से सर पे कोई छत नहीं, छाता नहीं है जिन किताबों में गरीबी मिट गई है उन किताबों से मेरा नाता नहीं है बिल्लियों के संग वो पाला गया है शेर होकर भी वो गुर्राता नहीं है डाँटते हैं सब नदी को ही हमेशा बादलों को कोई समझाता नहीं है इस जगह तुम ज़िंदगी को ख़त्म समझो इससे आगे रास्ता जाता नहीं है 5 जो ख़बर अच्छी बहुत है आसमानों के लिए वो ख़बर अच्छी नहीं है आशियानों के लिए इस नए बाज़ार में हर चीज़ महंगी हो गई बीज से सस्ता ज़हर है पर किसानों के लिए भूख से चिल्लाए जो वो, खिड़कियाँ तू बंद कर शोर ये अच्छा नहीं है तेरे कानों के लिए हक़ की बातें करने वालों के लिए पाबंदियाँ और सुविधाएं लिखी हैं बेज़ुबानों के लिए अब नए युग की कहानी में नहीं होगी फसल खेत सारे बिक गए हैं अब मकानों के लिए पेट भरने के लिए मिलती नहीं हैं रोटियाँ खूब ताले मिल रहे हैं कारखानों के लिए
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डॉ. राकेश जोशी की ग़ज़लें

4 मई 2015
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1 आज फिर से भूख की और रोटियों की बात हो खेत से रूठे हुए सब मोतियों की बात हो जिनसे तय था ये अँधेरे दूर होंगे गाँव के अब अँधेरों से कहो उन सब दियों की बात हो इक नए युग में हमें तो लेके जाना था तुम्हें इस समुन्दर में कहीं तो कश्तियों की बात हो जो तुम्हारी याद लेकर आ गई थीं एक दिन धूप

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डॉ. राकेश जोशी की ग़ज़लें

30 अप्रैल 2015
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1 आज फिर से भूख की और रोटियों की बात हो खेत से रूठे हुए सब मोतियों की बात हो जिनसे तय था ये अँधेरे दूर होंगे गाँव के अब अँधेरों से कहो उन सब दियों की बात हो इक नए युग में हमें तो लेके जाना था तुम्हें इस समुन्दर में कहीं तो कश्तियों की बात हो जो तुम्हारी याद लेकर आ गई थीं एक दिन धूप

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डॉ. राकेश जोशी की हिंदी ग़ज़लें

4 मई 2015
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1 हमें हर ओर दिख जाएं, ये कचरा बीनते बच्चे भुलाए किस तरह जाएं, ये कचरा बीनते बच्चे यही है क्या वो आज़ादी कि जिसके ख़्वाब देखे थे ये कूड़ा ढूँढती माँएं, ये कचरा बीनते बच्चे तरक्की की कहानी तो सुनाई जा रही है पर न इसमें क्यों जगह पाएं, ये कचरा बीनते बच्चे ये बचपन ढूँढते अपना, इन्हीं कचरे

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