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देवांशी the untold story

20 जनवरी 2023

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देवांशी

पार्ट 1



स्वरिया कबिले में आज जश्न का माहौल था। करीब पांच सौ लोगों की आबादी का कबीला खुशी से झूम रहा था। सदियों से चली आ रही परम्पराओं को अपने तरीके से निभाते आ रहे थे। उसी के अंतर्गत एक प्रथा सिल्वटी थी जो बहुत की निचले स्तर की थी। स्वरिया कबीले में आज सिल्वटी मनाई जा रही थी। 

कबीले का मुखिया दीपांग अपनी शान के अनुरूप उस घर मे तैयार बैठा था और उसके आसपास कबीले के कुछ बुजुर्ग लोग थे और कुछ दीपांग के चापलूस भी। 

शारन्द नाम के उस लड़के का आज विवाह नदी पार के दूसरे गांव मेडा में हुआ था। नईं बहु को लेकर झूमते हुए कबीले के लोग वापिस आ गए थे। 

इस वक्त शाम का समय था और ढोल बज रहे थे। ढोल की थाप पर नशे में मदमस्त लोग झूम रहे थे। दूसरी तरफ मांस पकाया जा रहा था। यहां लोग ज्यादातर कच्चे मांस को खाते थे, लेकिन सिल्वटी के दौरान मांस को पकाकर खाया जाता था। और उस मांस के साथ सारंगी नाम की देसी शराब का सेवन किया जाता था। सारंगी को भी वो लोग खुद ही तैयार करते थे। मिट्टी के घड़े में लगभग एक सप्ताह तक जमीन में गाड़कर दो तीन तरह के पेड़ों की जड़ और छाल का रस निकाला जाता था और कुछ फूलों को भी उसमें डाला जाता था। खुश्बू तो इत्र की सी आती थी, लेकिन नशा अंग्रेजी शराब से भी ज्यादा होता था। अभी तक इस क्षेत्र में शिक्षा का प्रचार प्रसार नही हुआ था और आज भी यहां के लोगों के खुद के नियम थे। 


खैर रहन सहन और खान पान हर क्षेत्र के अलग अलग और विचित्र होते हैं, उसी के अनुसार यहां भी कुछ अलग ही था। लेकिन सबसे अलग जो था वो सिल्वटी। शारन्द का विवाह हुआ, और उसके घर को सजाया हुआ था। नई दुल्हन अपने कमरे में थी। चारों तरफ पत्थर की दीवारें और ऊपर लकड़ी और घासफूस की छत, यही उनका घर होता था। मुखिया दीपांग शराब के घूंट मारते हुए हाथ मे किसी जंगली जानवर की अधपक्की टांग पकड़ कर उसे खा रहा था। कबीले की महिलाएं भी शामिल थी। शराब और मांस को परोस रही थी और बीच बीच मे ढोल की थाप पर ठुमके भी लगा रही थी। 

कुछ महिलाएं अंदर दुल्हन के पास थी। उसे सिल्वटी योय लिए तैयार कर रही थी। दुल्हन के लिबास में बैठी लड़की को कुछ पता नही था। हर क्षेत्र में अपनी खुशियां मनाने का अलग ढंग होता है और उन तरीके को नई दुल्हन भी स्वीकार करती है। करीब दो घण्टे तक यही जश्न चलता रहा। शराब के साथ मांस परोसा जाता रहा और ढोल की थाप पर ठुमके लगते रहे। रात के लगभग दस बज गए और अब मुखिया उठा। उसके खड़े होते ही ढोल बन्द हो गया और सब लोग शांत। मुखिया ने कहा,,


दीपांग-- स्वरिया के निवासियों आज हम अपनी सौवीं सिल्वटी मनाने जा रहे हैं। हमारे पिताजी बताते थे कि उन्हें सो सिल्वटी मनाने का मौका नही मिला था। जोश तो उनके बदन में काफी था। लेकिन मुखिया के तख्त पर ज्यादा दिन नही बैठ पाए थे। इसलिए वो इस पड़ाव तक नही पहुंच पाए। हमे यह मौका मिला है तो हम आज यह खुशियां दुगुनी कर रहे हैं। हर सिल्वटी का खर्च वही घर उठाता है जिसके पुत्र का विवाह होता है। लेकिन आज सौवीं सिल्वटी की खुशी में हम पूरे कबीले के इस भोज का खर्च खुद उठाएंगे। और सभी लोगों को कल भेंट भी दी जाएगी। 



मुखिया की यह बात सुनकर सभी लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई और सब लोग मुखिया के नाम का जयघोष करने लगे। जयकारे लगाते हुए सब फिर से शराब के घूंट गले से उतारने लगे। मुखिया ने अपने कदम अंदर की तरफ बढ़ाए और दुल्हन के उस कमरे से बाकी की महिलाएं बाहर निकल गई।

मुखिया ने कमरे में प्रवेश किया। जमीन पर लगे बिस्तर पर फूल बिखरे हुए थे और इत्र की खुश्बू आ रही थी। दूसरी तरफ मुंह किए हुए दुल्हन बैठी थी। मुखिया ने अपने हाथ का भाला दीवार के सहारे रखा और अपने कपड़े उतारे। दुल्हन की पीठ की तरफ जाकर घुटनो के बल बैठ गया। यह भी सिल्वटी के एक हिस्सा था कि दुल्हन और मुखिया आमने सामने नही बैठते थे। मुखिया को पीठ की तरफ से जाना पड़ता था। 

दीपांग उस नईं दुल्हन की पीठ पर हाथ घुमाने लगा। कंधे पर हाथ रखकर उसके सिर का वस्त्र नीचे खिसकाया। गर्दन पर हाथ घुमाते हुए सीने पर हाथ ले गया और चोली की डोरी खोलने लगा। दुल्हन अंदर ही अंदर सिमट रही थी। कमर से ऊपर के बदन को नंगा करके मुखिया अपने सख्त हाथ उस कोमल बदन पर फेरने लगा। सीने के नाजुक उभारों को मसलते हुए वो दुल्हन की गर्दन को चूमने लगा। शरमाती हुई दुल्हन अपने बदन को समेटने की कोशिश कर रही थी। लेकिन मुखिया के हाथ उसके बदन को मसलते हुए आगे बढ़ रहे थे। और होंठ उसके कोमल बदन को चूमते हुए उसकी उतेजना को बढ़ाने में लगे थे। उस दुल्हन के नाजुक अंगों के साथ खेलते हुए मुखिया अब उतेजित हो चुका था और अपनी पत्नी के अलावा कबीले की सो दुल्हनों के साथ सो चुका मुखिया नईं दुल्हन को खुश करने में माहिर था। 

आज यह सौवीं दुल्हन थी जिसके साथ मुखिया सुहागरात मना रहा था। मुखिया ने कमर के ऊपर के बदन का रसपान किया और उसके बाद वो नीचे के बदन पर हाथ घुमाने लगा। तभी दुल्हन ने मुखिया का हाथ पकड़ लिया! 

मुखिया ने पहले तो सोचा कि शायद यह दुल्हन भी बाकियों की तरह उसका साथ दे रही है, लेकिन जब दुल्हन के हाथ का दबाव बढ़ने लगा तो मुखिया हैरान हुआ! सोलह सत्रह साल की नाजुक लड़की ने एक प्रौढ़ ताकतवर मुखिया का हाथ इस तरह से दबाया की मुखिया के मुंह से आह निकल गई। अब मुखिया को थोड़ा गुस्सा आया कि आज तक इस कबीले में किसी ने ऐसा नही किया तो इस नई दुल्हन ने उसका हाथ क्यों मरोड़ा! मुखिया न एक झटका दिया और अपना हाथ छुड़ा लिया। अब वो खड़ा हो गया और गुस्से में कुछ बोलने ही वाला था। लेकिन अगले ही पल वो दुल्हन अधूरे कपड़ों में मुखिया के सामने खड़ी थी! 

मुखिया हैरान था! उसने गुस्से में दुल्हन का हाथ पकड़ा तो दुल्हन ने पलक झपकते ही सामने से उसका हाथ पकड़ लिया और फिर मुखिया के पेट पर जोरदार लात मारी! मुखिया पीछे दीवार से जाकर टकराया और उसकी चीख निकल गई। वो खड़ा होने ही वाला था कि दुल्हन उसकी छाती और पैर रखकर खड़ी हो गई! 

बाहर ढोल बज रहे थे और लोग नाच रहे थे। सबको पता था कि अंदर क्या हो सकता था। लेकिन पूरे कबीले की सोच के विपरीत आज अंदर कुछ और ही हो रहा था। दीपांग समझ नही पाया कि आज इस दुल्हन ने ऐसा विरोध क्यों किया! और विरोध किया तो किया, लेकिन वो मुखिया को बोलने का मौका ही नही दे रही थी। साथ ही उसके बदन में मुखिया से ज्यादा ताकत थी! यह कैसे हो सकता है! एक नाजुक लड़की किसी यौद्धा जैसे मुखिया को यूं जमीन पर चित कैसे कर सकती है! 

मुखिया बोलना चाह रहा था कि दुल्हन बोल पड़ी,,


-- क्यों मुखिया जी, आज सोंवी सिल्वटी मनाओगे! पूरे जश्न का खर्चा भी तुम्ही वहन करोगे। लेकिन सोंवी सिल्वटी है तो कुछ अलग तरीके से मनाई जाए। क्या कहते हो? इतनी दुल्हनों को नोच चुका है, कभी किसी ने सामने से कुछ नही किया होगा, है ना? लेकिन आज तुम लेटे रहो और मैं करती हूँ। देखो फिर दुगुना मजा आएगा। 



कहती हुई दुल्हन ने गिरे हुए मुखिया की छाती पर फिर से लात मारी और मुखिया के मुंह से खून निकलने लगा। उसके साथ ही शराब और मांस भी बाहर निकल गया। मुखिया ने बाहर जाने की कोशिश की, घुटनो के बल वो बाहर निकल रहा था कि दुल्हन ने उसके बाल पकड़े और कागज की तरह उठाकर दूसरी दीवार पर फेंक दिया। बदन को चोट लगी तो मुखिया की फिर से चीख निकल गई। लेकिन बाहर कोई भी उसकी आवाज सुनने वाला नही था। सब लोग मस्ती में झूम रहे थे। अंदर की आवाजें उन लोगों के कान में नही पहुंच रही थी। अब मुखिया हैरान था और वो समझ गया कि आज यह कोई दुल्हन नही है बल्कि कोई और ही है। इतनी ताकत किसी महिला में नही हो सकती है। लेकिन यह है क्या! यह समझ से बाहर था। 

ताकतवर मुखिया चींटी की भांति जमीन और था और दुल्हन खड़ी हुई मुस्कुरा रही थी। 


-- लो मुखिया जी, यह मेरा नंगा बदन है, आओ इसको नोच लो। ले लो अपनी मर्दानगी से इस जिस्म का मजा। आज तेरी सौवीं सिल्वटी पर जितना मजा आएगा , उतना आज से पहले कभी नही आया होगा। आओ, अब क्या हुआ? कहाँ गई वो मर्दानगी! कहाँ गई तुम्हारी वो ताकत! आओ ना,,,



कहती हुई दुल्हन गुस्से में हांफने लगी और उसकी आंखें लाल होने लगी। अचानक मुखिया ने देखा कि उस दुल्हन का चेहरा बदलने लगा था। कुछ ही पलों में वो दूसरा चेहरा बन गया और अब मुखिया ने पहचान लिया।

अटकते हुए वो बोलने लगा,,,, देवांशी,,,, देवांशी,,, नही, यह नही हो सकता है। तू,,,म,, देवा ,,, देवांशी,,, नही नही,,,यह कोई बुरा सपना है। यह हकीकत नही हो सकता है!!



क्रमशः



देवांशी द अनटोल्ड स्टोरी पार्ट 2



--  मुखिया अब जमीन पर गिरा हुआ बहुत ज्यादा घबराने लगा था।  अब तक भी वह उस दुल्हन से काफी डर चुका था, लेकिन अब जब दुल्हन के चेहरे में परिवर्तन हुआ तो मुखिया के चेहरे की हवाइयां उड़ने लगी।  उसका बदलता हुआ चेहरा मुखिया ने पहचान लिया था।  लेकिन उसे यकीन नहीं हो रहा था ऐसा भी हो सकता है। मुखिया में आंखे मसली और फिर से देखा, लेकिन वो फिर से वही दुल्हन के रूप में दिखने लगी। अचानक से चेहरा दूसरा हो जाता और अगले ही पल फिर से वही दुल्हन बन जाती। मुखिया ने बहुत कोशिश की और खुद को संभाल कर खड़ा हुआ। लेकिन खड़ा होते ही दुल्हन ने फिर से उसे एक लात मारी और मुखिया फिर से दीवार से जा टकराया।  दुल्हन अब उसकी छाती पर चढ़ चुकी थी। कमर के ऊपर के वस्त्र नहीं थे। अधूरे कपड़ों में उस दुल्हन का अधनंगा बदन अब मुखिया को अच्छा नही लग रहा था। जहां वो किसी महिला के बदन के थोड़े से दीदार से उतेजित हो जाता था आज एक दुल्हन उसे खुद कह रही थी और उसके बावजूद मुखिया की नशों के खून में जोश नही था। वो खून अब ठंडा हो चुका था। दुल्हन फिर से बोलने लगी,,,



- क्या हुआ मुखिया जी, सिल्वटी पर तो आप सबसे ज्यादा खुश होते हैं। आज तक तो आपने कभी इस मौके को नही  जाने दिया। और मुझे यकीन है कि आज भी आप इस मौके का पूरा फायदा उठाओगे। क्यों सही है ना? तो आओ लो इस बदन का पूरा मजा। यह नंगा जिस्म आपको बुला रहा है। आओ ना, क्या हुआ? आपको देखकर तो ऐसा लग रहा है कि आपकी आज सिल्वटी मनाने की इच्छा नही है। 



--- तुम कौन हो? और इस तरह से क्यों और रही हो? मुझे लगता है कि तुम कोई साधारण लड़की नही हो। मुझे जाने दो, मैं तुम्हारे साथ कुछ नही करना चाहता हूँ।



- इतनी जल्दी मुखिया जी,, बस , मैंने तो सुना है कि इस पूरे कबीले में आपके जितना ताकतवर मर्द और कोई नही है। फिर आज आपकी मर्दानगी को क्या हुआ! 



-- आज तुमने कोई जादू टोना किया है। लेकिन मैं निवेदन करता हूँ कि मुझे छोड़ दो। 


-- हां जिंदा जाने दूंगी, लेकिन एक शर्त पर! 



-- बताओ तुम्हारी क्या शर्त है? 


-- तुम इस कबीले के मुखिया हो और मैं चाहती हूं कि तुम कबिले में इस सिल्वटी को बन्द कर दो। किसी औरत के जिस्म ओर इस तरह से प्रथा के नाम पर अत्याचार करना बहुत बड़ा अपराध है। इसे रोक दो। वरना मैं तुम्हे मार दूंगी। 


-- ठीक है, लेकिन मुझे इसके लिए मौका चाहिए। मैं अकेला यह नही कर सकता हूँ। इसके लिए मुझे पंचों के साथ बैठक करनी होगी। उसके बाद इसका फैसला होगा। 


-- चलो तुम्हारी इस बात को मैं मान लेती हूँ। लेकिन याद रहे कि तुम बैठक करोगे और कोशिश यही होगी कि तुम सिल्वटी के पक्ष में नही हो। 


-- ठीक है, मैं इसकी पूरी कोशिश करूंगा। 

कहते हुए मुखिया ने अपने कपड़े उठाये और बाहर की तरफ दौड़ा। बाहर आकर देखा तो सब लोग डोल की थाप पर नाच रहे थे। मुखिया ने सोचा कि इन लोगों के सामने से जाऊंगा तो बदनामी होगी। एक मुखिया अगर इस तरह से बाकी लोगों के सामने आएगा तो मान सम्मान चला जायेगा। क्योंकि सिल्वटी के नियमों के अनुसार मुखिया सुबह ही दुल्हन के कमरे से बाहर आता है। दूसरी बात यह भी की अंदर दुल्हन ही है। उसके अंदर कोई भूत प्रेत है या फिर कोई और ताकत है इस बात का पता नही और कबीले के लोग मुखिया ओर हंसेंगे की वो एक लड़की से मार खाकर आ गया। जबकि कबीले में मर्दों को बहुत उर माना जाता है। मुखिया ने अपनी इज्जत बचाने का सोचा और पीछे की मेड़ के ऊपर से छलांग लगाई। अपने घर की तरफ दौड़ता हुआ मुखिया जाकर अपने कमरे में सो गया।  वो सोचने लगा कि आज क्या हुआ! 

क्या सच मे देवांशी उस दुल्हन में थी या फिर यह सिर्फ मेरी कल्पना में हुआ था! एक बार नही बल्कि तीन चार बार उस दुल्हन के चेहरे में देवांशी का चेहरा दिखा दिया था। अब कैसे यकीन हो कि उस दुल्हन की हकीकत क्या है! बाहर यह बात किसी को बता भी नही सकता। लेकिन कुछ तो करना पड़ेगा। सिल्वटी को बंद करने का प्रस्ताव लाना भी आसान नही होगा। क्योंकि ऐसा प्रस्ताव लाने पर कबीले के ज्यादातर लोग उसके खिलाफ होंगे और ऐसा हुआ तो मुखिया भी किसी दूसरे को बनाया जा सकता है। लेकिन ऐसा होना इज्जत जाने वाला काम होगा। 

मुखिया सोचने लगा कि नही नही,, मैं ऐसा तो नही होने दूँगा। कुछ तो करना ही पड़ेगा। लेकिन ऐसा क्या रास्ता निकालूं की मैं बच जाऊं। फिर मुखिया के दिमाग मे आया कि उसे तो उस दुल्हन के साथ आज ही सोना था। अब आगे से दुबारा तो उस दुल्हन के सामने जाने का कोई अवसर नही होगा तो फिर डर किस बात का! किसी को क्या पता चलेगा कि आज क्या हुआ। अगर आज वो उसे जिस्म का मजा नही ले पाया तो इसमें भी कोई बड़ी बात नही थी। क्योंकि ऐसे जिस्मो का वो काफी रसपान कर चुका था। सोचा कि चलो जाने दो, जो हुआ उसकव भूल जाता हूँ। शायद मैंने खुद ही गलती कर दी और हिम्मत करके उस लड़की का सामना नही किया बल्कि डर गया। देवांशी मेरे दिमाग मे आई होगी और इसीलिए वो मुझे दिखाई दी। जबकि बाकी कुछ बदला नही था। 

सोचते हुए मुखिया सो गया। सुबह उठा तो पूरा बदन दर्द और रहा था। मुखिया ने अपने एक शागिर्द को बुलाया और बदन पर तेल मालिश का कहा,

मुखिया का वो चेला उसके बदन बदन ओर मालिश कर रहा था और उसने मुखिया की पीठ पर चोट के निशान देखे तो हैरान हुआ। लेकिन मुखिया के डर से वो कुछ बोला नही। पूरे बदन की मालिश करने के बाद उस आदमी ने देखा कि मुखिया के तो पूरे बदन पर चोटों के निशान है! लेकिन हैरान होने के अलावा वो कुछ नही बोला। 

खैर पूरा दिन फिर से जलसे में निकल गया और मुखिया ने स्वास्थ्य खराब होने का बहाना कर के उसने शारंद के घर पर सन्देशा भेज दिया था। मुखिया की गैर हाजरी में लोग और भी ज्यादा खुलकर मस्ती करने लगे। शाम के वक्त पहले दिन की ही तरह शराब और मांस परोसा जा रहा था। चार पैग शराब के साथ कुछ बोटियाँ खाने के बाद शारंद के पिता विराग सिल्वटी प्रथा के अनुसार दुल्हन के कमरे में गए। कमरे में महिलाएं नईं दुल्हन को इस रिवाज से परिचित करवा रही थी और उसे तैयार कर रही थी।  जैसे ही घर का मुखिया उस कमरे में घुसा तो महिलाएं उठकर बाहर निकल गई। 

दुल्हन दीवार की तरफ मुंह किए बैठी थी और विराग नई नवेली दुल्हन की पीठ की तरफ जाकर बैठ गया। उसने दुल्हन को एक कीमती जेवर भेंट में दिया और उसके कंधों पर हाथ रखकर धीरे से दबाया। दुल्हन ने वो जेवर दूसरी तरफ रख दिया। अब विराग जो कि दुल्हन का ससुर था उसने दुल्हन की चोली की डोरी खोली और पीठ पर हाथ फेरने लगा। कुछ देर बाद वो अपना हाथ आगे सीने ओर ले गया और मसलने लगा। जब दुल्हन शांत रही तो विराग आगे बढ़ा और अब वो दुल्हन के कंधे चूमने लगा। थोड़ी देर तक चूमते हुए वो अपने हाथ निचे कमर पर घूमने लगा और दुल्हन ने हाथ पकड़ा। विराग भी यही सोचने लगा कि वो साथ देगी, लेकिन दुल्हन ने उस हाथ को दांतों से काटा। इतने दांत चुभोये की विराग की चीख निकल गई और उसे गुस्सा आ गया। विराग ने दुल्हन की पीठ और गुस्से में मुक्का मारा तो वहां से खून बहने लगा। अब विराग हैरान हुआ। पीठ और मारने से इतना खून! ना चमड़ी उतरी ना हड्डी टूटी फिर भी खून बह रहा है और वो भी किसी नाले की तरह। विराग खड़ा हो गया। वो डरने लगे कि दुल्हन को उसने मार दिया और अब वो कबीले में क्या मुंह दिखाएगा। सब उसे तरह तरह से ताने मारेंगे। कुछ सोचकर विराग ने दुल्हन का हाथ पकड़ कर उसे अपनी तरफ घुमाया। दुखन का मुहं देखते ही विराग फिर से चीखा,, लेकिन बाहर चल रही मस्ती में कोई उसकी चीख कैसे सुन पाता! 

दुल्हन का मुंह बिगड़ा हुआ था। दांतो की जगह आंखे थी और नाक की जगह दांत! वो भी लंबे लंबे। विराग को कुछ समझ मे नही आया। वो सोचने लगा कि एक मार में ही इस तरह से कैसे हो गया! विराग कुछ बोलने ही वाला था कि दुल्हन के हाथ मे बेंत दिखाई दिया। वो कुछ बोलता इससे पहले ही दुल्हन धड़ाधड़ बेंत मारने लगी। पीठ और जांघो पर लगातार चाबुक को मार से विराग को असहनीय दर्द होने लगा और वो जमीन पर गिर गया। आंखों में आंसू थे और हाथ जोड़कर वो दुल्हन से रहम की भीख मांगने लगा। अब दुल्हन रुकी और बोली,,,


-- क्यों ससुर जी अपनी बेटी के जिस्म का स्वाद लेना है आपको? शर्म तो है ही नही ना आपके इस कबीले में! ऐसा रिवाज बना रखा है कि अपनी बेटी के बराबर की बहू के जिस्म को पहले आप नोचते हो और उसके बाद असली पति को पास आने देते हो! आइए अब कुछ अलग तरह से इस जिस्म का मजा लीजिए। अब तक आपने इस सिल्वटी के मजे दो बार लिए हैं, क्योंकि आपके दो बेटों के विवाह हो चुका है। लेकिन यकीन मानिए आज आपको सबसे ज्यादा मजा आएगा। (दुल्हन ने अपना पैर विराग की छाती पर रखा और नीचे का कपड़ा जांघो तक ऊपर किया। गुस्से में आंखे लाल थी और माथे ओर पसीने की बूंदे। चेहरा अब सही था और वो खून भी निकलना बन्द हो चुका था।) यह लो अब ले लो इस बदन का जितना मजा लेना है उतना। यह नंगा जिस्म मैं आपको सौंप रही हूँ। मुझे यकीन है कि आप भी अपनी बेटी को इसी तरह से कबीले के गैर मर्दों के नीचे सोने के लिए भेजते होंगे। 

क्रमशः





देवांशी द अनटोल्ड स्टोरी पार्ट 3


-- दुल्हन की बातें सुनोर विराग को बड़ी हैरानी हुई और साथ ही उसे यह अहसास भी हुआ कि वो गलत कर रहा है। कबीले की प्रथा में लड़की ससुर का शामिल होना वाकई में गलत होता है। लेकिन उसी वक्त विराग के दिमाग में खयाल आया कि यह नई दुल्हन इस तरह से क्यों दिख रही है। कि जैसे इसके अंदर कोई भूत हो! पहले वो नाले की तरह खून बहा, फिर बिगड़ा हुआ चेहरा और इसके हाथों में इतनी ताकत! यह सब किसी साधारण लड़की का काम नही हो सकता है! लगता है कि इसके अंदर कोई भूत घुस गया है। या फिर पहोए से ही इसके साथ कोई दुष्ट आत्मा थी जो अब यहां इसके साथ आकर मुझे परेसान कर रही है! विराग सोचने लगा कि दुल्हन की आवाज फिर से गरजी,,,


-- क्या हुआ किस सोच में डूब गए। लीजिए यह नंगा बदन आपके सामने है इसको नोचिए। आप अपनी बेटी के साथ भी यही करोगे ना, जब उसका विवाह होगा? अगर ऐसा ही सोच रहे हो तो फिर आइए मैं भी आपका साथ दूंगी। 



इस बार आवाज पहले से कुछ ज्यादा भारी थी। विराग उस आवाज से और ज्यादा डर गया। अब उसे यकीन हो गया था कि इस दुल्हन में जरूर कोई भूत है। वरना तो इतनी ताकत से मारना और इस तरह से गर्जना करना इतनी छोटी उम्र की लड़की के लिए मुश्किल होता है। 

कुछ देर तक दुल्हन भी चुप रही और विराग सोच में डूबा था। फिर चटाक की आवाज आई और उसी के साथ विराग की चीख निकली। वो अपनी जांघ पर हाथ मसलता हुआ रोने लगा और हाथ जोड़कर दुल्हन के सामने गिड़गिड़ाने लगा। 



-- बस करो अब, क्या मार ही डालोगी? यह सब क्यों और रही हो? कौन हो तुम? 


-- मैं तो वही भोली भाली लड़की हूँ जिसको आप अपने पुत्र के की पत्नी बनाकर खुशी खुशी लाये थे। लेकिन यहां आकर देखा तो मालूम हुआ कि पहले यह कबीला मुझे नोचेगा और उसके बाद मुझे आने पति के पास जाने का मौका मिलेगा। आप बताइए कि यह सब क्या है? 


-- यह तो हमारी एक प्रथा है जो सदियों से चली आ रही है और आज तक किसी ने इसका विरोध नही किया। अब तुमने विरोध किया है तो तुम्हे भी इसकी सजा मिलेगी। कल प्रातः ही मैं मुखिया जी से तुम्हारी शिकायत करूँगा और फिर तुम्हे कड़ी से कड़ी सजा मिलेगी। 



यह बात सुनकर दुल्हन फिर से गुस्से में आ गई और दो चार बेंत लगातार मारे। अबकी चोट ज्यादा भारी थी तो विराग रोने लगा और हाथ जोड़कर फिर से गिड़गिड़ाने लगा।


-- मुझे छोड़ दो मई किसी से शिकायत नही करूँगा और किसी को कुछ नही बताऊंगा। बस मुझे अभी छोड़ दो। मई सारी रात यहीं बैठा रहूंगा, तुम्हारे नजदीक भी नही आऊंगा। 


-- नही,,आप कल प्रातः मुखिया से मेरी शिकायत करोगे। और मुझे सजा दिलवाओगे। समझे। अगर शिकायत नही की तो मैं सारे परिवार वालों के सामने फिर से मारूंगी। और जब तक इसका पूरा फैसला नही होगा तब तक मैं आपको मारती ही रहूंगी। 



विराग अब क्या बोलता। इस वक्त तो वो दुल्हन का मुकाबला करने में असमर्थ था। उसने सोचा कि इस वक्त इसकी बात मानकर मैं चुप रह जाऊं तो अच्छा होगा। सुबह उठकर इससे बात करूंगा। पता नही इसके साथ कोई भय प्रेत है या फिर वाकई में यह सिल्वटी के विरोध में गुस्सा करके इतनी खतरनाक हो गई है। कल इसके बारे में अपने बेटों से बात करूंगा और फिर जब सब लोग साथ होंगे तो यह कुछ नही कर पाएगी। लेकिन अगर इस वक्त कुछ बोलूंगा तो मैं सुबह के लिए जिंदा भी नही रहूंगा। विराग ने हर तरह से सोचकर हाथ जोड़े हुए दुल्हन से कहा,,


-- मुझे माफ़ कर दो। अब मैं कुछ नही करूँगा। बस वही करूँगा जो तुम चाहती हो। तुम बता दो की मुझे क्या करना है। मैं अपनी पूरी जिंदगी तेरी बात मानता रहूंगा। बस इस समय मुझे छोड़ दे। बहुत दर्द दे चुकी हो अब रहम कर दो। पूरा बदन टूटने लगा है। 


-- हां मैं आपको एक शर्त पर छोड़ सकती हूँ। अगर आप मेरी शर्त मानो तो बताओ।


-- हां हां,, मुझे तुम्हारी हर शर्त मंजूर है। मैं स्वीकार करता हूँ ,बस तुम अब मुझे छोड़ दो। 


-- पहले सुन तो लो,, मैं क्या कहने वाली हूँ। 



-- बताओ,, क्या शर्त है? 


-- आपको इस सिल्वटी प्रथा का विरोध करना पड़ेगा। इसे रोकने के लिए कोशिश करनी होगी। 


,,, सिल्वटी के विरोध की बात सुनकर विराग कांपने लगा। क्योंकि वो कबीले के नियमो को जानता था। उसे पता था कि सिल्वटी का विरोध करने पर उसे सिर्फ मुखिया का ही सामना नही करना था बल्कि पूरे कबीले का विरोध सहना था और साथ ही इस प्रथा के विरोध के नियमो के अनुसार सजा भी भुगतनी थी। हालांकि विराग यह नही जानता था  की सिल्वटी को बंद कराने के लिए यह दुल्हन मुखिया को भी शर्त में बांध चुकी थी। लेकिन इस वक्त तो वो इस बात से अनजान था और अपनी जान बचाने के लिए उसे झूठ बोलना ही था। उसको सोचते हुए देखकर दुल्हन फिर से बोली,,,


-- क्या हुआ सांप सूंघ गया क्या? इतना सी बात नही मान सकते तो फिर अब मरने के लिए तैयार हो जा। मैं समझ गई कि तुम यह काम नही कर पाओगे। 



--- नही नही,, रुको मैं तो बस सोच रहा था कि इसके लिए मुझे क्या करना होगा और किस तरह से करना होगा। मैं तुम्हारी बात मानने के लिए तैयार हूं। बस यूं ही सोचने लगा था। मैं कल प्रातः काल उठते ही सबसे पहले इसके बारे में ही बात करूंगा। मुखिया से भी और कबीले के बाकी लोगों से भी। अब तुम कुछ मत करना। मैं हाथ जोड़कर तुमसे माफी मांगता हूं। 



-- ठीक है, यहीं सो जाओ, बाहर जाओगे तो तुम्हरी बदनामी होगा और मैं नही चाहती हूँ कि समाज के किसी भी इंसान को इस तरह से बदनामी और अत्याचार सहन करना पड़े। 


खैर विराग ने बात मान ली, और रात गुजर गई। अगली रात को शारंद अपनी पत्नी के पास आया तो दुल्हन ने प्यार से स्वीकार किया और बताया भी की वो सिल्वटी से बच चुकी है। सारंद भी सिल्वटी से नाराज था। वो भी बदलना चाह रहा था। लेकिन कबीले के सख्त नियमो के कारण वो असमर्थ था। जब उसने अपनी पत्नी से पूछा कि वो किसी बची तो दुल्हन ने प्यार से उस बात को यह कहकर टाल दिया कि कुछ दिनों में सब पता चल जाएगा और आप मेरा साथ दीजिए ताकि इस प्रथा को कबीले से हमेशां के लिए मिटा दें। सारंद खुद चाहता था इसलिए वो अपनी पत्नी की बात मान गया। दोनो खुशी खुशी रहने लगे। कबीले की यह पहली बहु थी जो सिल्वटी के बिना अपने पति के साथ सोई थी। अब तक ऐसा कभी नही हुआ था। पहली बार ऐसा हुआ और उस कारण दोनो पति  पत्नी खुश थे। 

खैर इस खुशी के दो चार दिन बीत गए। लेकिन ना तो मुखिया ने कुछ किया और ना ही विराग ने उस सम्बन्ध में कोई बात की। अब पहाड़ी पर बैठी देवांशी सोच में डूब गई। दोनो ही अपनी बात से मुकर गए। फिर से उसी दुल्हन के अंदर जाना उसे ठीक नही लग रहा था। किसी नादान को परेशान करना देवांशी के उसूलों के खिलाफ था। सोचा कि मुखिया को और विराग को मार दूँ। उनोए अंदर घुसकर उनका कत्ल कर दूं।

लेकिन फिर सोचा कि इससे क्या होगा। अगर मुखिया या विराग को मार दिया तो इस प्रथा पर कोई फर्क नही पड़ेगा।  कबीले के बाकी के लोग इस बात को कैसे मानेंगे। और सबको मारती रहूं तो फिर यह बहुत ही बड़ा अपराध होगा। नही मैं ऐसा तो नही कर सकती। मुझे किसी भी तरह से इस प्रथा को दूर करना है लोगों को बेमौत नही मारना है। और यहां के लोगों को मारने से यह कुप्रथा रुकेगी नही। इसके लिए तो कुछ और ही रास्ता निकालना होगा। 

देवांशी निराश नही हुई, हां वो थोड़ी उदास थी। कि उसने एक चाल चली लेकिन वो सफल नही हुई। अब उसने सोचा कि एकमात्र रास्ता यही है कि यहां के लोगों में सिल्वटी का ही डर डालना होगा। अगर यह डर उनके भीतर घुस गया तो फिर वो लोग इस बात को मान सकते हैं कि इस प्रथा को बंद कर दिया जाए और इसे मनाने वाले के खिलाफ नियम बनाए जाएं। कुछ देर तक सोचती रही। फिर अचानक से देवांशी के चेहरे पर मुस्कान आई और वो खड़ी होकर गुनगुनाने लगी। पहाड़ी ओर घूमती हुई मधुर आवाज में गुनगुनाती हुई देवांशी पहाड़ी के उस पर चली गई। उसकी मुस्कान और आवाज की मिठास बता रही थी कि देवांशी को सिल्वटी को दूर करने का रास्ता मिल गया है। लेकिन अब देवांशी क्या करने वाली है और कैसे करेगी! यह देखना बाकी था! मुखिया और विराग ने तो वादा भी तोड़ दिया और अपने जख्म भी किसी को नही दिखाए। खुद दर्द सहन भी कर लिया और किसी से इस विषय पर चर्चा भी नही की। लेकिन अब देवांशी की आवाज मिठास के साथ उन पहाड़ियों के गूंज रही थी और यह संकेत था कि देवांशी अब कुछ बड़ा करने वाली है या फिर कुछ ऐसा करने वाली है कि इस कबीले को हार मानकर सिल्वटी को बंद करना ही पड़ेगा। 


क्रमशः




देवांशी द अनटोल्ड स्टोरी पार्ट 4


--- रात होने लगी थी और हल्के हल्के अंधेरा बस्ती को अपनी गिरफ्त में ले रहा था। स्वरिया कबीले में सन्नाटा छा गया था। मतलब की सब लोग शाम का खाना खाकर सो चुके थे। कहीं कहीं कुत्तों के भौंकने की आवाज के अलावा कुछ और सुनाई नही दे रहा था। पहाड़ी के उस पार से गूंजती हुई मीठी आवाज को सुना जा सकता था। मुखिया का घर पहाड़ी की सबसे नीची चोटी पर था। जहां से पूरी बस्ती को देखा जा सकता था। 

रात के लगभग दस बज गए थे और अब पूरी बस्ती में सन्नाटा था। मुखिया लघुशंका के लिए उठा तो उसकी कमर में दर्द महसूस हुआ। वो एक लाठी के सहारे से बाहर आया एयर लघुशंका से निवृत होकर वापिस घर के अंदर जा रहा था कि उसे पहाड़ी से गूंजती हुई वो आवाज सुनाई दी। इतनी मधुर आवाज में रात के इस समय कौन होगा! मुखिया ने अपने कान खड़े किए और सुनने लगा। ध्यान से सुनने पर मुखिया चौंक गया! आवाज इतनी मधुर थी कि कानों में शहद का सा रस घुल रहा था, लेकिन गाने के शब्द इतने कड़वे थे कि कानो के कीड़े झड़ जाएं। मुखिया कांपने लगा था। अब तक निडरता से कहीं भी किसी भी वक्त बिना झिझके जाने वाला मुखिया दीपांग अब डरने लगे था। उसका कारण  दो दिन पहले उसके साथ दुल्हन ने जो किया वो था। क्योंकि मुखिया कर मन मे यह बात थी कि कोई साधारण लड़की ऐसा नही ओर सकती और मुखिया को गुस्से में उस दुल्हन के चेहरे में देवांशी दिखाई दी थी। इसलिए वो अब दो दिन से अपने ही घर मे रहकर यह सोचने लगा था कि कहीं देवांशी वापिस तो नही आ गई है! और जिस तरीके से वो गई थी, अब अगर वापिस आई है तो वो बदला लेने के लिए ही आई है। पूरी बस्ती में मुखिया के अलावा और कोई यह नही जानता था कि देवांशी की मौत कैसे हुई! इसलिए अब देवांशी के नाम से मुखिया ही सबसे ज्यादा डर रहा था। बाकी तो कोई अभी तक उसके बारे में सोच भी नही रहा था। 

उस आवाज से मुखिया के रोंगटे खड़े हो गए। और वो धुन तबाही की थी। कबीले में जब कोई भयानक आफत आती है तो उस धुन को गाया जाता है। आज पहाड़ी से वो धुन कड़वे शब्दो मे मुखिया साफ साफ सुन पा रहा था। इसका मतलब भी वो जानता था। मुखिया ने डरते हुए कुछ कदम आगे बढ़ाए और फिर सुना। आवाज उसे अपने घर की तरफ आती महसूस हो रही थी। मुखिया और ज्यादा डर गया। कहीं ऐसा तो नही की देवांशी सिर्फ उसी को अपना शिकार बनाने आई हो! 

कुछ देर तक मुखिया सुनता रहा और फिर उसने देखा कि चांद की रोशनी में एक बड़ा सा काला साया उसके घर और पड़ रहा था। उसके जल्दी से आसपास नजर दौड़ाई, अगल बगल में इतना बड़ा कोई पेड़ भी नही था शायद जिसकी छायां पड़ रही हो! ना ही पहाड़ी की कोई चोटी थी। अब मुखिया के बदन में सरसराहट दौड़ गई और वो अंदर की तरफ दौड़ा। अपने कमरे में जाकर वो कम्बल में घुसकर सो गया। अब उसे नींद नही आ रही थी और वो बस देवांशी के बारे में सोच रहा था। 

उधर देवांशी ने मुखिया की इस घबराहट को देखा और खुश हुई। मौत की तड़प से ज्यादा मुखिया को इस डर से तड़पते हुए देखकर वो खुश थी। उसने शारंद के घर की तरफ कदम बढ़ाए और वहां गई तो शारंद घर से बाहर उसका इंतजार कर रहा था। देवांशी उसके पास गई और दोनो आपस मे बातचीत करने लगे। 


शारंद-- देवांशी मैंने तो तुम्हारी बात मान ली और मदद कर दी। अब तक मुझे नही पता कि क्या हुआ! अब तुम बताओ कि तुम्हे क्या लगता है ? 


देवांशी-- भाई तुमने मेरी मदद की है तो चिंता मत कर। मैं अब इस कबीले में ऐसा कुछ नही होने दूंगी जो गलत है। तुम्हारी पत्नी पवित्र है। दोनो को ही मैंने वो नही करने दिया। इस बारे में तुम निश्चिंत हो जाओ। लेकिन अब तुम्हे मेरी एक और मदद करनी होगी। 


शारंद-- हां बताओ,, तुमने मेरी पत्नी की पवित्रता को खोने से बचाया है और जीवन भर मुझे अंदर ही अंदर घुटने से बचाया है तो मैं भी तुम्हारी हर सम्भव मदद करूँगा। बताओ क्या करना होगा। 


देवांशी-- तुम्हारे इस कबीले में अगली शादी कब है और किसकी है, इस बात का पता लगाओ। और साथ ही यह कोशिश करो कि उस लड़के से बात हो जाए। वो भी तुम्हारी तरह मान जाए कि वो सिल्वटी नही चाहता है। अगर वो लड़का चाहेगा तो भी हम अपनी योजना के तहत काम करेंगे। लेकिन अगर वो सिल्वटी के खिलाफ हो जायर तो फिर हमारे लिए बाकी का काम आसान हो जाएगा। 



शारंद-- हा,, तुम्हारी यह बात सही है और मैं समझ गया कि मुझे क्या करना है। अब तुम चिंता मत करो। कबीले के अगले हर विवाह में हम दोनों होंगे और वो भी आपने प्लान के साथ। तुम्हारी मौत का बदला हम किसी को मारकर नही लेंगे। बल्कि जिस वजह से तुम्हे मरना पड़ा , हम उस वजह को ही खत्म कर देंगे। ताकि किसी और देवांशी को वो दर्द ना झेलना पड़े जो तुमने झेला था। 



देवांशी-- सही कहा तुमने,, बात सिर्फ देवांशी की नही है,, बात यह है कि यहां के लोगों की आंखों पर इस कुप्रथा का चश्मा चढ़ा हुआ है, वो उतरना चाहिए। साथ ही मुखिया जैसे बाहुबली का खात्मा जरुरी है। अब मैं बिना किसी शरीर के ना तो मुखिया को मार सकती हूँ और ना ही इस प्रथा को बनफ कर सकती हूँ। और सिर्फ मुखिया की मौत से यह सब बन्द नही होगा। इसके लिए हमे बहुत कुछ करना पड़ेगा। 



शारंद-- हां, यह मैं भी जानता हूँ कि पूरे कबीले के लोगों का माइंड खराब है। वो आज भी उसी आदिवासी तौर तरीकों को लेकर बैठे हैं। मुझे बहुत अफसोस है कि तुम्हारी शादी के वक्त मैं यहां नही था। वरना आज तुम जीवित होती। लेकिन शायद यह भी उस ईश्वर का ही एक खेल होगा। 


देवांशी-- चलो भाई, अब मैं चलती हूँ तुम ध्यान रखना और मुझे बुलाने का तरीका तुम्हे पता है ही। अब जाओ तुम्हारी पत्नी जाग गए है। उसके दिमाग मे सवाल पनपे उससे पहले ही कमरे में चले जाओ। 



--- हवा के एक झोंके के जैसे देवांशी वहां से चली गई और शारंद अपने कमरे में चला गया। उसकी पत्नी सचमुच जाग रही थी। पूछा तो शारंद ने जवाब दिया कि वो लघुशंका के लिए बाहर गया था। तो दोनो वापिस सो गए। उधर देवांशी फिर से पहाड़ियों में गुनगुनाति हुई गायब हो गई। शारंद हो नींद नही आई। वो देवांशी के बारे में सोचने लगा था। कबीले का एकमात्र लड़का था जो पढा लिखा था। हालांकि अब काफी लड़के स्कूल जाने लगे थे। लेकिन लड़कियां अब भी स्कूल से कोषों दूर थी। उधर अपने गांव में देवांशी पहली लड़की थी जो पढ़ी हुई थी। शारंद और देवांशी पहली बार स्कूल में ही मिले थे। यह बात पांच साल पहले की थी। जब वो दसवीं के लिए पास के बड़े कस्बे में पढ़ते थे। हालांकि शारंद की आगे की पढ़ाई का भी मुखिया और बाकी के लोगों ने विरोध किया था। लेकिन शारंद ने नौकरी का बहाना किया और आगे की पढ़ाई जा रखी। एक साल देवांशी के साथ पढ़ने के बाद शारंद कोलकाता चला गया और वहां एक कंपनी में नौकरी करने लगा साथ ही अपनी कॉलेज की पढ़ाई भी करने लगा। कबीले में किसी को उसके बारे में सच नही पता था। और आज तक भी पता नही है। 

एक महीने पहले शारंद अपने विवाह के लिए वापिस गांव आया और उसने अपने पिता से बात की। जैसे तैसे शारंद शादी के लिए तो तैयार हो गया, लेकिन आधुनिकता का रंग देख चुका शारंद सिल्वटी के बारे में सोचकर परेशान था। वो नही चाहता था कि उसकी होने वाली पत्नी उससे पहले दो रातों तक किसी और के नीचे सोए। इस कुप्रथा से दुखी होकर वो विवाह से कुछ दिन पहले एक शाम को पहाड़ी के पास के झरने के किनारे बैठा हुआ उदास था। सोच में डूबा हुआ था। शाम का अंधेरा हो रहा था और शारंद का मन घर जाने का नही था। उसके दिमाग मे सिल्वटी का खौफ था। अचानक झरने से बह रहे पानी की आवाज तेज हुई और पहाड़ी से पत्थर गिरने लगे। शारंद कुछ सोच पाता, संभलता उससे पहले ही एक बड़ा सा पत्थर उसके करीब लुढ़कता हुआ आया। शारंद ने सोच लिया कि उसकी टक्कर से आज तो मौत हो गई। आंखे बंद करके शारंद बैठा रहा। और पत्थर की टक्कर का इंतजार करने लग। वहां से उठकर भागने में उसने दिलचस्पी नही दिखाई। कुछ देर तक वो वैसा ही रहा, वातावरण में शांति हो गई। अब कोई आवाज नही सुनाई दी। तो शारंद ने डरते हुए आंखे खोली। वो पत्थर उसके बिल्कुल करीब आकर रुक गया था। चारों तरफ उसने नजर घुमाई। सबकुछ शांत था। अचानक यह क्या हुआ! पहाड़ी से यह पत्थर कैसे आए! और इस पत्थर को किसने रोक! शारंद के माइंड में अब सवाल पर सवाल थे और जवाब का कोई रास्ता अभी तक उसे दिखाई नही दिया। 


क्रमशः




देवांशी द अनटोल्ड स्टोरी पार्ट 5


--शारंद कबीले के रीति रिवाजों से परेशान था। वो उन सब के खिलाफ था लेकिन वो जानता था कि वो अकेला उन सबका सामना नही कर सकेगा। क्योंकि कई विरोध की चिंगारियों  को राख में बदलते हुए वो देख चुका था। लेकिन अब खुद के विवाह के बाद मनाई जाने वाली सिल्वटी के बारे में सोचकर वो परेशान था और दुखी भी। आज उसका मन नही था कि वो वापिस घर जाए। इसलिए अंधेरे में भी वो उस झरने के पास बैठा था। अचानक से वहां हुए उस हादसे से वो डरा नही। उसने तो यह सोचा कि अच्छा होगा अगर वो मर जाए तो। लेकिन शायद उसकी किस्मत में कुछ और लिखा था। इतना भयानक पहाड़ी स्खलन होने के बाद भी पत्थर का एक टुकड़ा भी उस तक नही पहुंचा। एक पत्थर उसके करीब आया भी लेकिन वो भी शारंद से टकराने के लिए मना कर चुका था। शारंद ने आंखे खोली तो उसे एक छायां दिखाई दी। एक बड़ी सी छायां पहाड़ के ऊपर से उस झरने के रास्ते से उसकी तरफ बढ़ता हुआ दिखाई देने लगा। शारंद ने गौर से उसकी तरफ देखा तो हर पल वो काली छायां बड़ी होकर उसकी ही तरफ आ रही थी। शारंद अब थोड़ा घबराया! अब तक उसने सुन रखा था कि इस पहाड़ी पर रात के समय अतृप्त आत्माएं विचरण करती रहती हैं। अब उस काल साये को देखकर उसे वो डरावनी बातें याद आने लगी। लेकिन वो झिझका! घर जाने का मन तो वैसे भी नही था। तो अब डरने की बजाय देखा जाए कि यह सब क्या है! आखिर वो बातें सच हैं या फिर यह कोई दूसरी तरह का साया है! शारंद खड़ा खड़ा उस काल साये को गौर देखता रहा। कुछ देर बाद पहाड़ी पर एक इंसान जैसा नजर आया। शारंद ने अब नजरें गड़ाकर उसकी तरफ देखना शुरू किया। आराम से एक एक कदम बढाकर वो आगे बढ़ रहा था और शारंद के दिल की धड़कन उसके हर कदम के साथ बढ़ रही थी। कुछ देर में वो इंसान नजदीक आया तो उसकी पायल की छह छम सुनाई दी। अब शारंद ने सोचा कि यह तो किसी औरत के चलने पर होता है। अगर यह औरत है तो इतनी रात को अकेली इस पहाड़ी पर कैसे! और इसके आने पर इतना भयानक हादसा कैसे हुआ! धीरे धीरे वो चलती हुई शारंद के पास आ गई। शारंद उसे देखता रहा। सुंदर कपड़ों में सजी हुई दुल्हन सी वो महिला शारंद के पास आकर रुक गई। शारंद तो जैसे कहीं खो गया था। बस उसे देखता ही रहा। उस महिला ने चुटकी बजाई और शारंद का ध्यान तोड़ा। हिचकिचाकर शारंद ने उसकी तरफ देखा तो शारंद के चेहरे पर आश्चर्य और मुस्कान का मिलाजुला असर एक साथ हुआ। उस महिला की तरफ उंगली उठाता हुआ शारंद बोला,,,


--- ,,,,, देवांशी!! क्या तुम देवांशी हो? 


-- क्या लगता है तुम्हे? इस अंधेरे में तुम्हारे सामने इस तरह से कौन आ सकता है! क्या तुम यहाँ किसी का इंतजार कर रहे थे?? 


-- हां इंतजार तो था,, लेकिन वो सब बातें बाद में। मुझे लगता है कि तुम देवांशी हो। हालांकि काफी समय हो गया। लेकिन मेरी यादाश्त इतनी कमजोर तो नही है। देवांशी तुम इस तरह से इतनी रात को यहां! और ऐसे कपड़ों में! मतलब की तुम्हारी शादी हो चुकी है! 


--- हाँ,, तुमने बिल्कुल सही पहचाना। मैं देवांशी ही हूँ और मेरी शादी हो चुकी है, वो भी तुम्हारे ही कबीले में। लेकिन इस वक्त यहां आने का कारण तुम हो। मुझे तुम्हारी मदद चाहिए। मैंने तुम्हें यहां उदास बैठे देखा तो तुम्हारे पास आ गई। 


-- मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूँ? इतनी रात को तुम यहाँ हो, इसका मतलब की तुमने कोई कीमती चीज खो दी है, और as यूज्वल हमारे कबीले के इन अन्यायी लोगों ने तुम्हें सजा दी होगी कि तुम उस कीमती सामान को अकेली ढूंढकर लाओ। 



-- कुछ ऐसा ही समझो। लेकिन इससे पहले की तुम कुछ और सवाल करो मैं तुम्हे एक बात बताना चाहती हूं। उससे भी पहले यह सुन लो कि डरना मत। मैं तुम्हे कोई नुकसान नही पहुँचाऊंगी। ऐसा मान लो कि मैं वही देवांशी हूँ जो कभी तुम्हारे साथ पढ़ती थी और ऊंचे ऊंचे ख्वाब देखती थी। 



--- लेकिन अब यह बताओ कि तुम कहना क्या चाह रही हो? मैं कुछ समझ नही रहा हूँ। तुम ना डरने की बात कहकर किस तरह की बात बताना चाह रही हो? 



-- यही की मैं अब वो देवांशी नही हूँ। इस संसार से दूर अब मैं देवांशी की आत्मा हूँ। जिसको तुम्हारी यह दुनिया भूत के नाम से जानती है। 


-- क्या!! तुम,, भ,,, भूत!! 


कहते हुए शारंद वहीं गिर पड़ा। देवांशी ने अपना माथा पकड़ा। वही हुआ जिसका देवांशी को डर था। देवांसी ने झरने से अपनी हथेली में पानी भरा और शारंद के मुंह पर डाला। दो तीन बार पानी डालने के बाद हड़बड़ाकर शारंद उठा। सामने मुस्कुराती हुई देवांशी खड़ी थी। शारंद कुछ बोलता इससे पहले ही देवांशी ने उसके होठों पर उंगली रख दी वो बोली,,


-- अब कुछ मत सोचना और कुछ मत बोलना। पहले मेरी पूरी बात सुनो। उसके बाद तुम्हे जो भी सवाल करना है वो कर लेना। और इस तरह से डरना मत। 

शारंद ने स्वीकार में गर्दन हिलाई और चुपचाप बैठ गया। देवांशी उसकी बगल में बैठ गई और उसे अपनी कहानी बताने लगी। अपने विवाह और उसके बाद मौत की पूरी कहानी बताने के बाद देवांशी ने शारंद से कहा। 


--- भाई अब मैं चाहती हूं कि कोई और देवांशी इस बस्ती में ना हो। किसी और के प्रति इस तरह का अन्याय ना हो। अगर तुम आज अपनी होने वाली पत्नी को लेकर इस तरह से उदास हो,, अगर तुम यह मानते हो कि इस कबीले में चली आ रही यह प्रथा गलत है तो तुम मेरा साथ दो। यकीन मानो की तुम्हारी दुल्हन बिल्कुल पाक पवित्र तुम्हारे पास आएगी और उसी तरह से हर वो लड़की जो दुल्हन बनकर इस कबीले में आएगी वो भी पवित्र ही अपने पति के पास पहुंचेगी। सोच लो कि कितनी औरतों का भला करने का और उनकी दुआएं लेने का मौका तुम्हे मिल रहा है।


-- देवांशी तुम्हारी बात बिल्कुल सही है और मैं भी चाहता हूँ कि इस कबीले से यह प्रथा दूर हो जाये। इस कबीले से क्या मैं तो चाहता हूँ कि हमारे पूरे देश मे अगर किसी भी कोने में किसी भी समाज मे ऐसी कोई प्रथा है जिसमे औरतों का दमन हो तो वो बन्द होनी चाहिए। हालांकि सरकार इस तरह कदम बढ़ा रही है, लेकिन अभी अभी हम ब्रिटिश गुलामी से मुक्त हुए हैं और सरकार को पूरे देश के हर कोने तक पहुंचने में समय लगेगा। उस समय तक पता नही कितनी औरतें इस तरह के अन्याय का शिकार हो जाएंगी। कुछ हमारी भी जिम्मेदारी बनती है। हमने अगर कुछ पढ़ाई की है और पुरानी परंपरा जो अनुचित हैं उन्हें बन्द करने में अपना योगदान देना चाहिए। 


-- शारंद अगर तुम ऐसा सोचते हो तो फिर यह काम आसान होगा। और मैं इस काम मे तुम्हारी मदद करूंगी। ज्यादा नही तो कम से कम तुम्हारे इस कबीले से तो मैं ऐसी गलत प्रथा को दूर कर सकती हूँ। बस मुझे किसी का साथ चाहिए। शायद दूसरी जगहों पर भी हमारे जैसे कोई जन्मे होंगे जो समाज को सही दिशा में ले जाएंगे। 


-- ठीक है देवांशी मैं तुम्हारे साथ हूँ, बताओ मुझे क्या करना होगा। लेकिन एक बात याद रखना की हमारा यह काम हो जाने के बाद तुम यहाँ से बहुत दूर चली जाना। 



--मैंने तुम्हें भाई कहा है, अब यकीन करो। और दूसरी बात, इस कबिले कि जो बात मुझे चुभ रही है , अगर वो यहां से दूर हो जाएगी तो मेरी ये भटकती हुई आत्मा भी शांत हो जाएगी। 


-- तो बहन देवांशी,, तुम्हारी इस योजना में मैं तुम्हारे साथ हूँ। और हर हाल में मैं कोशिश करूंगा कि अपना पूरा योगदान दे सकुं। मैं अब किसी से नही डरूंगा। अगर तुम साथ हो तो फिर मुझे डर किसका है। अब तुम बताओ हम यह काम किस तरह से करेंगे? 


--- तुम ज्यादा उत्साहित मत हो। मैं इतनी शक्तिशाली नही हूँ कि कुछ भी कर सकती हूँ। अगर होती तो मुझे तुम्हारी मदद की जरुरत नही पड़ती। दूसरी बात यह कि हमे किसी इंसान को मारकर उसके घरवालों की गालियां भी नही सुननी हैं। हम यहां से लोगों के दिमाग में बसी इस प्रथा को बाहर निकालना है। अब उसमे अगर हम थोड़ा कठोर होना पड़ा तो हमे होना ही होगा। शायद किसी को हम शारीरिक पीड़ा दें। या फिर कोई और रास्ता भी हो सकता है। 



-- देवांशी मैं तुम्हारी हर बात को अब अच्छे से समझ गया हूँ। तुम इस बात से बिफ़िक्र रहो। अब मैं तुम्हरी मदद करूँगा और तुम मेरी मदद करो। मैं भी चाहता हूँ कि इस समाज से यह गंदगी दूर हो। अब तुम बताओ कि तुम  क्या करने वाली हो? हम कैसे और कहां से इसकी शुरुआत करेंगे? 


-- जरा सांस ले लो आराम से। मैं तुन्हें पुरी योजना समझाती हूँ। बस हमे इस बात का ध्यान रखना है कि किसी को यह भनक नही लगे कि तुम मेरे साथ हो। दूसरी बात यह कि तुम कभी मेरा नाम मत लेना। क्योंकि मैंने तुम्हें बताया था ना कि मेरे नाम से पूरा कबीला चिढ़ने लगा था। और शायद आज तक चिढ़ता होगा। 


क्रमशः




देवांशी द अनटोल्ड स्टोरी पार्ट 6



--देवांशी की आत्मा ने अपने सहपाठी शारंद को ढूंढ लिया और अब दोनो ने मिलकर आगे की योजना बनाई। किस तरह से वो अपने उस समाज से कुप्रथाओं को दूर कर सकते हैं और अपनी बहुओं को सुरक्षित रख सकते हैं। दोनो ने अपनी अपनी व्यथा को अपनी मजबूती बनाया और प्लान के अकॉर्डिंग काम करना शुरू किया। उसी प्लान का हिस्सा था कि शारंद की दुल्हन वो सब कर रही थी। देवांशी ने शारंद के साथ मिलकर मुखिया और शारंद के पिता योय दिमाग मे डर डाल दिया। ताकि वो मजबूर होकर सिल्वटी को बंद करें। लेकिन सदियों से चली आ रही प्रथा को बंद करना उन दोनों के लिए आसान नही था। 

उस रात उस काल साये को अपने घर के करीब आते देख और पहाड़ी से गूंज रहे उस तबाही की धुन को सुनने के बाद मुखिया को नींद नही आई। पूरी रात तो अपने बिस्तर में दुबका हुआ यही सोच रहा था कि यह सब क्या था। जो उस दिन सिल्वटी में हुआ और आज जो देखा और सुना,, यह सब साधारण नही है। यह संकेत है कि देवांशी की आत्मा आ चुकी है। देवांशी के नाम से ही मुखिया कांप जाता था। क्योंकि सिर्फ वही जानता था कि देवांशी की मौत कैसे और क्यों हुई थी। 

अगली सुबह उठते ही मुखिया तैयार होकर बस्ती से बाहर निकल गया। पहाड़ी को पार करने के बाद सुदूर जंगल की तरफ चलने लगा। दोपहर होते होते वो एक सुनसान जंगल मे चला गया। जहां दूसरे देश की सीमा कुछ ही दूरी पर थी। मुखिया उस घने जंगल मे एक जगह रुका और आसपास देखा। एक छोटी सी पहाड़ी के पास गया और तंग रास्ते से अंदर घुस गया। बाहर से पता नही चलता था कि उस छोटी पहाड़ी के अंदर कोई गुफा भी है। मुखिया उसके बारे में जानता था। वो उस गुफा के अंदर चला गया। कुछ कदम चलने के बाद अंदर एक रूम जितनी जगह थी। 

काले कपड़ों में एक लंबा चौड़ा आदमी बड़ी सी सफेद दाढ़ी के बैठा हुआ था। उसके सामने बने हुए एक कुंड में आग जल रही थी। बाबा जैसे दिखने वाले उस काले कपड़ों वाले आदमी के एक हाथ मे मोतियों की माला थी तो दूसरे हाथ से वो सामने जल रही उस आग में बार बार कुछ डाल रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वो कुछ पूजा पाठ कर रहा था। आंखे बंद और गंभीर मुद्रा लिए वो शांत बैठा था। ना समझ मे आने वाले कुछ मंत्र पढ़ रहा था। मुखिया बिना कुछ बोले उसके सामने जाकर बैठ गया और झुककर प्रणाम किया। 

कुछ देर तक बाबा उसी तरह से अपनी पूजा में लगे रहे और मुखिया उसके सामने बैठा रहा। बाबा ने फिर आंखे खोली और मुखिया की तरफ देखा। बाबा की आंखे लाल थी। ऐसा लगा जैसे कि वो गुस्से में हो,,, मुखिया की तरफ देखकर बाबा बोले,,,


-- अब क्यों आये हो यहां पर? जब तुमने कांड किया तो किससे पूछकर किया? अब डर सताने लगा तो दौड़े आए। लेकिन याद रख तेरा भी वही हाल होगा जो तूने उसका किया था। बच नही पाएगा। 



(मुखिया अब और ज्यादा डर गया। बाबा ने उसके मन की बात जान ली और अपनी मौत के डर से मुखिया कांप उठा। हाथ जोड़कर वो बाबाजी के सामने गिड़गिड़ाने लगा। ) 


-- बाबाजी, भूल हो गई। कबीले के नियमो में बंधा हुआ था और मेरा उसे मारने का कोई इरादा नही था। मौत तो उसकी खुद के कारण हुई थी, लेकिन बाबाजी अब आप सच बताओ कि वो ही वापिस आई है या फिर कोई और कारण है? 


-- कोई दूसरा कारण नही है। वो खुद ही है। और वापिस कहाँ से आएगी। वो यहां से कभी गई ही नही थी। उसकी आत्मा हर वक्त तेरे आसपास ही घूमती रहती है। उसका शरीर उस दुनियां को छोड़कर गया था। तुझसे बदला लेने आई है। 


-- लेकिन बाबाजी अब मैं क्या करूँ?मैंने खुद के स्वार्थ के लिए कुछ नही किया था। वो सब समाज के नियमो के कारण हुआ। 


-- झूठ,,, मुझसे झूठ!! वो सब तुमने अपने स्वार्थ के कारण ही किया था। उस भोली भाली लड़की को तूने अपने स्वार्थ के लिए ही फंसाया था। अगर मुझसे झूठ बोलेगा तो अब तेरे बचने का कोई रास्ता भी नही होगा। अच्छा होगा कि सच बोल दे, शायद मैं तुम्हे बचाने का कोई उपाय कर सकूं।



(मुखिया अब नीचे देखने लगा था। क्योंकि बाबा ने उसका झूठ पकड़ लिया। ये सच ही था कि मुखिया ने खुद के लिए ही उस लड़की को अपने जाल में फंसाया था और उसके जिस्म का शोषण किया था। अपने बदन की ओएस बुझाने के लिए उसके बदन को नोचता रहा और जब उसकी कोशिशें असफल हो गई, वो खुद को मुखिया से बच नही पाई तो उसने मौत को चुन लिया था। अब मुखिया के पास सच बोलने के अलावा और कोई रास्ता नही था। करता भी क्या! सच तो बोलना ही था। मुखिया ने बाबाजी को सब सच सच बता दिया और खुद को बचाने की गुहार लगाने लगा। बाबाजी कुछ देर तक आंखे बंद किये हुए सोचने लगे। मुखिया बाबाजी की तरफ देख रहा था और मन मे दुआ कर रहा था कि किसी भी तरह से बाबा उसे बचा लें। वरना वो भूतनी उसे बेमौत मारेगी। बाबाजी ने आंखे खोली और कहा,,) 



--- देखो मुखिया,, तुमने बहुत गलत किया था। मैं भी नही चाहता कि तुम्हे बचाऊं, लेकिन तुम यहाँ आये हो तो मेरे इस दरवाजे पर आए हुए इंसान को मैं निराश होकर वापिस नही जाने देता हूँ। इसलिए मैं कोशिश करूंगा कि तुम्हे बचा सकुं। अभी मैं तुम्हे एक ताबीज बनाकर देता हूँ जिससे तुम उस आत्मा के प्रकोप से बचे रहोगे। इसके बदले में तुम्हे मुझे कुछ देना होगा। 



-- बाबाजी, आप जो मांगो वो मैं आपको देने के लिए तैयार हूं। आप निश्चिंत रहिए। मेरे जीवन की पूरी दौलत आपकी झोली में रख दूँगा। आप बस मुझे उस आत्मा से बचा लीजिए। 


--- तो सुनो, आज पहाड़ी की जिस जगह पर तुम्हारे आदमी पत्थर तोड़ रहे हैं उस जगह पर एक कीमती धातु निकलेगी। मुझे वो चाहिए। वो भी बिना किसी तोड़फोड़ के। मुझे अपनी साधना के लिए वो धातु चाहिए। अगर तुम वादा करते हो तो मैं तुम्हारे बचने का रास्ता निकाल सकता हूँ। 



-- ठीक है बाबाजी,, आप चिंता मत कीजिए। जो भी धातु निकलेगी और जितनी मात्रा में होगी वो सकुशल आपके पास पहुंच जाएगी। आप मेरे बचने का उपाय जल्दी कीजिए। 




-- ठीक है, अब तुम यहाँ सावधान होकर बैठ जाओ। मैं अभी एक छोटी सी पूजा करूँगा। उसके बाद मैं तुम्हे एक ताबीज बनाकर दूँगा जिससे वो आत्मा तुम्हारे पास नही आएगी। तुम बिल्कुल शांत होकर बैठे रहो। 


--- बाबाजी ने उस जलती हुई आग में कुछ डाला और आग की लपटें ऊपर उठने लगी। साथ ही वो कुछ मंत्र बड़बड़ाने लगे। आग से निकलता है सफेद धुंआ मुखिया के चारों तरफ गोल घेरा बनाने लगा। मुखिया कांप रहा था, लेकिन बाबाजी का आदेश था कि बिना किसी हरकत के शांत बैठे रहना है। इसलिए मुखिया शांत रहा। वो डर तो रहा था लेकिन कोशिश कर रहा था कि ऐसी कोई हरकत ना हो जिससे बाबाजी की पूजा में विघ्न पड़े।  बाबाजी अपनी पूजा में लीन थे। कुछ देर के बाद उन्होंने आंखे खोली और फिर मुखिया की तरफ देखकर बोले,,



--- मुखिया तुमने काम तो बहुत गलत किया था। लेकिन अब मैंने तुम्हारा यह काम हाथ मे लिया है तो फिर इसे ओर करूँगा ही। तुम उठो और इस अग्नि के चारों तरफ चार परिक्रमा करो। परिक्रमा के दौरान कुछ भी बोलना मत। अब चलो शुरू करो।



बाबाजी के कहे अनुसार मुखिया उस अग्नि के चारों तरफ घूमने लगा। उसका बदन कांप रहा था। मन मे देवांशी के भूत का डर अब और ज्यादा बढ़ चुका था। जिससे मुखिया के माथे से पसीना टपकने लगा था। अपने मन मे ईश्वर का स्मरण करते हुए मुखिया ने वो परिक्रमा पूरी की और बाबाजी के सामने आकर खड़ा हो गया। बाबाजी ने उसे इशारे से बैठाया और फिर अपनी आंखें बंद करके कुछ बड़बड़ाने लगे। कुछ देर के बाद बाबा ने आंखे खोली और उस आग में से थोड़ी राख हाथ मे लेकर उस पर फूंक मारने लगे। फिर एक कपड़े की छोटी कतरन में उसे राख को रखा और लपेटने लगे। उसके साथ कि एक और सख्त सी वस्तु रखी और आंखे बंद करके फिर से कुछ बुदबुदाए। फिर वो मुखिया तरफ बढाते हुए बोले,,,


-- यह लो,, यह ताबीज तो मैंने बना दिया है, लेकिन इसको पहनने के बाद भी ध्यान रखना होगा। सावधान रहना होगा। 



-- बाबाजी क्या सावधानी रखनी होगी वो भी बता दीजिए। ताकि मैं कोई गलती ना करूँ। आप जो नियम पालन बताओगे वो मैं करूँगा। 


-- ध्यान से सुनो। इस ताबीज को पहनने के बाद तुम्हे सावधान रहना होगा। कहीं भी बेवक्त जाने से बचना होगा। किसी की अंतिम यात्रा में जाकर वापिस आने पर इसे फिर से शुद्ध करके पहनना होगा। और किसी भी हाल में इसे खुद से अलग मत करना। याद रखना की इसे गले से उतारने के बाद इसकी शक्तियां तुम पर असर नही करेंगी। इसलिए इसे हमेशां पहने ही रखना।


--- बाबाजी, क्या मैं इसे सिल्वटी के समय पहन सकता हूँ या फिर उस समय कुछ अलग करना पड़ेगा? क्योंकि अगले सप्ताह दो शादियां है। और आपको पता है कि सिल्वटी के कारण मुझे वहां जाना भी होगा। 


क्रमशः




देवांशी द अनटोल्ड स्टोरी पार्ट 7


-- मुखिया को सबसे बड़ी चिंता यही थी की योय वो बाबाजी के इस ताबीज के बाद सिल्वटी मना पायेगा? क्योंकि वो तो औरत के जिस्म का शिकारी था और वो खुद यह नही चाहता था कि कबीले में सिल्वटी बन्द हो। पहले भी कई तरह के विरोध हुए थे लेकिन मुखिया ने किसी भी तरीके से उसे बड़ा लिया और जो थोड़ा निडर होकर विरोध कर रहा था उसे रास्ते से हटा दिया। बरसों में एक बार ऐसा हो गया तो फिर कोई और कई वर्षों तक विरोध करने का सोच भी नही पाता। मुखिया के तरीकों से सब लोग परिचित थे। इसलिए कोई अब उसके सामने बोलने की हिमाकत नही करता था। 

खैर मुखिया ने बाबाजी से अपने स्वार्थ के सवाल किया और कुछ सावधानियां बताते हुए बाबाजी ने मुखिया को सचेत करके वापिस घर भेज दिया। वापसी में मुखिया उस पहाड़ी के ऊपर से आया जहां आज पत्थर तोड़े जा रहे थे। जब मुखिया नजदीक आया तो देखा कि पत्थर तोड़ने वाले लोग एक जगज इकठ्ठा थे। सब आपस मे किसी महत्वपूर्ण चर्चा में थे। मुखिया जब नजदीक आया तो सब लोग इधर उधर खड़े हो गए। मुखिया ने देखा कि उन सब लोगों के बीच एक बड़ा सा पत्थर पड़ा था। जो चमक रहा था। और सभी कामगार उसी पत्थर के बारे में चर्चा कर रहे थे। मुखिया ने उस चमकीले पत्थर को देखा और हैरान हुआ! बाबाजी ने पहले ही कह दिया था कि जो कीमती चीज निकलेगी वो उसे देनी पड़ेगी और वो भी बिना काट छांट के। इसका मतलब की बाबाजी को पहले से पता था कि आज इस पहाड़ी से ऐसी कोई कीमती चीज निकलेगी! और अगर बाबाजी को यह पहले से पता था तो इसका मतलब यह हुआ कि बाबाजी अंतर्यामी हैं। उन्हें पहले से पता चल जाता है। मुखिया अब सोचने लगा कि अगर मैं अपना वादा निभा दूँ तो इस बाबाजी के जरिए मैं यहां बहुत कुछ कर सकता हूँ। अब तक तो बाबाजी को सिर्फ जानता था। लेकिन उनकी शक्ति से कभी परिचय नही हुआ था। आज पता चला है तो क्यों ना इसका फायदा उठाया जाए। आखिर हैं तो वो भी इंसान ही। दौलत का नशा सबसे बड़ा होता है। उन्हें लालच देकर उनकी शक्तियों का इस्तेमाल किया जा सकता है। 

मुखिया के खुरापाती माइंड में यह खुरापाती विचार आया। उसने दो आदमियों ने उस चमकीले पत्थर को उठाकर खुद के पीछे आने को कहा। पहाड़ी से पत्थर तोड़ने का काम कबीले के मर्द और औरतें ही करते थे। कुछ लोग जंगल से लकड़ियां लाने का काम करते थे और कुछ लोग जड़ी बूंटी लाते थे। हर तरह से सामान पर मुखिया का अधिकार होता था। काम और सामान के बदले मुखिया उन्हें मजदूरी की जगह पहनने को कपडे और खाने को अनाज देता था। कपड़े तो सिर्फ औरतों के लिए होते थे। मर्द तो हर मौसम में आधे कपड़ों में ही रहते थे। सर्दियों में तौलिए जैसा बड़ा कपड़ा पूरे बदन पर लपेटा जाता था और बाकी मौसम में सिर्फ कमर से नीचे तौलिया लपेटा जाता था। महिलाओं के लिए दो वस्त्र होते थे। एक छोटी चोली जैसा वस्त्र सीने को ढकता था तो दूसरा आधा लहंगा जो कमर से घुटने तक का शरीर ढकता था। औरतों की शादी विवाह के अवसर पर ज्यादा कपड़े पहनने को मिलते थे। बाकी दिनों में तो वही दो वस्त्र होते थे। 

गांव का हर घर और हर घर का हर सदस्य मुखिया के कन्ट्रोल में होता था। बस दस वर्ष के छोटे बच्चों को काम पर नही भेजा जाता था। वो भी अगर घर का कोई सदस्य बीमार होता या फिर किसी काम से कबीले से बाहर जाना पड़ता तो पांच सात वर्ष के बच्चे को भी उसकी जगह काम पर जाना पड़ता था। नियमों का पालन हर हाल में करना ही होता था। अगर कोई भी घर नियम को तोड़ता तो उसे हर्जाना भरना पड़ता था। और कभी कभी वो हर्जाना इतना बड़ा होता कि उस घर को कई दिनों तक भूखे रहना पड़ता। तब वो लोग किसी की इंसानियत पर निर्भर रहते, जो कि कबीले में ना के बराबर थी। 

खैर मुखिया आगे आगे जंगल मे फिर से बाबाजी की उस गुफा की तरफ जाने लगा और दो आदमी उस पत्थर को उसके पीछे पीछे ढोकर ले जा रहे थे। शाम हो चुकी थी और सूरज ढल रहा था। उस गुफा से कुछ दूर पर मुखिया रुक गया। उसने अपने आदमियों से उस चमकीले पत्थर को रखने का कहा और उन्हें वापिस भेज दिया। उस जंगल मे बाबाजी की गुफा को कोई नही जानता था। यह जरूर पता था कि इस जंगल मे कोई बाबा रहते हैं और सिद्ध साधक हैं। लेकिन वो किस जगज पर रहते हैं इसका किसी को पता नही था। सिर्फ मुखिया ही उस जगह को जानता था। वो दोनो आदमी आपस मे हैरानी लिए हुए मुखिया के इस वक्त उस जगह पर जाने की चर्चा करते हुए अपने घर की तरफ निकले। उधर मुखिया ने उस पत्थर को उठाया और बाबाजी की गुफा की तरफ चला। गुफा के  पास पहुंचकर मुखिया ने चारों तरफ गौर से देखा कि कहीं आसपास कोई मजदूर तो नही है! इत्मीनान से देखने के बाद वो गुफा के अंदर घुस गया।

गुफा के अंदर बाबाजी अपने आसन पर बैठे थे और वो अपनी साधना में लीन थे। मुखिया ने वो पत्थर बाबाजी के सामने रखा और हांफते हुए अपनी सांसे स्थिर करने लगा।  मुखीया के बिना कुछ बोले ही झटके से बाबाजी ने आंखे खोली और उस पत्थर को देखने लगे। बाबाजी के चेहरे पर एक चमक थी। होठों पर मुस्कान और आंखों में खुशी दिखाई दे रही थी। उस पत्थर को देखते ही खुश जोकर खड़े हुए और नजदीक आकर उसको ध्यान से देखने लगे।  उस पत्थर को देखते हुए बाबाजी को हर पल ज्यादा खुशी होने लगी। बाबाजी को खुश देखकर मुखिया भी समझ गया कि उसकी इस भेंट से बाबाजी खुश हैं और अब उसका काम आसान हो जाएगा। 

कुछ देर ति देखने के बाद बाबाजी ने मुखिया से कहा,,



-- वाह मुखिया जी,,, क्या बात है आपने तो कमाल कर दिया! इतनी जल्दी मुझे यह सौंपकर तुमने अपना वादा निभा दिया। मालूम होता है कि तुम भरोसे के काबिल हो। 



-- जी बाबाजी, मैंने अपना वादा निभाने की कोशिश की है। अब मुझे नही पता कि यह वस्तु आपके लिए उपयोगी है या नही है। लेकिन हां मुझे यह अब तक मिली सभी वस्तुओं में से अनोखी लगी तो सोचा कि शायद यही तो चीज है जिसके बारे में आज दोपहर को आपने मुझसे कहा था। इसलिए बिना विलंब किए मैंने यह आपके दरवाजे तक पहुंचा दिया है। अब आप जानो की यह क्या है और आप इसका उपयोग कैसे करोगे। 



-- मुखिया,, यही तो वो चीज है जिसका जिक्र मैंने तुमसे किया था। अब तो मैं इस दुनियां का सबसे शक्तिशाली बन जाऊंगा। बरसों से मैं इसी की तलाश में था और दिनरात इसी के लिए तपस्या कर रहा था। आज जाकर मेरी प्रार्थना ईश्वर ने तुम्हारे जरिए सुनी है। अब मैं तुम्हे उस आत्म के भय से बचा लूंगा। या यूं कहूँ की उस आत्मा को ही कैद कर लूंगा। अब मैं किसी से रुकने वाला नही हूँ। हहहहहह,,, तुमने मेरे बहुत बड़ा काम किया है। अब तुम्हे किसी से डरने की आवश्यकता नही है। 



--- बाबाजी, मुझे और कुछ नही चाहिए, बस आप उस आत्मा को मुझसे दूर रखिए। मैं आपकी सेवा में हर वक्त हाजिर हूँ। आप बस मेरा इतना सा काम कर दीजिए। 


-- चिंता मत करो मुखिया। तुम्हारा हर काम हो जाएगा। अब तुम अपने घर जाओ। आज की रात मुझे और ज्यादा कठिन तप करना होगा। ताकि मेरी सिद्धि में कोई बाधा ना आये। आज की रात,, बस उसके बाद तुम्हारी और मेरी हर इच्छा पलभर में ही दूर हो जाएगी। अब तुम जाओ। 



--- बाबा ने मुखिया को यह कहकर बाहर भेज दिया। मुखिया अपने घर की तरफ चलने लगा। सूरज डूब चुका था। अंधेरा बढ़ रहा था और मुखिया खुशी खुशी अपने घर की तरफ जा रहा था। उसके मन मे बहुत खुशी थी। गुनगुनाता हुआ वो कदम आगे बढ़ा रहा था कि अचानक से उसे पहाड़ी के ऊपर से वही बड़ा सा काला साया नजर आया। मुखिया ने देखा तो चौंका। वो खड़ा रहा और उसे देखता रहा। मन से वो मजबूत हुआ कि उसके पास बाबाजी का ताबीज है। हाथ मे लिए हुए उस ताबीज को सामने करके मुखिया ने उस साये की तरफ देखा, लेकिन वो साया हर पल बड़ा होता गया। अचानक से मुखिया ने देखा कि एक लड़की पूरे कपड़ों में उस पहाड़ी से मुखिया की तरफ आती हुई दिखाई दी। अब वो डरने लगा। मुखिया के बढ़ते कदम अब रुक गए और वो लड़की उसकी तरफ लगातार बढ़ती रही। कुछ ही देर में वो लड़की मुखिया के सामने थी। अपने हाथ मे बाबाजी का दिया हुआ वो ताबीज कसकर अपनी मुठी में पकड़े हुए मुखिया खुद को मज़बूत तो बना रहा था, लेकिन उसके हाथ पैर कांप रहे थे। उसने नजर उठाकर उस लड़की की तरफ देखा। अंधेरे में उस लड़की का चेहरा अब साफ दिखाई दिया। जैसे कि उसके चेहरे और कोई तेज हो। मुखिया ने देखा और वो पहचान गया। हाँ,, वो देवांशी ही थी!!


क्रमशः

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देवांशी
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पहाड़ी आदिवासी कबीले की एक प्रथा सिल्वटी के कारण काबिले की महिलाओं पर हो रहे अन्याय और शारीरिक शोषण के खिलाफ एक नाबालिग विवाहिता ने आवाज उठाई तो कबीले के मुखिया ने उसे उसके परिवार सहित दफना दिया। देवांशी की आत्मा को शांति नही मिली और वो भूतनी बनकर आ गई कबीले में,,,

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