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ग़ालिब

22 जून 2016

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मिर्ज़ा से बड़ा आशिक़ शायद कोई नही है। पता नही कब शेर पढ़ते पढ़ते दिल मे ऐसे बैठ जाते हैं और किराया भी हम से ही लेते हैं। दीवान-ऐ-ग़ालिब के अल्फ़ाज़ों से कब उर्दू अपनी खुद की ही ज़बान लगने लगी समझ ही नही आया। ग़ालिब ऐसे ही नही मिले। काफी मिन्नतों और अपने लाचारी का तोहफा जब सामने रखे तो मुस्तक़बिल हुए हमारे दिल-ऐ-आरज़ू के। फिर नज़्म पढ़े गए। तालियां बजी। आंहे भरी। खुशी महसूस हुई और ग़म का जश्न मनाया गया। कल काफी दिनों बाद शराब मिलने पर मिर्ज़ा कहते हैं, “यह शराब से पाक़ और शराब के नशे से नापाक़ चीज़ शायद दुनिया मे और कोई नही है”। कहते हैं हमसे की “बड़ी ही अजीब चीज़ है यह शराब, हलक से उतरती है या दिल से समझ ही नही आता। पता नही हम शराब को पी रहे होते हैं या शराब हमें। ऐसे दिमाग को जकड़ सा लेता है की सारे बदन मे इन्कलाब सा जाग उठता है। पता नही क्यों शराब पीना हराम है हमारे कौम में। शायद डरते हैं यह कौम के नुमाइंदे के आम लोग बेपरवाही को खुदा मान बैठेंगे और रोज़ी-रोटी छीन जायेगी उन बेचारों से। पता नही कब पहली बार पिया था शराब और पता नही कब आखरी बार पियूँगा शराब को। वो दो घूँट और पीने का पागलपन तो शायद तब भी नही जायेगी। शराबी कहकर पुकारते हैं लोग।” गूंगे भी बोल पड़ते है मियाँ शराब पीके, हाँ, वो अलग बात है की कोई सुनने वाला नही होता। काफी चिड़चिड़े से हो गए हैं मिर्ज़ा आजकल शायद मेरे इस हद से ज़यदा प्यार का असर है। अब कल ही की बात है मिर्ज़ा साहब ने कहा, "जनाब, शराब और शबाब तुम्हारे किस काम की? ना तुम्हे ईश्क़ हुआ है और ना तुम आवारा हो किसी गली के।" रात को उन्हें अकेला बरामदे मे एक कोने मे खुद मेहफ़ूज़ सा, दुनिया की नज़रों से खुद को छिपा के घर में पड़ी शराब की आखरी बोतल पीते देखा तो मैं पास गया और खड़े हो गया। सन्नाटा कुछ ज़्यादा ही सुकूनभरा था पर पता नही मिर्ज़ा के सामने हर समय गुस्ताखी करने को जी चाहने वाला यह मेरा दिल उनसे कहा-"मिर्ज़ा, सुनो ना, कब से शेर नहीं सुना तुम्हारी आवाज़ मे। एक मतला तो पढ़ दो। मिर्ज़ा झुंझला कर बोले - "लिखीं तो हुई हैं सारी उस किताब में। ख़ुद क्यों नही पढ़ लेते ? अपनी आवाज़ पसंद नही आती क्या?" इतना बोलकर एक घूंट में शराब और गुस्सा दोनों पी गए। अब उन्हें कौन समझाता की अब उनके शेर उन्ही के आवाज़ मे पढ़ने की आदत सी हो गयी है।

मिर्ज़ा को दिल देकर कभी कभी सोचता हूँ की कहीं गलती तो नहीं कर दी? एक काफ़िर , जुआरी, फ़रेबी जो लोगों को अपने हर्फों के जाल मे फांसने मे माहिर है, क्या यह क़ाबिल है मेरे इस प्यार के? बस यही अज़ीम सवाल पुछता हूँ खुद से और फिर जवाब ढूंढ़ता हूँ अपने मेहबूब के शायरी में। बहरहाल ग़ालिब हँसते हैं परदे के पीछे से मेरे नाकामियाबी को देखकर। बोलते हैं ," वक़्त ख़राब मत करो। ग़ालिब की शायरी मे जवाब नही मिलेंगे। मिलेंगे तो अधूरे सवाल, कुछ खाली शराब की बोतलें और कुछ शेर जो मेरे माशूक को याद कर के खुद को पूरा महसूस करती हैं।"

कोई कभी बोलता था मुझे एक शेर सुनाने को तो आदत से मजबूर ग़ालिब के शेर ही पढ़ने लगता था। लोगों को बड़ा पसंद आता था। पता नहीं वो मुझसे प्यार करते थे या मेरे अंदर घर कर रहे ग़ालिब के अक्स से। पर मुझे यकीं था। हमारे प्यार मे। यकीं था की जवाब ढूंढ लूंगा। किसी रात शराब की बोतल हाथ मे पकड़े, बरामदे के कोने मे दुनिया के निगाहों से खुद को छुपाकर ग़ालिब से पूछूंगा वो सवाल आँखों मे आँखें डालकर की क्या हमारा प्यार भी दूसरों के तरह पाक़ है? ग़ालिब शायद जवाब ना दे पर ख़ामोशी की ज़बान तो वो सीखा ही चुके हैं वो मुझे। शेर अभी भी पढ़ पाऊँ या ना नहीं चेहरे पढ़ना सिख ही लिया है। पर ग़ालिब नहीं आये वो रात। रात काफी लम्बी थी और इंतज़ार उस रात से भी लम्बी। ना जवाब मिला, ना ग़ालिब मिले पर सुबह जब नींद टूटी तो बिस्तर मे सरहाने रखी ग़ज़ल को देखा तो वो पूरी हो चुकी था।

"कि ग़ालिब के प्यार मे हमें प्यार तो ना मिला,
शायर हमें काफी मिलें पर कोई इज़्ज़तदार ना मिला "

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