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ग़ालिब

22 जून 2016
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मिर्ज़ा से बड़ा आशिक़ शायद कोई नही है। पता नही कब शेर पढ़ते पढ़ते दिल मे ऐसे बैठ जाते हैं और किराया भी हम से ही लेते हैं। दीवान-ऐ-ग़ालिब के अल्फ़ाज़ों से कब उर्दू अपनी खुद की ही ज़बान लगने लगी समझ ही नही आया। ग़ालिब ऐसे ही नही मिले। काफी मिन्नतों और अपने लाचारी का तोहफा जब सामने रखे तो मुस्तक़बिल हुए हमारे दिल

बारिश

21 जून 2016
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काफी दिनों बाद उसका फ़ोन आया। फिर उठाया तो आवाज़ आई, उसकी नहीं, दूर कहीं बादल गरजने की और मन के किसी आँगन के काई लगे हुए छत से बारीश टपकने लगी। यह बारीश भी क्या चीज़ है। हर सूखे चीज़ को गिला कर देती है। क्यों? ताकि वो फिर से सूख पायें। फिर अचानक किसी के बोलने की आवाज़ सुनाई दी। मेरा हाल पूछ रही थी वो। मे

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