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गुलाब की सूखी पँखुड़ी

12 नवम्बर 2021

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वसन्त का सुहाना मौसम था। दोपहर के करीब दो बज चुके थे। सूर्य की लालिमा चारों ओर बिखरी हुई थी।  ठंडी हवाएँ अपने साथ
हल्की-सी धूल की चादर उड़ाए इठलाती हुई न जाने कहाँ सरपट दौड़ी चली जा रही थी। पँछी मीठे स्वरों में मन मोह लेने वाला मादक
संगीत सुना रहे थे। सच में! कितना सुंदर और सुकूनदायक लग रहा था यह सब। लेकिन पँखुड़ी न जाने कब से खिड़की के पास बैठी उस
नन्हीं चिड़िया को देखे जा रही थी, जो एक काँटेदार झाड़ी में जा फँसी थी और न जाने कब से खुद को छुड़ाने की कोशिश में छटपटा रही
थी। पँखुड़ी से उसका यह दर्द ज़रा भी नहीं देखा जा रहा था। उस चिड़िया को देखकर वह ऐसे तड़प रही थी मानो चिड़िया नहीं खुद पँखुड़ी
उन काँटों में कैद हो। देखते-ही-देखते वह मासूम चिड़िया काँटों से छूटकर उड़ गई। यह देख पँखुड़ी के चेहरे पर एक हल्की-सी मुस्कान
खिली। लेकिन वह अगले ही पल मायूस हो गयी और मन-ही-मन सोचने लगी कि "काश मैं भी उस नन्हीं चिड़िया की तरह उड़कर वक़्त
रहते खुद को उन नुकीले काँटों से बचा पाती, जो बहुत बुरी तरह हृदय और आत्मा तक को चोटिल कर जाते हैं।"
पँखुड़ी आज सुबह ही अपने इस नए घर में आई थी। क्योंकि वो अपनी पिछली ज़िन्दगी को रेत की तरह उड़ा कर कहीं दूर छोड़ आना
चाहती थी। हाँलाकि वह अब पूरी तरह टूट चुकी थी। मगर फिर भी अभी उसमें एक चाह बाकी थी। चाह एक नई ज़िन्दगी जीने की, एक नए
सिरे से। बस उसे उम्मीद की उस एक किरण को ढूँढना था जो उसकी मंज़िल तक जाती हो।
अक्सर पँखुड़ी जब अकेली होती अकेली होती, तो पुराने नग्में गुनगुनाया करती थी। आज भी उसके नाज़ुक होठों से एक नग़मा फूट रहा
था। 
 
                 "हम भूल गए रे हर बात,,
                  मगर तेरा प्यार नहीं भूले...
                  क्या-क्या हुआ दिल के साथ,,
                  मगर तेरा प्यार नहीं भूले..."
 
लेकिन न जाने क्यों आज उसकी आवाज़ में हर रोज़ की तरह खुशी की झलज न थी। बल्कि एक बुझा हुआ दर्द हृदय में उतरता प्रतीत हो
रहा था। उसके अतीत की यादें यहाँ भी साये की तरह उसका पीछा कर रही थी। मानो वह उससे कह रही हों-"पँखुड़ी! आखिर तुम इतनी
जल्दी हार कैसे मान सकती हो?"
अचानक वह गाते-गाते रुक गई। आँखें खोली तो देखा कि दरवाज़े पर एक मुस्कुराता हुआ शक़्स न जाने कब से उसे गाते सुन रहा था।
"तुम कौन?"-पँखुड़ी ने बड़े-ही आश्चर्य से पूछा।
इसपर उस शक़्स ने जवाब दिया-"मैं स्पर्श हूँ, तुम्हारा पड़ोसी! क्षमा करना तुम्हें परेशान करने के लिए। वैसे! क्या तुम पुराने नग्में
सुनती हो?"
"तुम्हें कोई तकलीफ़?"-पँखुड़ी ने बड़ी-ही बेरुखी से जवाब दिया।
"जी तकलीफ? बिल्कुल भी नहीं। दरअसल मुझे भी पुराने नग्में अत्यंत प्रिय हैं। वैसे! तुम्हारी आवाज़ में काफ़ी दर्द झलक रहा था।
क्या तुम उदास हो? स्पर्श ने बड़ी-ही विनम्रतापूर्वक पूछा।
"तुमसे मतलब?"-उसने फिर उसी रूखेपन में कहा।
"अच्छा! अगर कोई मदद की ज़रूरत पड़े तो बेझिझक कहना। इतना कहकर वह वहाँ से चला गया।
 देखते-ही-देखते कुछ वक़्त बीत गया। शाम हो चुकी थी। आसमान पर संतरी चादर बिछी हुई थी। पँछी लौटकर अपने घर जा रहे थे। सूर्य
धीरे-धीरे कहीं दूर ओझल होता प्रतीत रहा था। इमारत के बाहर बच्चे खेलते दिख रहे थे। धीमी-धीमी हवाएँ चल रही थी। यह सब कितना
लुभावना लग रहा था। मगर पँखुड़ी अब भी उदास लग रही थी। उसे अब अपने किये और पछतावा हो रहा था। वह बार-बार यही सोच रही
थी कि उसे स्पर्श के साथ ऐसा रूखा बर्ताव नहीं करना चाहिए। उस बेचारे की तो कोई गलती भी नहीं थी। उसे स्पर्श से माफ़ी माँग लेनी
चाहिए, शायद वह उसे माफ़ भी कर दे। ऐसा सोचकर वह कविताएँ लिखने बैठ गई। आज कितने लंबे वक़्त बाद उसने अपनी कलम पकड़ी
थी।  ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो कलम उससे कहा रही हो "मैंने तुम्हें बहुत याद किया पँखुड़ी।" पँखुड़ी भी उसे ऐसे देख रही थी जैसे अब
बोल पड़ेगी "तुम्हारे अलावा आखिर मेरा है ही कौन इस बेरहम दुनियाँ में।" वह अभी अपने ख़्यालों में ही डूबी हुई थीं कि अचानक दरवाज़े
पर दस्तक हुई। उसने अपनी नज़रें उठाई तो देखा कि स्पर्श वहाँ खड़ा था। 
"क्या मैं अंदर आ सकता हूँ?"-उसने मुस्कुराते हुए पूछा।
"हाँ! आओ न।"-पँखुड़ी ने बड़े ही मीठे स्वर में उसे जवाब दिया।
इस वक़्त उसके चेहरे पर तनिक भी आक्रोश के भाव न थे, थी तो बस एक हल्की-सी मुस्कान। 
"कमाल है! उस वक़्त तो तुम बड़े गुस्से में थी और अब इतनी इज़्ज़त?" उसने बड़ी-ही शरारत भरी निगाहों से पँखुड़ी की ओर देखते हुए
पूछा। "वैसे! मैं तुमसे माफ़ी माँगने आया था। मुझे यूँ बिना बताये तुम्हें नहीं सुनना चाहिए था।" उसने फिर उतनी ही विनम्रता से कहा। 
"नहीं-नहीं! तुम मुझे शर्मिंदा क्यों कर रहे हो? माफ़ी तो मुझे तुमसे माँगनी चाहिए। मुझे माफ़ कर दो मेरी बत्तमीजी के लिए। दरअसल
उस वक़्त मैं थोड़ी उदास थी। और मुझे अजनबियों से घुलना-मिलना पसन्द नहीं। इसलिए मैंने अपना सारा गुस्सा तुम पर उतार दिया। मैं
बहुत शर्मिंदा हूँ अपने बर्ताव के लिए।" पँखुड़ी ने स्पर्श से कहा।
"अरे! कोई बात नहीं, तुम्हें माफ़ी माँगने की कोई ज़रूरत नहीं है।" स्पर्श ने उससे मीठे स्वरों में कहा।
"तुम खड़े क्यों हो? बैठो न।" पँखुड़ी ने बड़ी मधुरता से कहा।
"स्पर्श उसे एकटक देखने लगा फिर एक कुर्सी पे बैठ गया। पँखुड़ी भी वहीं उसकी बगल वाली कुर्सी पर बैठ गयी।
"वैसे तुमने अपने बारे में कुछ नहीं बताया?"-स्पर्श ने मुस्कुराती नज़रों से उसकी ओर देखते हुए पूछा।
"वो जो गमले की सबसे ऊँची टहनी पर एक सूखा हुआ गुलाब दिख रहा है न।" पँखुड़ी ने बालकनी की ओर इशारा करते हुए कहा। "बस यूँ
समझ लो वही हूँ मैं, गुलाब की सूखी पँखुड़ी। जिसे ऊँचाई छूने की सज़ा मिली है।" इतना कहकर वह खामोश हो गयी।
"मगर बगल वाली टहनी पर भी तो कल एक गुलाब खिलेगा न?" स्पर्श ने बड़ी-ही मधुरता से कहा।
"खिलेगा मगर, वो पहली टहनी जितना ऊँचा नहीं होगा।" पँखुड़ी ने उदासी के भाव छलकाते हुए कहा।
"और अगर हुआ तो?" स्पर्श ने उसकी आँखों में झाँकते हुए पूछा।
पँखुड़ी खामोश थी। स्पर्श की नज़र अचानक मेज़ पर पड़ी कविताओं कॉपी पर गयी। उसने बात बदलते हुए कहा-"अरे वाह! तुम लिखती
भी हो?"
"हाँ! कभी-कभी जब दिल करे।" उसने उसी दर्द के भाव में जवाब दिया।
"तो फिर मुझे कुछ सुनाओ। देखो! मना मत करना। बस यूँ समझ लो ये माफी की छोटी-सी कीमत है।" स्पर्श ने आग्रह करते हुए कहा।
उसके इतना ज़िद करने पर पँखुड़ी उसे मना नहीं कर कर पायी। उसने कहा-"ठीक है" और वो वह कविता स्पर्श को सुनाने लगी जो उसने
अंतिम बार लिखी थी।
सुनो मैं सुनाऊँ तुम्हें, जिन्दगी की ये दास्ताँ पुरानी।
जब कोई वजूद ना हो जीने का, तब ये जिंदगी लगती है बेगानी।
थी मैं कभी ज़रूरत सबकी, रहती थी दिल के पास।
हुई खत्म वो आज ज़रुरतें, तो नहीं रही अब मैं किसी की खास।
चन्द दोस्त चुने थे मैंने, जिन्दगी हँस कर बिताने को।
पता ना था वो भी साथ छोड़ देंगे, यूँ आज़मा कर सताने को।
सोचा तो ये था उनके लिए, कि वो पराय ना होंगे मेरे।
परखा तब जाना मैंने ये, कोई अपने ना हो सकेंगे मेरे।
जब जिन्दगी हो खफा, तब अखियों से छलकता है पानी।
सुनो मैं सुनाऊँ तुम्हें, ये इक दास्तान पुरानी।
इतना कहकर वह फूट-फूट कर रोने लगी। ऐसा लग रहा था मानो उसके सीने में दफ़्न किसी दर्द पर फिर लहू दमक रहा हो और वह पीड़ा
आँसू बनकर उसकी आँखों से धराधर टपकने लगा हो। स्पर्श उसे सम्भाल ही रहा था कि उसकी नज़र पँखुड़ी की डायरी पर पड़ी। वह
जानना चाहता था कि उस लडक़ी के साथ आखिर ऐसा क्या हुआ कि वह बेचारी इस कदर टूट चुकी है। मगर पँखुड़ी की ऐसी हालत
देखकर उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी यह सब पूछने की। इसलिए यह अवसर को न गँवाते हुए उसने वह डायरी अपने पास छिपा ली और
फिर पँखुड़ी को संभालने लगा। जब वह शांत जो गई तो "अच्छा! अब मैं चलता हूँ" ऐसा कहकर स्पर्श वहाँ से चला गया।
 पँखुड़ी अब भी उदास बैठी थी। उसे मिहिर के किए झूठे वादे और नयन के दिए धोखे याद आ रहे थे। वह अपने ख्यालों में इस कदर डूबी
हुई थी कि उसे पता ही नहीं चला कि वक़्त कितनी तेज़ी से बीत गया। हर तरफ सिर्फ़ दर्द का सन्नाटा पसरा हुआ था। वहाँ कोई नहीं था
सिवाय पँखुड़ी के। एक हवा के झोंके से खिड़की का पल्ला दीवार से टकराया और पँखुड़ी अपने ख्यालों के भँवर से बाहर आ गयी। उसने
खिड़की से बाहर झाँका तो देखा कि रात हो चुकी है। गहरे नीले रंग के आकाश में सितारों का सुंदर-सा जगमगाता हुआ आँचल फैला है।
हल्की ठंडी-ठंडी हवाएँ चल रही थी और चाँद बड़ी-ही सुंदरता के साथ एक कोने में खड़ा मुस्कुरा रहा था। जिसे कुछ बादल अपनी धुंध में
कैद करने की कोशिश कर रहे थे। मगर हवा थी जो चाँद के साथ खड़ी थी और बादलों को दूर उड़ाए जा रही थी। कितना सुंदर लग रहा था
यह सब। पँखुड़ी उस चाँद के दृश्य में अपनी कहानी तलाशने लगी कि काश एक हवा मेरे साथ भी खड़ी होती जो मेरे जीवन के तूफानों को
कहीं दूर उड़ा ले जाती। एक बार फिर वो दर्द के समंदर में पहुँच गयी। इसी वजह से उसने खाना भी नहीं खाया और ऐसे ही सोने चली
गयी। नींद तो आ नहीं रही थी बस करवटों के भरोसे रात काटनी थी। इधर स्पर्श खाना खाकर पँखुड़ी की वह डायरी पढ़ने में लग गया।
पहले पन्ने पर सुंदर से गुलाब का चित्र बना हुआ था। उसने अगला पन्ना पलटा तो उसमें लिखा था:
मैं पँखुड़ी! गुलाब की पँखुड़ी। अपनी अच्छाई की खुशबू से सबके जीवन में दर्द के निशानों को  मिटाने की कोशिश की चाह में जीने वाली
एक लड़की। सबका मन मोह लेने वाली परवाह का एक अनूठा पुतला। आँखों में हज़ारों सतरंगी सपने लिए आसमान छूने की आकांक्षा
का गहरा समंदर। यूँ तो मैं हर किसी को जल्द-ही अपना बना लेती हूँ मगर, मेरे जीवन में दो शक़्स की खुशी सबसे ज़्यादा अहमियत रखती
है। एक मेरे जीवन का प्रेम और दूसरा प्रेम के समान मित्रता नाम का अनूठा बन्धन। मिहिर और नयन मेरे बचपन के दोस्त हैं। मेरे लिए
गीतकार बनना मेरे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य था। यह वह सपना था जो मैं सदियों से देखती आ रही थीं और इसको सच करने
के लिए बहुत कुछ झेला था मैंने। 
इसके बाद सपर्श ने अगला पन्ना पलटा तो उसमें गुलाब का एक सूखा हुआ फूल रखा था। उसने पढ़ना शुरू किया:
मैंने अख़बार में इश्तिहार देखा और एक रचना लिखकर मिहिर को दे दी यह कहकर की वह उसे डाक-डिब्बे में डाल आये। नयन को भी
थोड़ा बहुत लिखने का शौक़ था। जब अख़बार में मैंने उस इश्तिहार का परिणाम देखा तो मैं बेसुध सी वहीं खड़ी रह गयी। आँखों में दर्द का
समंदर छिपता नज़र आ रहा था। मेरी जगह नयन का नाम था मेरी रचना के साथ। मैं सीधे नयन और मिहिर से बात करने चली गई। मैं कमरे
में घुसती इससे पहले उनकी बातें सुनकर मेरे कदम वहीं रुक गए। नयन और मिहिर एक दूसरे से प्यार करते थे और वह मेरा बस इस्तेमाल
कर रहे थे अपने फायदे के लिए। मेरे अंदर अब इतनी हिम्मत नहीं थी कि जाकर उनसे कुछ सवाल कर सकूँ। मैं वह शहर छोड़कर अतीत
को पीछे छोड़ एक नई शुरुआत की तलाश में निकल पड़ी। जिसमें कुछ नहीं है सिवाय दर्द के। न वह गुलाब की खुशबू, न किसी की
परवाह, न प्यार या दोस्ती के लिए कोई जगह। अब यह गुलाब की पँखुड़ी सुख चुकी है, हमेशा के लिए। अब यह पँखुड़ी कभी नहीं
खिलेगी।
स्पर्श ने डायरी बन्द कर दी। उसकी आँखों से पँखुड़ी के लिए दर्द छलकने लगा।
 रात के एक बज रहे थे। पँखुड़ी को नींद नहीं आ रही थी तो वह बालकनी में टहलने चली गयी। मगर उसने देखा कि स्पर्श वहाँ पहले से ही
खड़ा है और उसके हाथ में पँखुड़ी की डायरी थी। 
"यह तो शायद मेरी डायरी है। मगर, यह तुम्हारे पास कैसे आयी?"-पँखुड़ी ने बड़ी-ही अचरजता के भाव से पूछा।
"माफ करना मगर... वह मैंने चुरा ली थी। दरअसल... मुझे जानना था कि तुम इतनी उदास क्यों हो मगर तुम्हारी हालत देख कर तुमसे
पूछने की हिम्मत नहीं थीं मुझमें।" स्पर्श ने नज़रें झुका कर कहा।
"जान लिया न।" -पँखुड़ी ने आक्रोश के भाव जताते हुए कहा।
पँखुड़ी इससे आगे कुछ कह पाती कि उसे यह अहसास हुआ कि उसकी डायरी में कुछ रखा हुआ है। उसने डायरी का एक पन्ना पलट कर
देखा, तो! उसमें उसका वह सूखा हुआ गुलाब नहीं था। उसकी जगह एक ताज़ा खिला हुआ सुंदर-सा गुलाब रखा हुआ था, जैसा कभीउसे
पसन्द था। वह ख़ामोश हो गयी। स्पर्श उसे एकटक बड़ी-ही हैरानी से देखे जा रहा था। स्पर्श ने पँखुड़ी को गुलाब के पौधे की ओर देखने
का इशारा किया। पँखुड़ी कुछ समझ पाती उससे पहले ही वह पौधे के पास गया और उस सूखी टहनी को तोड़ने लगा जिसे आज शाम को
पँखुड़ी ने अपनी ज़िंदगी का उदाहरण बतलाया था। 
पँखुड़ी ने पूछा- "यह तुम क्या कर रहे हो?"
स्पर्श ने कहा-"तुमने कहा था न कि यह टहनी इतनी ऊँची है कि तुम दोबारा इतनी ऊँचाई नहीं छू सकती? तो नयी मंज़िल तक पहुँचने के
बाद अगर वह मंज़िल पिछली मंज़िल जितनी ऊँची न हो तो पिछली सूखी डाली को एक अतीत का सूखा पत्ता समझकर अपने जीवन की
टहनी से तोड़ दो। तुम खुद-ब-खुद ऊँचाई पर पहुँच जाओगी।"
स्पर्श बातों में इतना गुम हो गया कि उसका ध्यान उस टहनी से हटकर पँखुड़ी पर चला गया और उसे अनायास ही गुलाब का एक काँटा
चुभ गया। पँखुड़ी ने तुरंत उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया लिया और स्पर्श पर नाराज़ होते हुए अपनी धुन में बड़बड़ाती हुई उसकी चोट
पर दुपट्टे का एक टुकड़ा बाँधने लगी। 
"तुम्हें देख कर काम करना चाहिये था ना! क्या ज़रूरत थी उस टहनी को तोड़ने की? तुम मुझे ऐसे भी समझा सकते थे न।"
स्पर्श उसे चुपचाप देखे जा रहा था। कि अचानक उसके मुँह से निकल पड़ा-"एक अजनबी की इतनी फिक्र क्यों हो रही है तुम्हें? तुमने
तो कहा था कि तुम अजनबियों से घुलना-मिलना पसन्द नहीं करती?"
"हाँ! मगर,  मैंने वह अजनबियों के लिए कहा था।" पँखुड़ी ने बिना उसकी तऱफ देखे पट्टी बाँधते हुए कहा।
"तो फिर मैं कौन हूँ?"-स्पर्श ने पँखुड़ी की आँखों में झाँक कर जवाब की उत्सुकता जताते हुए पूछा।
पँखुड़ी कुछ देर ख़ामोश रही। फिर उसने नज़रें चुराते हुए कहा-"हमसफ़र।"
स्पर्श उसे एकटक देखे जा रहा था। फिर उसने पँखुड़ी का हाथ अपने हाथ में थाम लिया। वह गुलाब की सूखी पँखुड़ी स्पर्श के स्पर्श से
एक बार फिर खिल उठी। उम्मीद की जिस किरण की उसे तलाश थी वह उसे मिल चुकी थी। गुलाब की उस सूखी पँखुड़ी ने अपनी महकती
हुई मंज़िल को पा लिया था।
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रचनाएँ
गुलाब की सूखी पँखुड़ी
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यह कहानी एक ऐसी लड़की की है जिसका प्यार में मिले धोखे की वजह से इससे विश्वास उठ चुका है। उसे प्यार शब्द से भी नफ़रत है। अब उसे सिर्फ जीने की एक वजह तलाशनी है। वो वजह, वो मंज़िल उसे कैसे मिली जानने के लियर कहानी को अंत तक पढ़ें।

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