ग़ुलाब
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ग़ुलाब तो है बगिया की शोभा,
डाली में खिलकर मुस्काए...
सुंदर चटकीला रंग इसका,
सबके मन को भाए...
प्रेम का प्रतीक है गुलाब,
डाली से टूट कर मुरझा जाए...
मत तोड़ो इसे, टूटकर भला कैसे जी पाए?
एक ग़ुलाब के लिये, एक गुलाब को तोड़कर,
कोई कैसे भला सुख पाए?
प्रेम शाश्वत है,
प्रेम में तोड़ना नहीं...
जोड़ना ही सार्थकता है!
गूढ़ रहस्य जो ये ना समझे,
उस मिथ्या प्रेम का अस्तित्व भी...
क्षण भर में समाप्त हो जाए!
अनिता सिंह
देवघर, झारखण्ड।