नई दिल्ली. यूपी के इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में सरकारी कर्मचारियों, नेताओं और जजों के लिए अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने का आदेश दिया है। इस फैसले के बाद एक बार फिर सरकारी स्कूलों की बदहाली और शिक्षा प्रणाली के स्तर पर बहस छिड़ गई है। शिक्षा के अधिकार के लिए लंबे समय से लड़ रहे संगठनों और शिक्षाविदों ने कोर्ट के इस फैसले को ऐतिहासिक बताते हुए इसे पूरे देश में लागू किए जाने पर जोर दिया है। वहीं फैसले के विरोधी भी हैं, जिनका मानना है कि यह फैसला व्यावहारिक कतई नहीं है और उनके बच्चों के भविष्य के लिए बड़ा खतरा बन सकता है।
फैसले के पक्ष में
1. यही एकमात्र रास्ता?
शिक्षाविद डॉ. अनिल सदगोपाल के मुताबिक बच्चों को सरकारी संस्थान में पढ़ाना अनिवार्य कर देना ही शिक्षा प्रणाली में सुधार का एकमात्र तरीका है। समान शिक्षा व्यवस्था से उच्च, मध्यमवर्गीय व निम्न वर्ग में शैक्षिक स्तर पर हो रहे भेदभाव को खत्म किया जा सकेगा। उदाहरण के लिए फिनलैंड में सरकारी संस्थान से पढ़ाई करना अनिवार्य है। ऐसा कानून बनने के बाद ही वहां महज तीन दशक में शिक्षा के स्तर में जबरदस्त सुधार आया है।
2. स्कूलों का स्तर सुधरेगा
एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक जे. एस. राजपूत के मुताबिक अगर हाईकोर्ट के फैसले को सही ढंग से लागू किया जाए तो सरकारी स्कूलों के स्तर में काफी सुधार आएगा। अगर अधिकारियों और नेताओं के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ेंगे तो उनके सुधार में अधिकारी व नेताओं के साथ सामान्य लोगों की भी रुचि बढ़ेगी।
3. फैसले का विरोध बेवजह
डॉ. अनिल के मुताबिक शिक्षा के निजीकरण की वजह से अच्छी शिक्षा सीमित लोगों तक पहुंच पा रही है और गरीब और पिछड़े तबके के लोगों को समान शिक्षा का अधिकार नहीं मिल पा रहा है। कानून बनाए जाने से सभी वर्गों को कम से कम शुरुआती स्तर पर समान स्तर की शिक्षा मिल सकेगी।