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हिंदी साहित्य

3 अप्रैल 2022

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 हिंदी साहित्य

पाश्चात्य सभ्यता के अनुसरण की होड़ में जो सबसे महत्वपूर्ण बातें सीखी गई या सीखी जा रही है उनमें जो सर्वप्रथम स्थान पर आता है वह है बंधन मुक्त होना। जीवन के हर विधा में बंधनों को तोड़कर बाहर मुक्त गगन में आने की प्रथा चल पड़ी है। यहाँ यह विचार विमर्श का विषय नहीं है कि यह उचित है या अनुचित। बस एक अवलोकन है , वक्तव्य है। 

इसी प्रथा के चलते हिंदी कविता के क्षेत्र में भी बदलाव आए हैं। पहले जो कविता मात्राओं और गणों के बंधन में होती थी अब मुक्त हो गई है। दोहा, चौपाई, कुंडलियाँ अब देखने में कम आती हैं। गद्य कविता की भरमार है। भाषा के आभूषण कहे जाने वाले अलंकार अब कहाँ मिलते हैं।

अनुप्रास तो फिर भी यदा – कदा कहीं - कहीं समा जाता है, पर यमक और श्लेष तो जैसे मिट से गए हैं। 

 रचना की एक नई विधा “हाईकू” आजकल चलन में हैं। सरोजनी प्रीतम की क्षणिकाएं कहीं उत्कृष्ट लगती हैं। इन दिनों कुछ ही ब्लॉग परपुराने छंद देखने को मिलते हैं 

कुछ पुराने रचनाकार भी अब बंधनमुक्त गद्य कविता में समाने लगे हैं। बहुत से नए रचनाकारों को शायद गणों और मात्राओं का ज्ञान भी नहीं है और जिन्हें है, वे भी अब इसकी उपयोगिता को कमतर ही आँकते हैं। जान-बूझ-चाह कर मात्राओं के बंधन में कविताई बहुत कम हो गई है। नगण्य कहा जा सकता है। 

नए रचनाकारों का शब्द सामर्थ्य बहुत अच्छा है। पिछले एकाध दशक में प्रसाद व महादेवी को पढकर निकले उच्च शिक्षार्थियों की शब्द संपदा सराहनीय होती है। उनकी रचनाओं में साहित्यिक शब्दावली बहुत मिलती है, जिसके चलते उसमें कुछ क्लिष्टता आ जाती है। एक तो बंधन मुक्त कविता उस पर शाब्दिक क्लिष्टता, भाषा के प्रवाह में अवरोध उत्पन्न
करती है।
   

शब्द सामर्थ्य के साथ शब्द चयन भी बेहतर हुआ है। पर चयन में भाषा की सरलता, सरसता, प्रवाह और लय पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इसलिए आज कविता में लय और प्रवाह नदारद है। सही शब्दचयन से कविता में लय, सरसता और प्रवाह
बखूबी लाया जा सकता है।
 

हालाँकि नए रचनाकारों ने बहुत ही साधना की है, पढ़ा है, साहित्य का ज्ञानार्जन किया है, पर बंधन मुक्ति के
दौर में शायद सरलता, लय और प्रवाह उनसे छूट गए हैं।
 

जो मंचीय रचनाकार है या जो रचनाकार गीत रचते हैं, उन्हें बखूबी समझ आता होगा कि कविता के लिए गेयता कितना मुख्य है। इसी कमी के कारण गीतों में भी अलग - अलग छंद, अलग - अलग राग अलापते हैं, जो श्रवण सुख से परे होता है।मेरी हार्दिक इच्छा है कि ये नए रचनाकार एक बार फिर मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, कबीर जैसों को पढ़ें। हल्की - फुल्की मेहनत से सशक्त शब्द चयन द्वारा रचनाकार सरलता और गेयता को बढ़ाकर उसकी बेहतरी की तरफ ध्यान दें। 

भाषा की क्लिष्टता कहें या शब्द चयन इस पर बखूबी निर्भर करता है कि रचना किस पाठक वर्ग को अग्रेषित है। बाल कविता, बाल सुलभ भाषा में होनी चाहिए और साहित्य के विद्यार्थियों के लिए हो तो भाषा क्लिष्टतम हो सकती है। उसी अनुसार शब्द सामर्थ्य का प्रयोग कर शब्द चयन करना चाहिए। सही शब्द चयन न होने पर सामान्यतः मजदूरों / रिक्शा चालकों से अंग्रेजी में बात करने की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। उचित पाठक वर्ग इसे समझ नहीं पाएगा। 

ऐसा नहीं है कि क्लिष्ट शब्दावली से प्रवाह उत्पन्न नहीं होता - देखिए–प्रसाद जी की कविता- 

हिमाद्रि तुंग-श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती,  

स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती,  

ऐसे अनन्य उदाहरण हैं। पर हाँ यह इतना आसान भी नहीं है।भाषा की सरलता से प्रवाह लाना कहीं आसान है।मेरी
नव रचनाकारों से विनती रहेगी कि वे अपने शब्द सामर्थ्य और चयन कौशल का विशेष प्रयोग कर सरलता, सरसता, लय और प्रवाह को बनाए रखने पर विशेषध्यान दें।
  

ऐसा भी नहीं है कि कविता में लय , सरलता या प्रवाह होना जरूरी है। नए रचनाकार यह न समझें कि उनकी
रचनाओं की अवहेलना हो रही, या नीचा दिखाया जा रहा है। हाँ सरल लयबद्ध रचना जुबाँ पर जल्दी चढ़ती है, मन में जगह जल्दी बना लेती है।
 

बाकी हर रचनाकार तो स्वतंत्र है ही। 

 

माड़भूषि रंगराज अयंगर की अन्य किताबें

रेणु

रेणु

आदरनीय अयंगर जी,आपका सुन्दर लेख पढ़ा।आपकी कविता को लेकर चिन्ता जायज है।कविता की परिभाषा कभी भाव,रस,अलंकार और छंदबद्ध रचना के रूप में ही होती थी।पर धीरे-धीरे गद्य काव्य को भी पढ़ा और सराहा गया।शायद इस बात की जरुरत अनुभव हुई होगी कि हर बात लयबद्ध नहीं हो सकती।पर लय में बंधी रचना का सौंदर्य कहीं अधिक होता है,ये निर्विवाद रूप से सत्य है।काव्य के पुरोधाओं की रचनाएँ जीवन के अनुभव और संघर्ष की रचनाएँ तो हैं ही पर इसके पीछे उनका गहन मनन और बुद्धि कौशल का सतत अभ्यास भी है,जिसके चलते उनका भाषा ज्ञान और विराट शब्द-सम्पदा अचंभित करते हैं।आज कल सोशल मीडिया के मंच पर हर लघु ज्ञानी कवि और कवयित्री है जिनमें मैं खुद को भी रखती हूँ। मुझे औरों का पता नहीं पर मैं खुद यही मानकर चलती हूँ कि जो सहज अभिव्यक्ति के रूप में भीतर से उमडे ,वही कविता है।अलंकार और छंदों का कौशल चाहकर भी नहीं सीख पाई।हाँ, रचना को लयबद्ध करने का प्रयास जरुर रह्ता है ।ये भी ईमानदारी से स्वीकार करती हूँ कि काव्य मेरा जन्मजात गुण और संस्कार नहीं,अर्जित ज्ञान आधारित है।पाठक के रूप में विभिन्न रचनाकारों को पढ़कर उन्हें परम्परागत मानकों पर परखने का गुण भी मुझमें नहीं पर कई गुणी रचनाकारों की छ्न्द मुक्त रचनायें भी मुझे अचम्भे में डाल देती हैं।और यूँ तो मैं यही मानती हूँ सहज अभिव्यक्ति के रूप में हर रचनाकार को सराहना मिलनी चाहिए,पर इसके साथ ये चिन्ता भी सताती है कि आज का साहित्य जब आने वाले कल में पढा जायेगा तो भावी पीढ़ी उसे मानक रूप में मान कर अनुशरण करेगी अत इसका शुद्ध और सरस होना अत्यंत आवश्यक है। कवि मन बहुत अधिक संवेदनशील होता है। वह सहृदय होता है इसलिए उसकी अनुभूति सर्वसाधारण से भिन्न होती है। उसके हृदय की निर्मलता, कोमलता और पवित्रता ही कविता को मर्म स्पर्शी बनाती है।उसकी ये अभिव्यक्ति यदि काव्य के समस्त तत्वों से युक्त हो तो सोने पे सुहागा हो जाये।आपका मार्गदर्शन कई बार मुझे भी मिला है पर समयाभाव और घरेलू दायित्वों के कारण आपसे ज्यादा सीख नहीं पाईजिसका खेद भी है मुझे।हाँ एक बात और लिखना चाहूंगी कि भाषा ज्ञान के स्तर के चलते भाषा की दुरूहता और कलिष्ट शब्दों पर सबका अनुभव भिन्न हो सकता है।जैसे ब्लॉग पर जुड़ने के समय कई रचनाकारों का लेखन मेरे लिये समझ से बाहर था,जबकि आज मेरे लिये बहुत आसान हो गया है उन्हें पढ़ना ।यानि निरंतर पठन-पाठन के अभ्यास से भाषा पर अधिकार बढ़ता चला जाता है।यही एक रास्ता है भाषा के विस्मृत हो रहे कथित कलिष्ट शब्दों को दुबारा प्रचलित करने का।आपका बहुत-बहुत धन्यवाद और आभार इस सार्थक लेख के लिए,जिसके जरिये मैं भी अपनी बात रख सकी।🙏🙏

7 अप्रैल 2022

माड़भूषि रंगराज अयंगर

माड़भूषि रंगराज अयंगर

7 अप्रैल 2022

रेणु जी , धन्यवाद. आपने इतनी विस्तृत टिप्पणी देकर लेख की समीक्षा सी कर दी है. लेख का म्रम और भी साफ हो गया है। आभार .

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madabhushi
0.0
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