कभी
खुश्क तो कभी नम सा हो रहा है,
मिजाज़
मौसम का भी तुम सा हो रहा है,
तुम हो
यहीं कहीं या चली गयी हो वहीँ,
तआवुन दिल से तभी कम सा हो रहा है,
इल्म है
दुनिया इक मुश्त खाके-फ़ानी,
ना जाने
क्यों अभी वहम सा हो रहा है,
ईलाज़े-दर्द
मुमकिन नासूर का था नहीं,
ये अज़ब
अज़ाब जभी रहम सा हो रहा है,
जानता
हूँ कि इस क़हर में ही थी तेरी रज़ा,
अफ्सुर्दगी
में दिल भी बरहम सा हो रहा है,
तश्दुद मुहब्बतों
की रही तेरे तब्बसुम सी,
थमी सी
जिंदगी, सभी बेदम सा हो रहा है,
‘दक्ष’ चल
छोड़ सब हम उड़ जाएँ दूर कहीं,
हर बशर
इस शहर में भी हम सा हो रहा है,
विकास
शर्मा ‘दक्ष’