मुश्किल ना था यादों को तरो-ताज़ा करना,
बैठे-बिठाये खुद का ही खामियाज़ा करना,
पहली ही दस्तक पे जो खोल दिया था मैंने,
फ़िज़ूल था उसका बंद वो दरवाज़ा करना,
रुकता भी तो शायद ना रोकता कभी उसे,
वक़्त से चंद लम्हों का क्या तक़ाज़ा करना,
शायद उस बात में कुछ वज़ाहत रही होगी,
मुहब्बत में तो नामुमकिन है लिहाज़ा करना,
ना ज़ात से समझे, ना ही ज़ज़्बात से समझे,
बेमतलब सा था किरदार का अंदाजा करना,
ना अलफ़ाज़ पे ना ख्याल पे ही गौर करना,
बज़्म में मज़मून का चेहरा मुलाहज़ा करना,
'दक्ष' यूँ ही जो लाश उठाये फिरते रहते हो,
क्या मुश्किल था तुम्हें अपना जनाज़ा करना,
विकास शर्मा 'दक्ष'