मृत्य एक शाश्वत सत्य है, इस सत्य से प्रत्येक मनुष्य भागना चाहता है। विभिन्न धर्मों एवं विचारधाराओं में मरणोपरांत जीवन की परस्पर विरोधी धारणाएं प्रचलित हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि विचारशील मनुष्यो का एक वर्ग यह मानता है कि मृत्यु के बाद उसका कुछ बाकी नहीं रहता। शेष अपने-अपने धर्म संप्रदायों के हिसाब से अपनी-अपनी मान्यताएं बना लेते है। अतः इस विषय पर एक बहुत बड़ी भ्रांति छाई हुई है।हमारी यह सृष्टि प्रकृति के नियमों से चलती है। एक कण से लेकर बड़े तारामंडल एक अकाट्य नियम सूत्र में बंधे हुए हैं। मानव की जीवात्मा या आत्मा इस प्रकृति की सबसे बड़ी देन है। प्रत्येक धर्म एवं विचारधारा ने इस भौतिक देह से परे, आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया है। पुनर्जन्म एवं जन्मों की श्रंखला की मान्यता प्राय सभी समुदाय में रही है, लेकिन मृत्यु के पश्चात क्या जीवन है? जीवात्मा क्या गति करती है? इस विषय पर पिछले १००-१५० वर्षों में वैज्ञानिक ढंग से अनुसंधान हुआ है, जो हमारी इस संबंध की जिज्ञासा को शांत करता है।
प्राचीन वैदिक एवम् श्रमण संस्कृति के समाज को इस विषय का ज्ञान था। सनातन धर्म में वानप्रस्थ व संन्यास आश्रम की व्यवस्था थी। जैन धर्म में श्रावक धर्म की व्यवस्था थी। ये व्यवस्थाएं, मनुष्य को अपने भौतिक जीवन काल में ही परलोक के जीवन की तैयारी में ढाल लेते थे।
जैसा कि पहले कहा संसार का सबसे बड़ा डर है "मृत्यु" और सबसे बड़ा रहस्य है "मरणोपरांत जीवन"। पारलौकिक जीवन का प्रत्येक धर्म ने नरक का ऐसा भयानक चित्र खींचा है और स्वर्ग का ऐसा मनोहर चित्र खींचा है, जिससे धर्म के नाम पर व्यक्ति की विचार शीलता कुंद हो गई। मरणोपरांत जीवन के ज्ञान की उपलब्धि जिनको हुई, वे या तो उच्च कोटि के संत-महात्मा थे, या वे लोग जो किसी विशेष परिस्थिति में मृत आत्माओं के संपर्क में आए। आम आदमी के लिए अभी भी परलोक का जीवन एक पहेली है। इस कारण से यह विज्ञान सर्वग्राही नहीं बन पाया। इस संबंध में नीचे के कुछ बिंदुओं से समझने की कोशिश की गई है।
१. स्थूल शरीर मानव नहीं है। असली मानव जीव-आत्मा (आत्मा) है। जो भौतिक शरीर की मानवीय इच्छाओं एवं विचारों से परे हैं।
२. मनुष्य केवल स्थूल शरीर ही नहीं है। उसके और भी शरीर है जो एक के बाद दूसरे सूक्ष्मतर तत्वों से बने हुए हैं। हिंदू शास्त्रों में इनके नाम हैं अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष एवं आनंदमय कोष। जैन धर्म में औदारिक शरीर, वैक्रिय शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर और कर्मण शरीर कहा गया है।
३. हिंदू शास्त्रों के अनुसार मनुष्य दो शरीर त्यागता है जो स्थूलतम हैं, अन्नमय कोष एवं प्राणमय कोष, शेष तीन के साथ आत्मा परलोक गमन करती है। जैन शास्त्र अनुसार जीवात्मा कर्मण शरीर व तैजस शरीर के साथ परलोक गमन करती है।
४. परलोक कोई दूर सितारों में बसा हुआ लोक नहीं है, उसका अस्तित्व पृथ्वी के चारों ओर स्थित आकाश में है। हिंदू शास्त्रों में ९ लोक माने जाते हैं, भूलोक, भुव लोक, स्वर्गलोक, महलोक, जनलोक ,तपलोक, सत्यलोक बैकुंठ लोक एवम गोलोक। थियोसोफिकल सोसाइटी (ब्रह्म ज्ञान) अनुसार सात लोक है। जैन धर्म में भी ७ नारकी एवम् विभिन्न देवलोक की मान्यता है।
५. हमारी पांच इंद्रिय (स्पर्श, रस, घ्राण, चक्षु, श्रुत) केवल भूलोक की भौतिक सृष्टि का ज्ञान दे सकती हैं। परलोक या पारलौकिक जीवन संबंधी ज्ञान इन इंद्रियों की क्षमता से परे हैं।
६. पिछले १००-१५० वर्षो के पश्चिमी जगत में इस विषय पर वैज्ञानिक अनुसंधान के आधार अनुसार, "स्वर्ग-नरक की कल्पना, सुख एवम् यातनाओं का वर्णन" जो धर्म ग्रंथो मे वर्णित है उससे मेल नहीं खाते हैं। सभी परलोक गमित अनुभवो में सबने परलोक में शांति, प्रकाश, करुणा, स्नेह, हल्कापन एवम् आत्मीयता का अनुभव बताए हैं। जो जीवात्मा भूलोक से अतीव काम-क्रोध-माया-लोभ-हिंसा आदि कषायो के साथ गई, वे नीचे के उपखंडों में निवास करती हैं, जहां का वातावरण विषाद व घुटन से भरा होता है, उनके चारो ओर का वातावरण उदासीन एवम् संतप्त आत्माओं से घिरा होता है।कही पर भी यातनाओं (काटना-जलाना-छेदना) या सुख (अप्सरा-हूर इत्यादि ) का उल्लेख किसी अनुसंधान में नहीं आया है।
७. परलोक में अच्छी आत्माएं , पतित जीवात्मा के उत्थान में सहायता करती हैं। Autobiography of Yogi में स्वामी योगानंद जी ने लिखा है, जब उनके गुरु श्री युक्तेश्वर गिरी ने अपने भौतिक देह का त्याग (९ मार्च १९३६) के बाद श्री योगानंद जी (१९ जून १९३६) को दर्शन दिए, उसका वर्णन करते हुए आत्मकथा में उल्लेख है "मैं उस परलोक में रहता हूं जिसे हिरण्य लोक कहते है। मैं यहां पर पृथ्वी से आई बहुत सी विकसित आत्माओं के मुक्त होने में सहायता करता हूं। यहां पर अच्छी आत्माएं बड़ी आसानी से एक से दूसरे लोक जा सकती हैं किंतु पतित आत्माएं अपने अपने लोक तक ही सीमित रहती है। कलुषित वासनाएं उनको उन्नत प्रदेश में प्रवेश करने में बाधा उपस्थित करती है। ये आत्माएं अपने साथ घृणित विचारों एवम् संताप का वातावरण चारो ओर बनाती है, इससे हर वक्त उदासीनता,वेदना एवम् भय का दुराग्रह साम्राज्य रहता है, यही पारलौकिक नरक है" इसी तरह के अन्य अनुभवों के आधार पर कहां जा सकता है" परलोक में अच्छी आत्माएं ( मित्र एवम् स्वजन भी) कई प्रकार से सहायता करते हैं।
८. पृथ्वी पर हम लोक अपनी पांच ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से संपर्क स्थापित करते है, लेकिन परलोक में केवल अंतरज्ञान ही सब कुछ बता देता है।मनोभावों से ही एक दूसरे की बात समझ लेते है, इस कारण से न किसी को धोखा दिया जा सकता है , न हीं किसी को गलत समझा जा सकता है।
९. सभी परलोक गमन आत्माओं ने इस बात का जिक्र अवश्य किया की हमारा भौतिक शरीर हमारे सूक्ष्म शरीर से एक "सुनहरी लचकदार धागे (silver cord)" से बंधा रहता है। भौतिक देह त्याग के समय ये धागे टूट जाता है। जीवित सूक्ष्म देह देखने के अभ्यासियों ने बताया कि इस डोरी के माध्यम वे वापस अपनी स्थूल देह में आ पाए।
१०. मृत्यु संबंधी जितने भी अनुभव वैज्ञानिक अध्ययनों में पाए गए हैं, सभी में मृत्यु एक सुखद अनुभव के रूप में आई है, जैसे शांत, प्रकाशमय में वातावरण, सूक्ष्म शरीर का अलग होना, सिल्वरकॉर्ड का धीरे-धीरे छूटना सुरंग से गुजर कर प्रकाशमय वातावरण में जाना, चेतना का विस्तार होना, हल्का पन महसूस होना इत्यादि।
सभी परलोक गमन अनुभवों में यह भी पाया कि भौतिक शरीर त्यागने के बाद अपने इष्ट-स्नेही जनों को दुखी देखकर परलोक गमन आत्मा भी बोझ अनुभव करती हैं।
११. हमारे परलोक वासी संबंधियों के लिए प्रार्थना करना, शुभ भावना रखना, मंगल कामना करना, उनके आध्यात्मिक विकास के लिए बड़ी सहायक होती है। अतः प्रत्येक परंपरा में परलोक गमन जीवात्मा के शांति एवं कल्याण कामना की प्रार्थना की परंपरा है। परलोक वासी के लिए रोना, दुखी होना, उनके लिए भी कष्टदायक होता है।
१२. हम जिस दुनिया में रहते वह त्रियामी है यानी कि प्रत्येक वस्तु जो इस जगत में है, उसके तीन आयाम होते हैं लंबाई चौड़ाई एवं ऊंचाई या गहराई। परलोक की दुनिया पांच आयामों की दुनिया है चौथा आयाम है "काल की अवधारणा" एवं पांचवा आयाम है "अमूर्त"। चौथे एवं पांचवें आयाम को हम देख नहीं सकते, माप नहीं सकते, लेकिन अतींद्रिय शक्तियों के द्वारा अनुभव किया जा सकता है। अमूर्त आयाम रस, गंध एवं स्पर्श से परे हैं एवं इस अमूर्त का संबंध हमारे कर्म से हैं।
परलोक के संबंध में पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षो में पाश्चात्य जगत में जो वैज्ञानिक अनुसंधान हुए उस पर यह लेख आधारित हैं। परलोक का जो चित्र भिन्न-भिन्न धर्मों एवं आस्थाओं में है, उनका समुचित सम्मान एवं आदर करते हैं। हम एक नए दृष्टिकोण को रखने का प्रयास कर रहे हैं।
वस्तुत: लोक-परलोक हमारी इसी पृथ्वी पर ही है। सबके साथ मैत्री, करुणा, प्रेम, अहिंसा, दया, सत्य, विनम्रता, सहिष्णुता का व्यवहार हमारे लिए यही स्वर्ग का निर्माण करता है। घृणा, क्रोध, आवेश, कटुता, हिंसा, असत्य, कठोरता हमारे लिए यही नर्क है। अतः हम सबके भीतर की मानवीयता जागृत हो, यही सब के प्रति मंगल भावना करते हैं।
स्वर्ग-नरक है यही, अपने ही भीतर ।
मिलेंगे जरा झांको ,अपने ही भीतर।।
दृष्टि भीतर की ओर ,बदल जाती है सृष्टि ।
मिल जाते है परमात्मा, अपने ही भीतर ।।
जिनेंद्र कुमार कोठारी
अंकलेश्वर
यह लेख मृत्यु के बाद पुस्तक के लेखक श्री जे डी गोयल से प्रेरित है श्री गोयल थियोसॉफिकल सोसायटी से जुड़े है।
जिनेन्द्र कुमार कोठारी
(आप समण संस्कृति संकाय, लाड़नुं के पूर्व निदेशक व रोटरी क्लब, अंकलेश्वर के पूर्व अध्यक्ष रह चुके हैं)