विश्व में शासन की दो प्रणालियां प्रचलित है राजतंत्र एवं लोकतंत्र। राजतंत्र में एक शासक होता है, जिसकी मर्जी से शासन प्रणाली चलती है, लोकतंत्र में जनता अपना शासक स्वयं चुनती है एवं समय-समय पर उसका कार्य निरीक्षण कर उन्हें पुनः चयन या फिर नए शासक का चुनाव किया जाता है। राजतंत्र में एक व्यक्ति या परिवार सर्वोपरि होते हैं। लोकतंत्र में जनता सर्वोच्च होती है। लोकतंत्र की परिभाषा है "जनता का शासन, जनता के लिए, जनता के द्वारा"
भारत में राजतंत्र की जडें काफी गहरी व पुरानी रही है लेकिन 1947 में ब्रिटिश सत्ता से स्वाधीन होने के बाद भारत एक ही प्रयास में राजतंत्र से लोकतंत्र शासन प्रणाली में आ गया और 1950 में देश ने संविधान स्वीकार कर गणतंत्र शासन प्रणाली स्थापित की। आज स्वतंत्रता के ७३ वर्ष बाद इस बात का लेखा-जोखा करने का उचित समय है कि हमारी लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में कहां सफलताएं मिली, कहां कमियां रही और भारत इस समय विश्व के अन्य देशों के समकक्ष कहां खड़ा है।
सर्वप्रथम यह स्पष्ट करना जरूरी है कि लोकतंत्र की शासन प्रणाली सर्वोत्तम शासन व्यवस्था है। इसकी कमियां या विफलताएं, लोकतंत्र की ना होकर इसे संचालित करने वाले तंत्र की होती हैं, जो कल्याणकारी कार्यों को छोड़कर स्वार्थ-सिद्धि में लिप्त हो जाते हैं।
भारत आज विश्व का विशालतम लोकतांत्रिक देश है। जनता अपने मतों के माध्यम से एक नियमित अंतराल से जनप्रतिनिधियों को चुनती है एवं सरकार के कार्यों की समीक्षा करती है, देश का न्याय तंत्र निष्पक्ष रूप से संविधान का रक्षण करता है, भारतीय सेना राजनीतिक दबाव से मुक्त है एवम् मीडिया कमोबेश अपनी भूमिका सही निभा रहा है। यही भारतीय लोकतंत्र की सार संक्षेप में सबसे बड़ी सफलताए है। भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, विरोधी विचारों को भी सुना जाता है, तथा समन्वय से कार्य करने की प्रणाली विकसित हुई है। इस कारण से सरकारें संभल कर कार्य करती है। संविधान में प्रदत्त समानता के अधिकार के कारण दलित एवं पिछड़ा वर्ग काफी हद तक ऊपर आया है, कार्य के अवसर अधिक प्राप्त हुए हैं और हर वर्ग और समाज का हर तबका देश की प्रगति में योगदान दे रहा है। धार्मिक स्वतंत्रता के कारण ही, भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है जहां विभिन्न विचारधारा एवं धर्म के लोग अपनी भिन्न-भिन्न मान्यताओं के साथ शांतिपूर्वक रह रहे हैं।
लोकतंत्र होने के कारण ही आज सभी नीतिगत निर्णयों में सर्व समावेशी भावना देखने को मिलती है। लोकतंत्र की जड़ें हमारे जनमानस में इतनी गहरी हो गई है कि भारत में सत्ता परिवर्तन सहज रूप से हो जाता है। भारतीय सेनाएं देश की रक्षा के अलावा कभी भी राजनीतिक हस्तक्षेप में नहीं आई। सेना पूर्णतः अनुशासित ढंग से देश की सीमाओं की रक्षा कर रही है और यह हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी सफलता है।
लोकतांत्रिक प्रणाली में भारत की सबसे बड़ी विफलता देखने को जो मिली है वह है "निर्णय एवं कार्य क्रियान्वयन में देरी" क्योंकि हर व्यक्ति अपनी बात करने के लिए स्वतंत्र है एवं मतो के आधार पर सरकार बनती है, अतः सरकारों के काफी निर्णय राष्ट्रहित के आधार पर न होकर वोट बैंक को ध्यान में रखकर लिए जाते हैं। जो कि भारत की धीमी प्रगति का सबसे बड़ा कारण है।
दूसरी सबसे बड़ी विफलता है न्याय प्रणाली में देरी, न्याय प्रणाली काफी हद तक निष्पक्ष तो है लेकिन आमजन को न्याय मिलने में बहुत देरी होती है एवं हमारी न्याय प्रणाली बहुत महंगी है। आज एक आम नागरिक को न्याय मिलना समय-श्रम एवं खर्च तीनों ही दृष्टियो से बड़ा कठिन है। कानूनी प्रक्रिया इतनी जटिल है कि आम आदमी की समझ से बाहर है, इसी के साथ साथ हमारी सारी न्याय प्रणाली अंग्रेजी भाषा में है जो कि आम आदमी की भाषा नहीं और सरकारों ने कभी कोशिश भी नहीं की उच्च-उच्चतम न्यायालय में अंग्रेजी के साथ-साथ उस भाषा को भी प्रोत्साहित किया जाए जिसको आमजन समझता है। न्यायपालिका की अति सक्रियता एवं हर कार्य में न्यायालय का दखल भी हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली को कमजोर कर रहा है । इससे कार्यपालिका अपने उत्तरदायित्व से छुटकारा पा रही है एवं न्यायपालिका के ऊपर कार्य का बोझ बढ़ रहा है।
लोकतंत्र की एक बड़ी विफलता यह रही कि चुने हुए जनप्रतिनिधि, कार्यपालिका के अधिकारियों से कार्य निष्पादन, जितना होना चाहिए था उतना करवाने में सफल नहीं रहे। भारत की नौकरशाही जनता के प्रति संवेदनशील नहीं है। अप्रभावी जनप्रतिनिधियों एवम् असंवेदनशील कार्यपालिका ने भ्रष्टाचार-बेईमानी-भाई भतीजवाद-अकर्मण्यता को ही प्रोत्साहित किया है।
लोकतंत्र की सफलता में एक बड़ा घटक होता है रचनात्मक विपक्ष लेकिन हम देखते हैं कि स्वतंत्रता के बाद लंबे समय तक एक पार्टी का शासन एक छत्र राज रहा, विपक्ष की भूमिका नगण्य रही और जब जनता ने बदलाव किए तो कल के शासक पक्ष रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभाने में पूर्णत विफल रह रहे है। संसद एवं राज्य विधानसभा, शोर-शराबे के स्थान बनते जा रहे हैं, सार्थक बहस व शालीनता प्राय: लुप्त हो रही है। राजनेताओं में भी इस तरह की भाषा का प्रयोग इतना बढ़ गया है कि उसमें सभ्यता एवं भद्रता खोजे नहीं मिलती है।
उपरोक्त सभी विफलता है वस्तुत लोकतंत्र शासन प्रणाली के नौकर उसके चलाने वाले तंत्र की है उसके चलाने वाले व्यक्तियों की है इसमें सुधार हेतु कुछ सुझाव प्रस्तुत है।
१. शिक्षा का अधिक से अधिक प्रसार हो जिससे देश का हर नागरिक सही गलत का सम्यक चयन कर सके।
२. कार्य की उत्तरदायित्व का निर्धारण हो। प्रत्येक अधिकारी एवं संस्था अपने कार्य, दायित्व अनुसार करें एवं दायित्व का निर्वहन न करने की स्थिति में उसके लिए दंड की व्यवस्था भी हो।
३. सरकार में चयनित प्रतिनिधियों के अलावा, प्रत्येक क्षेत्र के विशेषज्ञों को भी निर्णय प्रक्रिया में शामिल किया जाए ताकि राष्ट्रहित में सर्वोत्तम निर्णय हो सके।
४. न्याय प्रणाली में जल्द से जल्द पीड़ित को न्याय दिया जाए एवं इसे जन भाषा में, कम खर्चे में किया जाए ताकि प्रत्येक व्यक्ति को यह भरोसा हो कि अन्याय की दशा में न्यायपालिका उसे सही न्याय देने के लिए उपलब्ध है।
भारत में लोकतंत्र की जड़ें मजबूती से जमी हुई है जिससे इस शासन प्रणाली में काफी प्रगति हुई है। जब हम अपने पड़ोसी मुल्कों को देखते तब हमें अपनी लोकतांत्रिक प्रणाली का गर्व होता है। लेकिन यहीं पर, जब हम दूसरे विकसित देशों को देखते हैं तो लगता है कि कहीं ना कहीं कमी रह गई। कुछ संस्थागत विफलताओं के बाद भी देश के वंचित वर्ग को विकास के अवसर उपलब्ध कराने की सर्वोच्च प्रणाली लोकतंत्र ही है एवं भारत का शुभ भविष्य इसी प्रणाली से संभव होगा।
जिनेन्द्र कुमार कोठारी
(आप समण संस्कृति संकाय, लाड़नुं के पूर्व निदेशक व रोटरी क्लब, अंकलेश्वर के पूर्व अध्यक्ष रह चुके हैं)