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प्रासंगिक है आज भी आचार्य भिक्षु

28 दिसम्बर 2021

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तेरापंथ धर्म संघ का उद्गम जैन धर्म के एक विशुद्ध संस्करण के रूप में हुआ माना जा सकता है। घोर कष्टों एवं मिथ्या ग्रह के मध्य भी आचार्य भिक्षु अडोल रहे। वे दंभ- चर्या और आसक्ति आदि के विरोध में भी मुखर रहे। सत्य कहते हुए आचार्य भिक्षु कभी स्कुचाए नहीं। आचार्य भिक्षु के विचारों ने, दर्शन ने, तत्कालीन मारवाड़ राज्य में धर्म क्रांति की - आज जिसका घोष अखिल विश्व में व्याप्त है। आचार्य भिक्षु के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक और उपयोगी हैं जितने कि उस काल में रहे।

 

आचार्य भिक्षु के विचारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा अहिंसा एवं अहिंसक दृष्टिकोण की यथार्थपरक व्याख्या। बड़े जीवों की रक्षा के लिए छोटे जीवों के वध को गंभीरता से नहीं लिया जाता था। अहिंसा के क्षेत्र में भी इस प्रकार एक तरह से बल-प्रयोग मान्य समझा जाने लगा था। आचार्य भिक्षु ने भगवान महावीर की इस वाणी का स्पष्ट घोष किया- "सब जीव समान है, कोई जीव मरना नहीं चाहता, सब जीव जीना चाहते हैं"। अहिंसा बल-प्रयोग से नहीं, वरन हृदय परिवर्तन, भाव परिवर्तन से ही संभव है। आचार्य भिक्षु के इस घोष का तत्कालीन समाज ने घोर विरोध किया। भगवान महावीर के मार्ग से पथ-विचलन का आरोप भी लगाया गया। आचार्य भिक्षु के इस अहिंसा प्रधान विचार को आज के वैज्ञानिक युग में पुष्ट किया गया है। आज का मनोविज्ञान भी समझा-बुझाकर हृदय-परिवर्तन से ही मानवीय आचरण में परिवर्तन को स्वीकार करता है। कई राष्ट्रों ने मृत्युदंड को समाप्त कर दिया है। अनेक राष्ट्रों में इसे समाप्त करने की मांग उठ रही है। आज कारागृह में भी अपराधियों के सुधार पर जोर दिया जाता है, न कि दंड पर। स्पष्ट है कि हिंसा से अहिंसा का आविर्भाव कभी नहीं हो सकता। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी आचार्य भिक्षु के विचारों के समर्थक कहे जा सकते हैं। महात्मा गांधी की भी यही मान्यता रही कि एक को बचाने के लिए, दूसरे की हत्या नहीं की जा सकती। अहिंसावादियों का कर्तव्य विनम्रता के साथ समझाने-बुझाने का ही है। आज का बौद्धिक वर्ग भी निरपराध प्राणियों की हिंसा का विरोध करता है। धर्म के नाम पर पशु बलि अब लगभग बंद हो चुकी है।

 

आचार्य भिक्षु का दूसरा महत्वपूर्ण विचार था - शुद्ध साध्य एवं शुद्ध साधन। आचार्य भिक्षु ने स्पष्ट रूप से कहा कि शुद्ध साध्य की प्राप्ति शुद्ध साधन के उपयोग से ही संभव है। तत्कालीन समाज में शुद्ध साध्य के लिए शुद्ध साधन पर जोर नहीं दिया जाता था। यह मान्यता थी कि अशुद्ध साधनों से भी धर्म की प्राप्ति हो सकती है। आचार्य भिक्षु ने खुले शब्दों में घोषणा की- "साध्य के सही होने पर भी यदि साधन गलत होंगे तो साध्य को बिगाड़ देंगे, उसे गलत दिशा में मोड़ देंगे"। वे मानते थे कि साधन एवं साध्य में अटूट संबंध है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण वर्तमान में राजनीतिक व्यवस्था में देखे जा सकते हैं। लोकतंत्र एक अच्छी व्यवस्था होते हुए भी आज डगमगा रहा है। लक्ष्य की पूर्ति के लिए अशुद्ध साधनों को प्रयोजनीय मानने का यह परिणाम है कि लोकतंत्र से जो जन - कल्याण होना चाहिए था, नहीं हो पा रहा है। आचार्य भिक्षु ने साधन और साध्य विचार को स्पष्ट करते हुए कहा, "अध्यात्म की भाषा में जीवन साध्य नहीं है, साध्य है मोक्ष। मोक्ष की प्राप्ति संयम के साधन से ही प्राप्त की जा सकती है"। यहां पर भी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और स्वामी जी के विचारों में अद्भुत साम्य में मिलता है। गांधीजी ने कहा "शुद्ध साध्य की प्राप्ति के लिए हमारे साधन भी श्रेष्ठ एवं पवित्र होने चाहिए, क्योंकि जैसे हमारे साधन होंगे, वैसे ही हमारे साध्य और ध्येय होंगे"। इस लक्ष्य को लेकर गांधी जी ने अहिंसक सत्याग्रह के माध्यम से देश के स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया। आचार्य भिक्षु ने खुली घोषणा की कि देव गुरु और धर्म - यह तीनों अनमोल रत्न है। इनको धन या असंयम से नहीं खरीदा जा सकता। यदि धन से ही धर्म हो तो भगवान महावीर की पहली देशना विफल नहीं जाती। अतः धर्म रूपी साध्य की प्राप्ति संयम, त्याग, तपस्या से ही संभव है। आज हम देखते हैं कि शुद्ध साधन की बात राष्ट्र एवं समाज में गौण हो रही है। इसके परिणामस्वरुप हमारे सामने असंतोष, घृणा, वैमनस्य एवं पारिवारिक कलह लगातार बढ़ रहे हैं। आचार्य श्री महाप्रज्ञ के शब्दों में आचार्य भिक्षु के आध्यात्मिक चिंतन को एक शब्द में बांधना चाहे तो हम उसे "साध्य-साधना वाद" कह सकते हैं।

 

आचार्य भिक्षु का सर्वाधिक चर्चित विचार या जिसकी सर्वाधिक आलोचना हुई, वह दान और दया की उनकी अवधारणा थी। दान के संबंध में स्वामी जी ने अपने विचार स्पष्ट करते हुए कहा- "जिस दान से संयम में अभिवृद्धि हो वह दान श्रेष्ठ है"। स्वामी जी ने अभयदान को सर्वश्रेष्ठ बताया। आचार्य भिक्षु के मतानुसार किसी प्राणी को न मारना, न बंधन करना, न यातना पहुंचाना तथा न भासित करना चाहिए। ऐसा संकल्प सारे जगत को अभय प्रदान करता है। अहिंसा का चरमोत्कर्ष होने से सर्वांश में धर्म है। इसके सिवाय जहां-जहां संयम का पोषण होता है यानी संयती साधु के संयम पालन में सुगमता प्रदान करें, धर्माचरण में लोगों को प्रेरणा, सहयोग एवं सहभागिता प्रदान करें, आश्रव मिटाने की दिशा में किसी को गति दे- तो निश्चित ही ऐसा सहयोग या दान धर्मदान है एवं श्रेयस्कर हैं। सही दान के लिए यह आवश्यक है कि हमारी मनोभावना और दान की जा रही वस्तु के दान से हिंसा न हो एवं हिंसा होने की संभावना न हो। दया के संबंध में भी आचार्य भिक्षु ने स्पष्ट विचार रखे। उन्होंने दया को एक रुप से अहिंसा का पर्यायवाची माना। वस्तुत: किसी पर हिंसा ना करना ही वास्तविक दया है।

 

वस्तुत: वही दया श्रेष्ठ जो अहिंसापरक हो, जिस से आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो एवं जो व्यक्ति को निराभीमानता की ओर ले जाए। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी दया को धर्म का मूल एवं पाप का मूल अभिमान को बताया है। इसका अर्थ यह हुआ कि पाप का विलोम धर्म है, तो अभिमान का विलोम निराभिमान  है अतः दया का समानार्थक शब्द है निराभीमानता। अहंकार सब दुखों की जड़ है, जिसमें व्यक्ति अपने को अन्य से पराया समझने लगता है। जहां अहंकार शून्यता की स्थिति आती है या कहें कि निरभिमानता की साधना सध जाती है, वही व्यक्ति, दूसरे प्राणी को अपने तुल्य समझने लगता है। फिर उसके वध, बंधन, यातना, पीड़ा इत्यादि में प्रवृत्त नहीं होता। यथार्थ में यही दया है। जहां दया है वहां अहिंसा है। दया एवं अहिंसा को हम अलग करके नहीं देख सकते। दान - दया के साथ ही आचार्य भिक्षु ने लौकिक और लोकोत्तर धर्म की सीमा रेखा भी खींची। कुछ दान व दया लौकिक रूप से श्रेय हो सकते हैं, उपयोगी हो सकते हैं, लेकिन आत्मिक व आध्यात्मिक दृष्टि से मूल्य - शून्य होते हैं। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में हम देखते हैं कि समाज का हर प्राणी एक दूसरे पर आश्रित है। सामाजिक - आर्थिक कार्यों में एक दूसरे का सहयोग लेना ही होता है। इन कार्यों से लौकिक साध्य प्राप्त होते हैं, लोकोत्तर नहीं। समाजवादी - साम्यवादी अवधारणा ने तेरापंथ की दान - दया की मान्यता को पुष्ट किया है। साम्यवादी विचारधारा के अनुसार कोई व्यक्ति अपने को श्रेष्ठ मानकर याचकों की फौज तैयार करे यह मूलतः गलत है। युगीन दृष्टि में श्रमिक, कृषक, असहाय वर्ग को भी समान वितरण चाहता है। याचना या भीख को हेय समझा जाता है। आचार्य श्री तुलसी एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने बार-बार यह दोहराया है कि यदि धन देकर दान - दया हो जाती तो संसार के सारे धनपति सबसे बड़े धार्मिक कहलाते और गरीब के हिस्से में कुछ शेष नहीं रहता।

आत्मिक अथवा आध्यात्मिक दृष्टिकोण के साथ साथ संघीय व्यवस्था एवं सामूहिक साधना के जो सूत्र व विचार - व्यवस्थाएं आचार्य भिक्षु ने दी वे मर्यादा एवं अनुशासन आज २६० वर्ष बाद भी अक्षुण्ण हैं। व्यवस्थाएं मुख्यतः निम्नोक्त है -

१) एक आचार्य का नेतृत्व

२) सभी साधु - साध्वी गणों के चातुर्मास- विहार एक आचार्य की आज्ञा में

३) व्यक्तिगत शिष्य प्रथा पर रोक

४) आचार्य द्वारा अपने उत्तराधिकारी के चयन - मनोनयन में किसी का हस्तक्षेप नहीं

५) श्रद्धा तत्व की चर्चा सामूहिक होने के बाद, आचार्य द्वारा एक सी प्ररूपना एवं उसको सकल संघ द्वारा मान्य करना

६) संघ में सामूहिक रूप से रहकर आत्म साधना करना।

ऐसे अनुशासन और इन मर्यादाओं के कारण ही तेरापंथ धर्म संघ निरंतर प्रगतिशील है। एक आचार्य का नेतृत्व एवं शिष्य प्रथा की समाप्ति से समूचे संघ से अहंकार - ममकार की भावना का सहज ही विसर्जन हो गया है। संघीय साधना एवं सामूहिक श्रद्धा तत्व की चर्चा से सामुदायिक भावना एवं सहभागिता का विकास हुआ है। इससे साधु- साध्वियों को ही नहीं, इसके अनुपालकों को भी लाभ हुआ है। इन विचारों की वर्तमान प्रासंगिकता इस बात से स्पष्ट हो जाती है कि यह विचार लगभग २६० वर्षों से अबाध रूप से गतिशील हैं और संघ - संगठन को प्राणवान - ऊर्जावान बनाए हुए हैं।

निष्कर्ष आचार्य भिक्षु के विचारों को निम्न बिंदुओं में भाषित कर सकते हैं।

१) अशुद्ध साधन से शुद्ध साध्य की प्राप्ति नहीं हो सकती

२) बड़े जीवो के लिए छोटे जीवो की हिंसा करना अहिंसा नहीं है

३) सब जीव समान है

४) अहिंसा एवं दया एक है। दोनों पृथक नहीं हो सकते।

५) जिस दान से आत्म कल्याण हो एवं संयम में सहायता मिलती हो ,वही दान श्रेष्ठ है ।

६) धर्म त्याग में है भोग में नहीं

७) लौकिक एवं आध्यात्मिक धर्म भिन्न होते हैं । दोनों के लक्ष्य भी भिन्न है।

८) आवश्यक हिंसा भी अहिंसा नहीं है। हमें अनावश्यक हिंसा से बचना चाहिए।

९) संघीय दृष्टि से संघ में एक गुरु एवं एक संविधान हो।

वर्तमान परिपेक्ष में यह सभी विचार उतने ही सत्य और सापेक्ष है, जितने आज से २६० वर्ष पूर्व थे वस्तुत वही व्यक्ति कालातीत होता है, जिसके विचार वर्तमान में ही नहीं, भविष्य में भी अपनी मूल्यवेता रखते हैं, उनकी सापेक्षता एवं उपयोगिता हो। इस दृष्टि से आचार्य भिक्षु एक कालजयी, एक असीम व्यक्तित्व थे।

जैन परंपरा में आचार्य भिक्षु का उदय एक नई आलोक की सृष्टि है। आचार्य भिक्षु का जन्म विक्रम संवत १७८३ में हुआ, विक्रम संवत १८०८ में स्थानकवासी परंपरा में मुनि बने, विक्रम संवत १८१७ में तेरापंथ का प्रवर्तन किया एवं विक्रम संवत १८६० में इस संसार से महाप्रयाण कर गए। जन्म - महाप्रयाण के मध्य जो ७७ वर्ष के कालखंड का जीवन आचार्य भिक्षु ने जिया, जो दर्शन आचार्य भिक्षु ने दिया एवं महावीर के सिद्धांतों एवं विचारों की प्रति स्थापना की, इन सबने आचार्य भिक्षु को अमम एवं असीम बना दिया।

 

जिनेंद्र कुमार कोठारी 

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