जब से मनुष्य ने समूह में रहना आरंभ किया है, मनुष्य संबंधों की डोर से बंधा हैं। पति-पत्नी, माता-पिता, भाई-बहन, मित्र इत्यादि अनेकानेक संबंधों से हम जीवन पर्यन्त जुड़े रहते है।
मानव सभ्यता के प्रारंभिक वर्षों से 18वीं शताब्दी तक इन संबंधों का निर्वहन लगभग निर्बाध रूप से एक समान होता रहा, परिवार समाज की मर्यादा ही व्यक्ति के लिए नैतिक कानून रहे एवं इसके अनुपालन में ही जीवन यापन होता था। इस काल खंड में सबसे बड़ा परिवर्तन स्त्रियों की दशा में आया था, प्राचीन काल में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से जितनी स्त्रियां स्वतंत्र थी, ईसा के 1000 वर्ष बाद, स्त्रियां धीरे-धीरे दोयम दर्जे की बन गई एवं समाज में पितृसत्ता की स्थापना हुई।
18वीं शताब्दी के समय यूरोपियन प्रजा धीरे-धीरे एशिया, अफ्रीका एवं विश्व के अन्य भागों में व्यापारिक कार्यों के लिए जाने लगी, यूरोप में औद्योगिक क्रांति हुई तथा यहीं से यूरोप का आर्थिक और सामाजिक प्रभाव पूरी मानव सभ्यता पर पड़ा। स्त्रियों में चेतना जागृत होने लगी, निरंतर चलने वाले युद्धों में पुरुषों के रत रहने के कारण घरेलू एवं सामाजिक कार्य में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ी लेकिन आर्थिक सत्ता अभी भी पुरुषों के हाथ में ही थी। प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध में भारी संख्या में मानव आबादी खत्म हुई और इस समय विशेषकर यूरोप एवं पश्चिम जगत में आर्थिक रूप से स्त्रियों की भागीदारी संख्यात्मक एवम् गुणात्मक रूप से बढ़ी। पश्चिमी समाज अधिक उदार बने, लेकिन एशिया व अफ्रीका के देश अभी भी पुरानी मानसिकता में बंधे हुए थे।
1950 के बाद के वर्षों में, सन 2000 तक लगभग सभी देशों ने मुक्त अर्थव्यवस्था का रास्ता अपनाया, अंग्रेजी व अंग्रेजी तौर-तरीकों ने पूरे विश्व को अपनी चपेट में ले लिया। स्थानीय संस्कृति एवं भाषा धीरे-धीरे दूर होने लगे, संयुक्त परिवार प्रथा का पतन होने लगा तथा ग्रामीण की बजाए शहरी अर्थव्यवस्था ज्यादा मजबूत बनी।
21वी शताब्दी के इन 20 वर्षों में सामाजिक स्तर पर इतने अधिक परिवर्तन हो गए हैं, जितने पिछले हजार वर्षों में भी नहीं हुए। हमारी विवाह संस्था, स्त्री-पुरुष के संबंध, परिवारों के मध्य संबंधों में भारी परिवर्तन देखने को मिल रहा है। पहले संबंध ग्राम स्तर को एक इकाई बनते थे फिर परिवार को एक इकाई मानकर बने और अब परिवार के प्रत्येक व्यक्ति एक स्वतंत्र इकाई है यह मानकर तय किए जाते हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के कुछ लाभ और कुछ अलाभ दोनों ही हो रहे हैं। भारत जैसे परंपरागत समाज में भी अब विवाह संस्था एवं परिवार की परिभाषा को नए सिरे से परिभाषित किया जा रहा है।
यदि हम संबंधों के नए प्रारूप के लाभ देखेँ तो सबसे बड़ी बात यह हुई है कि व्यक्तिगत एवं वैचारिक स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति एक स्वतंत्र सोच रखने वाला बन गया है, इससे प्रत्येक के मन में दूसरे से अधिक श्रेष्ठ बनने की प्रतिस्पर्धा जागृत हुई है, स्त्रियां एवं बच्चे आर्थिक रूप से स्वतंत्र हुए तथा अर्थ का महत्व समझने लगे है। व्यक्ति भी अधिक से अधिक साहसिक और ज्ञान पिपासु हुए, नई नई तकनीक से जीवन में भौतिक सुख सुविधाओं में वृद्धि हुई है।
दूसरी तरफ हम देखते हैं कि विवाह संस्था एवं व्यक्तियों के आपसी संबंधों में इसका विपरीत असर भी पड़ा है, संबंध बनाना आसान है लेकिन उसे निभाने में जो धैर्य व समय देना चाहिए, वह नहीं दिया जा रहा है, इसमें सबसे अधिक प्रभावित हुई है हमारी विवाह संस्था, तलाक की दर समाज के हर वर्ग में, शहरी हो या ग्रामीण तेजी से बढ़ रही है। बच्चों में भी इसके दुष्परिणाम देखने को मिल रहे हैं। परिवार में जो सम्मान व स्नेह की भावना होती थी वो भी कम हो रही है, कारण यह है कि प्रत्येक अपने को दूसरे से अलग व श्रेष्ठ मानने लगा है। बच्चों में एक दूसरे से सहकार की भावना भी कम होने लगी है कारण कि बड़ों के माध्यम से संस्कारों का निर्माण नहीं हो पा रहा है। कानूनी दांवपेच में स्त्री-पुरुष संबंध फंसते जा रहे हैं, बिना विवाह के साथ रहने की प्रवृत्ति (लिव-इन रिलेशन) का महत्व बढ़ता जा रहा है। अर्थ का महत्व सर्वाधिक होने से रिश्तो में स्वार्थ एवं कड़वाहट अधिक हो गई है।
प्रश्न यह उठता है कि संबंधों को बचाया कैसे जाए? एक बात यह समझ लेना आवश्यक है कि वक्त की धारा को मोड़ा नहीं जा सकता, पुनः व्यक्ति, परिवार और समाज को अपने आप को परिवर्तन के अनुसार थोड़ा-थोड़ा ढालना अवश्य होगा।
१. सर्वप्रथम माता-पिता को अपने संतानों के प्रति अधिक उदार होना पड़ेगा एवं संतानों को भी अपने अभिभावकों की सीमाएं समझनी होगी। माता-पिता को एक अवस्था के बाद संतान को अपने मित्र समझना पड़ेगा और संतान को भी माता-पिता उसके हित अहित को देखकर निर्णय करते हैं इस तर्क पर स्वयं के निर्णय करने पड़ेंगे।
२.जैसा कि मैंने पहले भी कहा संबंध बनाना आसान है लेकिन संबंधों को निभाना मुश्किल है, कठिन है लेकिन असंभव नहीं है अतः पति-पत्नी दोनों को ही एक दूसरे की स्वतंत्रता, इच्छाओं का सम्मान करना होगा, एक दूसरे के प्रति जो युगों से चली आ रही मानसिकता है उसे बदलना होगा। स्त्री आर्थिक क्षेत्र में भी अपनी बात रखने में सक्षम हो रही है अतः परिवार के निर्णय में उनकी भी अनिवार्य भूमिका करनी होगी।
३. अर्थ की प्रधानता तो अपनी जगह है लेकिन इसके साथ साथ हमें संबंधों में सम्मान व स्नेह लाना पड़ेगा जिससे कि सोने में सुगंध हो जाए। परिवार के स्तर पर संस्कार निर्माण की आवश्यकता आज पहले से कहीं अधिक है।
४. प्राचीन जीवन में सहजता थी इस कारण से योग अध्यात्म अपने आप जीवन का एक भाग बन जाते थे। लेकिन आधुनिक प्रतिस्पर्धी युग में, शहरीकरण के युग में, एकल परिवार के युग में, अब योग व अध्यात्म को अनिवार्य रूप से जीवन शैली का भाग बनाना पड़ेगा और यह होने से ही संबंधों में मिठास आ पाएगी।
समाज में रहना, निरंतर चिंतन करना, निरंतर श्रेष्ठ करने का प्रयत्न करना तथा कुछ गलत हो जाए तो सुधारने का प्रयत्न करना मनुष्य के नैसर्गिक गुण होते हैं। यह मानने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि आज जो संबंधों की समस्याएं आ रही है, वह मनुष्य परिवार के स्तर पर एवं समाज के स्तर पर अवश्य उसमें सुधार करेगा और थोड़े से परिवर्तन से संबंधों में पुनः नई ऊर्जा एवं ऊष्मा हम भर सकेंगे।
संबंधों को पुनः परिभाषित करने की जरूरत है आज।
संबंधों को पुनः प्रतिस्थापित करने की जरूरत है आज।।
आओ हम सब मिलकर करें संकल्प,
संबंधों को बचाने की अत्यंत जरूरत है आज।।
जिनेन्द्र कुमार कोठारी
(आप समण संस्कृति संकाय, लाड़नुं के पूर्व निदेशक व रोटरी क्लब, अंकलेश्वर के पूर्व अध्यक्ष रह चुके हैं)