29 जनवरी 2015
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मैं एक हिन्दू भासी देश का नागरिक हूँ D
प्रेम दबे पाँव चला करता है / जा का सूरज / जैसे कुहरे में छिपकर / आता है साँसों को साधकर / नयन पथ पर / लाते हैं/ आना ही पड़ता है. ( नीला आकाश कह सकता है) ताप के ताए हुए दिन ये / क्षण के लघु मान से / मौन नापा किये ( ताप के ताए हुए दिन ) शब्दों से काम नहीं चलता / जीवन को देखा है / यहाँ कुछ और / वहाँ कु
एक फ़तवा आता है और / सारा-का-सारा मुल्क / दाढ़ियों के जंगल में / तब्दील हो जाता है / एक दूसरा फ़तवा आता है और / चमकते चाँद काले लबादे में ढँक / सहम कर कोनों में दुबक जाते हैं / तीसरा फ़तवा आता है / अपने को धरती के सबसे मजबूत / कहने वाले कुछ लोगों के द्वारा / वे अचानक / एक पत्थर की मूर्ति से / डर गए
ज़िंदा हूँ कि एक कवि / होने का अहसास ज़िंदा है / आज ढोल की तरह टांग दिया है / तुमने खूंटी पर / कल नगाड़े की तरह / तुम्हारे सर पर मुनादी करूंगा / अपने समय का कवि हूँ / समय का सवार नहीं हूँ मैं – ‘ अपने समय का कवि’ चने को घुन खा रहा है / लोहे को खाए जा रहा है जंग / मित्र अब शिष्ट हो रहे हैं / पहले की
जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है जो रवि के रथ का घोड़ा है वह जन मारे नहीं मरेगा नहीं मरेगा जो जीवन की आग जला कर आग बना है फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है जो युग के रथ का घोड़ा है वह जन मारे नहीं मर
किसके माथे से गुलामी की सियाही छूटी मेरे सीने में अभी दर्द है महकूमी का मादरे हिंद के चेहरे पे उदासी है वही कौन आज़ाद हुआ खंज़र आज़ाद है सीने में उतरने के लिए मौत आज़ाद है लाशों पे गुजरने के लिए काले बाज़ार में बदशक्ल चुडैलों की तरह कीमतें काली दुकानों पे खड़ी रहती हैं हर खरीदार की जेबों को
खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार अपरिचित पास आओ आँखों में सशंक जिज्ञासा मिक्ति कहाँ, है अभी कुहासा जहाँ खड़े हैं, पाँव जड़े हैं स्तम्भ शेष भय की परिभाषा हिलो-मिलो फिर एक डाल के खिलो फूल-से, मत अलगाओ सबमें अपनेपन की माया अपने पन में जीवन आया