मनीषा के पैरों तले ज़मीन ही खिसक गयी जब बैंक अधिकारी पुष्पेन्द्र कुमार ने उन्हें बताया कि वह उनका मकान किराये पर नहीं ले सकता क्योंकि बैंक के वकील ने कहा है कि उस मकान की मालकिन नहीं होने के कारण वे किरायानामा निष्पादित करने के लिए सक्षम ही नहीं हैं I वह अपने मकान के इलेक्ट्रिक कनेक्शन के सिलसिले में बिजली बोर्ड गईं तो वहां भी उनका आवेदन स्वीकार नहीं किया गया क्योंकि उनकी हैसियत नाँ तो मकान-मालिक की थी और नाँ ही किरायेदार की I
मनीषा अपने बेटे समरेश के पास लंदन जाना चाहती हैं इसलिए उन्होंने तय किया है कि वे अपना मकान किसी राजकीय अधिकारी को किराये पर दे जाएँगी ताकि उन्हें आमदनी के साथ ही उनके मकान का रखरखाव भी होता रहे और इसकी सुरक्षा भी बनी रहे लेकिन इसके लिए रैंट एग्रीमेंट होना ज़रूरी है परंतु उन्हें अब समझ आ चुका है कि कानून की नज़र में इस मकान पर उनका कोई मालिकाना हक़ है ही नहीं
क्योंकि यह अभी तक भी उनके स्वर्गीय पति के ही नाम पर है I वे यह भी जान चुकी हैं कि इसे अपने नाम करवाने के लिए उन्हें बहुत भागदौड़ करनी होगी I
वकील से यह जानकर कि उनके पति की कोई वसीयत उपलब्ध हो तो मकान का मालिकाना हक़ आसानी से बदलवाया जा सकता है, मनीषा ने घर में तलाश की I सत्येन्द्र के दोस्तों से भी पूछताछ की I सत्येन्द्र जिस नोटरी से अपने दस्तावेज़ सत्यापित करवाया करते थे, उसके रजिस्टर भी छान मारे I पंजीयन विभाग में भी धक्के खाए I सब जगह सिर्फ निराशा ही हाथ लगी I
सत्येन्द्र की मृत्यु करीब दो साल पहले कोरोना से हुई थी I तब उन्हें अपनी सरकारी नौकरी से रिटायर हुए पांच साल हो चुके थे I सेवानिवृत्ति के दो साल बाद भी उन्हें इलाज़ के लिए एक महीना अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा था I हैरानी की बात है कि साठ की उम्र पार हो जाने और काफी बीमार रह चुकने के बावजूद उन्होंने कोई वसीयत की ही नहीं और अगर कोई वसीयत लिखी भी हो तो इसके विषय में अपने परिवार या करीबी दोस्तों को भी बताया ही नहीं I वे शिक्षित थे और अनुभवी भी, इसलिए जानते-समझते ही होंगे कि किसी-भी संपत्ति की वसीयत नहीं होने पर उत्तराधिकारियों को बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ता है I उन्हें तो यह जानकारी भी होगी ही कि किसी सादे कागज़ पर भी सीधे-सरल शब्दों में ही अपनी इच्छा लिखकर किन्हीं दो स्वतंत्र गवाहों से गवाही करवाकर भी वसीयत का काम आसानी से पूरा किया जा सकता है और वे यह काम अस्पताल में अपने इलाज़ के दौरान भी निपटा सकते थे लेकिन उन्होंने इतनी लापरवाही की ही क्यों ?! क्या उन्हें विश्वास हो चला था कि कोई बीमारी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती और वे शतायु तो होंगे ही ? कारण जो भी रहा हो, वे अपने ही परिवार के लिए अपने मकान के साथ-ही-साथ काफी बड़ी समस्या भी छोड़ गए कि यह संपत्ति उनकी पत्नी और संतान की होकर भी फिलहाल उनकी नहीं है I मनीषा को भागदौड़ करते देख उनके रिश्तेदार भी हैरान हैं कि सत्येन्द्र के स्वर्गवास के बाद समरेश कुछ महीने यहीं रहा था और बैंक के खातों तथा अन्य निवेशों को व्यवस्थित कर रहा था लेकिन उसने भी मकान की कोई सुध ही नहीं ली I बेटी समीक्षा अपने ससुराल लौट गयी थी और वह भी मायके की धन-संपत्ति पर कोई ध्यान नहीं दे सकी I
मनीषा का लंदन जाने का कार्यक्रम तो फिलहाल स्थगित ही हो चुका है लेकिन मकान अपने नाम करवाने की कोशिश में यहां-वहां भटकते और थकते उनका मन करता है कि अपनों व परायों को चीख-चीखकर कहें कि अगर साठ पार कर चुके हो और तुम्हारे नाम कुछ-भी धन-संपत्ति हो तो इसकी वसीयत करने में देर मत करो लेकिन उन्हें ख्याल आया कि यह सलाह अगर वे अपने करीबी लोगों को भी देंगी तो
संभावना यही है कि ज़्यादातर लोग इसे पसंद ही नहीं करेंगे क्योंकि कोरोना से चारों तरफ तबाही देख लेने के बावजूद वसीयत लिखना आम तौर पर अपशकुन ही मान लेने की मानसिकता ख़त्म नहीं हुई है I शायद ऐसे लोगों के मन में आत्मविश्वास भी हो कि ब्रह्माजी ने उनके खाते में सौ साल उम्र तो लिखी ही होगी I