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परिवार : सुख-सुविधाएं हमें ना सही, तुम्हें ही सही.........

15 मई 2022

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          अपने डॉक्टर बेटे के बंगले में उसकी कार साफ़ कर रहे ड्राईवर से बतियाते राधाकिशन जी को भ्रम-सा हो रहा था कि नज़दीक खड़ी उनकी मोटरसाइकिल उस कार को घूर रही है और उसकी नज़रों में नाराज़गी भी है I  यह कार खरीदने में अपने लाडले प्रतीक की मदद के लिए उन्होंने अपनी कार बेच दी थी क्योंकि वह यही मॉडल लेने का मन बना चुका था लेकिन भुगतान के लिए उसे धन कम पड़ रहा था I  राधाकिशन जी को वह कार डॉक्टर अमरनाथ काटजू अमेरिका में अपने बेटे के साथ बस जाने के लिए अपना देश छोड़ते समय सम्मानपूर्वक भेंट कर गए थे I  डॉक्टर काटजू अपने दोस्तों से कहा करते थे कि उनकी प्राइवेट क्लिनिक के फलने-फूलने में उनके कंपाउंडर राधाकिशन की समझ, मेहनत और मरीजों से दोस्ताना व्यवहार का बहुत बड़ा हाथ था I  

        डॉक्टर काटजू की उस सिंगलहैण्ड कार के रखरखाव का खर्च राधाकिशन जी पर भारी नहीं पड़ रहा था और उस गाड़ी के लिए उनकी ज़रूरत, हसरत व उसे दौड़ाने की ताक़त को अभी जंग भी नहीं लग पाया था लेकिन उन तक जब यह बात पहुँची कि प्रतीक अपनी नौकरी की शुरुआत में ही अपने लिए जो कार लेना चाह रहा है, उसका भुगतान कर पाने में उसे दिक्कत हो रही है तो उन्होंने अपनी कार बेच देने में देर नहीं की I  पत्नी सुषमा को तसल्ली देने की कोशिश भी की कि अपने लिए जब कभी ज़रूरी हो, वे प्रतीक की कार ले जा सकते हैं और रिश्तेदारी में किसी-भी शादीब्याह वगैरह में उनका आनाजाना बेटे-बहू के साथ ही तो होगा हालाँकि सुषमा जी समझती थीं कि उनके घर किसी मेहमान के आ जाने पर या किसी आकस्मिक संकट पर कार की ज़रूरत पड़ जाने पर भी उनके पति प्रतीक की सुविधा-असुविधा का ही ख्याल करेंगे I 

          डॉक्टर काटजू की क्लिनिक बंद हो जाने के साथ ही राधाकिशन जी की नौकरी का दौर भी ख़त्म हो चुकने के बाद भी उनकी भागदौड़ थमी नहीं है I  प्रतीक के बैंक के लेनदेन तथा उसके निवेश और बीमा, बिजली, पानी वगैरह के भुगतान सरीखे कई काम भी उन्होंने अपने ही ज़िम्मे ले रखे हैं I  डॉक्टर काटजू के कई मरीज अभी-भी अपने परिवार के सदस्यों के इलाज़ के सिलसिले में राधाकिशन जी से सलाह लेते हैं I  अपनी दोस्ती और रिश्तेदारियां भी तो निभानी ही पड़ती हैं I  अपने शहर में कहीं-भी आनेजाने के लिए उनकी पुरानी मोटरसाइकिल ही अब उनका सहारा है I  इसे स्नेहवश उन्होंने नाम भी दिया है, ‘संस्कारी’ I  बारिश हो या कंपकंपाती हवा या फिर झुलसाती हुई लू, संस्कारी ही उन्हें यहां-वहां दौड़ लगवाती है I  कभी-कभार बाज़ार या किसी रिश्तेदारी तक सुषमा जी का भी साथ हो जाता है I  राधाकिशन जी को अक्सर प्रतीत होता है कि उनकी संस्कारी अपने घिसपिट चुके टायर बदलवाने की ज़रूरत को नज़रअंदाज़ करते रहने के लिए उन्हें उलाहना दे रही है I  टूटीफूटी सड़कों पर दौड़ती-भागती संस्कारी की हालत से घबराई सुषमा जी इसकी हालत सुधरवा लेने के लिए पति को याद दिलाती रहती हैं  लेकिन वे उनकी चिंता को भी नज़रंदाज़ करते आ रहे हैं I  सोचते हैं कि अपने मकान की मरम्मत करवा लूँ और सुषमा को किचन में कुछ अच्छी सुविधाएं भी जुटा दूँ तो संस्कारी की ज़रूरतें भी पूरी कर ही दूँगा I  अपनी मोटरसाइकिल का हुलिया संवारने लायक धन तो उनके पास अब भी है लेकिन वे मानते हैं कि मकान की मरम्मत ऐसा काम है जो शुरू हो जाने के बाद खर्च की तयसीमा में पूरा हो ही नहीं सकता I  उनकी नौकरी के दौरान उनकी आमदनी से किफ़ायत से घरखर्च चलाते सुषमा जी ने कभी-भी कोई ख़ास परेशानी महसूस होने ही नहीं दी थी I  पुश्तैनी ज़ायदाद की बिक्री से मिली रक़म से प्रतीक की पढ़ाई और शादी के खर्चों का इंतज़ाम हो ही गया था I  अपने खानेपीने और रोजमर्रा के खर्चों के लिए कोई दिक्कत तो अब भी नहीं है लेकिन कोई-ना-कोई नया खर्च किसी उपाय की तलाश के लिए उन्हें मज़बूर कर ही देता है I   

          अपने पति की चिंता और उनकी भागदौड़ से मन-ही-मन दु:खी सुषमा जी अब महसूस करती हैं कि प्राइवेट स्कूल वाली अपनी नौकरी घरगृहस्थी और प्रतीक की पढ़ाई के लिए बीच में ही छोड़ ना दी होती तो आज छोटेमोटे खर्चे भी टालते रहने की नौबत ना आती I  उनके भाई-भाभी और बहनें भी उनके लिए चिंतित तो रहते ही हैं लेकिन चाहकर और कोशिश करके भी उनकी मदद कर नहीं पाते I  बुज़ुर्ग रिश्तेदार भी मानते हैं कि अपनी उम्र का बड़ा हिस्सा अपने परिवार पर खपा देने वाली उनकी सुषमा को रहनसहन, स्वास्थ्य और मनोरंजन की अच्छी और सम्मानपूर्ण बुनियादी सुविधाओं का भी हक़ है और कभीकभार दबी ज़ुबान पूछ ही लेते हैं कि उन्हें अपने बेटे से कोई मदद नहीं मिलती ?  ऐसे हर सवाल पर सुषमा जी का वही जवाब होता है, “प्रतीक तो कहता है कि आपको जो-कुछ ज़रूरत हो, ले लिया करो लेकिन हम ही उसे मना कर देते हैं I  वह भी तो अपनी घर-गृहस्थी अभी जमा ही रहा है I  वैसे भी अब इस उम्र में हमारी ज़रूरतें बहुत ही कम हो चुकी हैं I”    

          प्रतीक और उसकी पत्नी अंजलि साल में एक-दो बार छुट्टियां मनाने अपने दोस्तों के साथ देश-विदेश में कहीं-ना-कहीं जाते ही हैं I  उस दौरान उनका बंगला ही राधाकिशन जी और सुषमा जी का ठिकाना हो जाता है,  अपने बेटे-बहू के घर की सुरक्षा के लिए भी और उनके पालतू कुत्ते नन्हे शैरी की देखभाल के लिए भी I  पिछले दिनों जब प्रतीक और अंजलि यूरोप घूम रहे थे, एक दिन सुषमा जी की दोनों बहनें उनसे मिलने बंगले ही आ गईं I  राधाकिशन जी कुछ ज़रूरी कामों के लिए घर से बाहर थे I  तीनों बहनें बंगले के गार्डन में ही जम गईं I  गपशप के बीच सुषमा जी चायनाश्ता लेने अंदर गईं और वापस आते उन्होंने छोटी बहन निवेदिता को बड़ी बहन से कहते सुना, “आशा दीदी ! इस गार्डन की सजावट पर प्रतीक ने जितना खर्च किया होगा, उसमें सुषमा दीदी के मकान की मरम्मत तो निपट ही जाती I”  निवेदिता की इस बात से अनजान बने रहने का दिखावा तो सुषमा जी ने कर लिया लेकिन समझती तो वे भी थीं कि उसकी बात गलत नहीं है I  

          बहनों के चले जाने के बाद सुषमा जी की नज़र अपनी तकलीफ़ को चुपचाप सह रही संस्कारी पर पड़ी और उन्होंने अपने मन को एक बार फिर तसल्ली दी, “इस ढलती उम्र में अपनी चिंता क्या करनी ?  जो-कुछ हो जाए तो ठीक, ना हो तो भी ठीक I”  और फिर शैरी के खानेपीने का इंतज़ाम करने में जुट गईं I 


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