84 वर्षीय श्री सत्य साईं बाबा आजादी के बाद देश-विदेश में अपना विशेष प्रभाव रखने वाले प्रसिद्ध धर्मगुरु के रूप में जाने जाते हैं। सत्य और विज्ञान को वह अपनी तरह से परिभाषित करते हैं। जानते हैं उनके पांच सूत्रों को।
सत्य
सत्य वह है, जो समय, स्थान और गुण में बदलाव होने पर बदलता नहीं है। वह शाश्वत है, अप्रभावी और अपरिवर्तनीय है। सच वह है, जिसे महज किसी घटना या जानकारी के आधार पर झूठा साबित नहीं किया जा सकता। भौतिक जगत में लगातार बदलाव होते रहते हैं, पर ईश्वर बिल्कुल शुद्ध है, पूर्ण है और वही अंतिम सत्य है। इस सच को केवल शुद्ध चेतन वाला व्यक्ति ही अनुभव कर सकता है। इसे माया या संदेह में रह कर हासिल नहीं किया जा सकता। सत्य के तीन प्रकार हैं: निजम (तथ्य), सत्यम (सच) और ऋतम (पूर्ण सच)।
तथ्य समय के अनुसार बदलता रहता है, पर सच हमेशा एक-सा रहता है। ऋतम का संबंध आत्मा से है, शरीर और दिमाग के विपरीत अपरिवर्तनीय और शाश्वत है। मनुष्य का मुख्य दायित्व यही है कि वह सच की खोज करे। सच को सिर्फ समर्पण और निष्ठा से ही हासिल किया जा सकता है, जो कि भगवान के आशीर्वाद स्वरूप ही प्राप्त होते हैं।
भगवान उसी पर कृपा करते हैं, जिसका हृदय प्रेम से परिपूर्ण होता है। सच का अनुभव सिर्फ प्रेम से किया जा सकता है और प्रेम को केवल सत्य द्वारा हासिल किया जा सकता है। इसलिए सच बोलो, पर पूरी विनम्रता और शालीनता के साथ। यदि आप किसी की भलाई नहीं कर सकते तो कम से कम भलाई से बात तो कर सकते हैं। सच को जानना है तो उसके रूप भगवद्गीता को पढ़ो। यह दर्द, दु:ख और क्रोध उत्पन्न करने वाली वाणी बोलने से मना करती है। दु:ख पहुंचाने वाले या किसी का अहित करने वाले शब्दों को नहीं बोलना चाहिए। सच में आस्था होना ही आपको दीर्घकाल में सुरक्षा देगा। कठिन परिस्थितियों में सत्य पर अडिग रहो।
धर्म
धर्म की व्याख्या पवित्रता, शांति, सच और क्षमा रूपों में की गई है। धर्म योग है, जिसमें आप भगवान के साथ जुड़ते हैं। धर्म सच है, न्याय, इंद्रियों पर संयम, प्रेम, सम्मान, सज्जनता, ध्यान, सहानुभूति, अहिंसा इसके गुण हैं। धर्म हमें वैश्विक प्रेम और एकता की ओर ले जाता है। जो आप उपदेश देते हैं, उसका स्वयं अभ्यास करना, जो बोलते हैं, जैसा बोलते हैं, उसे करना और सही दिशा और विचार के साथ अपने अभ्यास को जारी रखना ही धर्म है।
अपनी भूमिका का निर्वहन नाटक में काम करने वाले कलाकार की तरह करें। जैसे कलाकार खुद को निभाई जा रही भूमिका से निर्लिप्त रखता है, अपनी पहचान को बरकरार रखता है, उसी तरह आप भी संसार में निर्लिप्त भाव से आचरण करें। लगातार आपका यह स्मरण बना रहना चाहिए कि यह चीजें महज एक नाटक हैं और उसमें ईश्वर ने आपको भी एक भूमिका निभाने के लिए भेजा है।
अपने पात्र को सही तरह से निभाएं, इसी तरह आपके दायित्व पूरे होंगे। उसने इस नाटक का निर्माण किया है और वह इसका मजा ले रहा है। कौन धर्म पथ पर है, इस प्रश्न का जवाब होगा- वह व्यक्ति जो अपने अहं को जीत लेता है, अपनी इच्छाओं से ऊपर उठ जाता है, दुर्भावनाओं को नष्ट कर देता है और सहज मानवीय आचरण करता है, निश्चित ही धर्म के पथ पर बढ़ रहा है।
शांति
वास्तव में शांति है क्या? यह ऐसी स्थिति है, जहां मनुष्य इंद्रियों पर जीत हासिल कर लेता है। शांति का अनुभव करने के लिए हम अपनी अतिरिक्त इच्छाओं और व्यर्थ अपेक्षाओं से मुक्ति पा लेते हैं। क्रोध बाहरी स्थितियों का नहीं, हमारी अपनी अधूरी रह गई इच्छाओं का परिणाम है। आस्था शांति देती है। जब हम भगवान द्वारा बनाए गए इस जगत का आधार समझ लेते हैं तो बदलती स्थितियां हमें विचलित नहीं करतीं। मानसिक शांति हासिल करने का सबसे अच्छा जरिया भगवान और अपनी आत्मा में विश्वास करना है।
वास्तविक शांति आत्मा की गहराई में उतर कर ही हासिल की जा सकती है। मन के संयम से हासिल हो सकती है। आप खुद को गतिविधियों से अलग नहीं कर सकते। मन स्वभावानुसार एक चीज से दूसरी चीज पर भटकेगा ही, पर समस्त चीजों को भगवान को सौंप दें, चाहे सफलता हो या असफलता, तभी आपको शांति और संतुष्टि मिलेगी।
प्रेम
प्रेम भगवान है, भगवान प्रेम में ही बसते हैं, आदर्श प्रेम का स्वरूप ही भगवान है। भगवान को प्रेम के द्वारा ही जाना और हासिल किया जा सकता है। जैसे चांद अपनी किरणों के कारण ही रौशन होता है, भगवान को भी आप प्रेम की किरणों से देख सकते हैं। प्रेम में मिलन होता है, द्वैत का भेद खत्म हो जाता है, हमारी सोच, वाणी और कार्य एक हो जाते हैं। साधना से प्रेम की उत्पत्ति करें और उसे फैलाएं, लाखों लोगों को इस प्रेम की जरूरत है। जितना प्रेम बांटा जाएगा, उतना ही यह बढ़ेगा और उतना ही यह और प्यारा लगेगा। जब आप आत्म स्वरूप की चेतना के साथ जी रहे होते हैं, तब आप प्रेम में जीते हैं और आपके द्वारा प्रेम एक से अनेक तक जाता है।
अहिंसा
अहिंसा का आशय महज प्राणी मात्र को शारीरिक रूप से कष्ट पहुंचाना नहीं है। यदि आप अहिंसक हैं तो आप अपने शब्द, अपने हाव-भाव से भी किसी को कष्ट नहीं पहुंचाते। धैर्य और क्षमा द्वारा ही अहिंसा को हासिल किया जा सकता है। अहिंसा भी सच का ही एक दूसरा रूप है। किसी व्यक्ति के कार्य के पीछे की सोच उसके कार्य को हिंसक या अहिंसक बनाती है। जब कोई ठग आप पर हमला कर आपका हाथ काट देता है तो वह हिंसा है। पर यदि डॉक्टर को जीवन बचाने के लिए किसी मरीज का क्षतिग्रस्त हाथ काटना पड़ता है तो वह हिंसा नहीं है।
दूसरे को कष्ट पहुंचाना, खुद को कष्ट पहुंचाना ही है। हमें अपने कार्यो के परिणाम भुगतने ही होंगे, चाहे वर्तमान में या फिर भविष्य में। यह परिणाम हमेशा स्पष्ट नहीं होते, पर क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्य होती है। इसलिए सबसे बेहतर है कि आप दूसरों को नुकसान न पहुंचाएं। बाइबिल में भी कहा है कि ऐसा कोई काम मत करो, जो आप अपने साथ होना पसंद नहीं करते। हमेशा दूसरों की मदद करें, किसी को दुख न दें।