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मानव कौल के बारे में

मानव कौल एक भारतीय थिएटर निर्देशक, नाटककार, लेखक, अभिनेता और फिल्म निर्माता हैं। अब तक उनकी कई रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। उनके उल्लेखनीय नाटकों में इल्हाम, पार्क और शक्कर के पांच दाने हैं, जो 2004 में नाटककार और निर्देशक के रूप में उनकी पहली फिल्म भी थी। उनकी सातवीं कृति, हिंदी कविताओं का एक संग्रह, “करता ने कर्म से” है जो अभी हाल ही, २०२१ में प्रकाशित हुई है। उनकी आठवीं क़िताब जो कि उनका दूसरा उपन्यास भी है, जल्द ही आने वाली है। कौल का जन्म 19 दिसंबर 1976 को बारामूला, जम्मू और कश्मीर, भारत में एक कश्मीरी पंडित परिवार में हुआ था। वे मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में रहते थे। 2004 में अरण्य नामक थिएटर ग्रुप शुरू करने से पहले, वह एक तैराक थे और उन्होंने राज्य और राष्ट्रीय स्तर की चैंपियनशिप में भाग लिया था। पिछले 20 सालों से मुंबई में फ़िल्मी दुनिया, अभिनय, नाट्य-निर्देशन और लेखन का अभिन्न हिस्सा बने हुए हैं। अपने हर नए नाटक से हिंदी रंगमंच की दुनिया को चौंकाने वाले मानव ने अपने ख़ास गद्य के लिए साहित्य-पाठकों के बीच भी उतनी ही विशेष जगह बनाई है। इनकी पिछली दोनों किताबें ‘ठीक तुम्हारे पीछे’ और ‘प्रेम कबूतर’ दैनिक जागरण नीलसन बेस्टसेलर में शामिल हो चुकी हैं। यह इनकी तीसरी किताब है, जो हिंदी लिखाई में एक अनूठा प्रयोग भी है।

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मानव कौल की पुस्तकें

रूह

रूह

मैं जब इस किताब को लिखने, अपनी पूरी नासमझी के साथ कश्मीर पहुँचा तो मुझे वहाँ सिर्फ़ सूखा पथरीला मैदान नज़र आया। जहाँ किसी भी तरह का लेखन संभव नहीं था। पर उन ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलते हुए मैंने जिस भी पत्थर को पलटाया उसके नीचे मुझे जीवन दिखा, नमी और

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249/-

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मैं जब इस किताब को लिखने, अपनी पूरी नासमझी के साथ कश्मीर पहुँचा तो मुझे वहाँ सिर्फ़ सूखा पथरीला मैदान नज़र आया। जहाँ किसी भी तरह का लेखन संभव नहीं था। पर उन ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलते हुए मैंने जिस भी पत्थर को पलटाया उसके नीचे मुझे जीवन दिखा, नमी और

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 ठीक तुम्हारे पीछे

ठीक तुम्हारे पीछे

यह मानव कौल द्वारा लिखा 12 हिंदी कहानियों का संग्रह है। लोग मानव को एक नाटककार, नाटक-निदेशक, फिल्म अभिनेता, निर्देशक आवाम लेख के तौर पर पहचानते रहे हैं। मगर हिंद युगम पहली बार इनकी कहानियों को पाठक के लिए आया है। ठीक तुम्हारे पीछे मानव कौल का पहला क

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 ठीक तुम्हारे पीछे

ठीक तुम्हारे पीछे

यह मानव कौल द्वारा लिखा 12 हिंदी कहानियों का संग्रह है। लोग मानव को एक नाटककार, नाटक-निदेशक, फिल्म अभिनेता, निर्देशक आवाम लेख के तौर पर पहचानते रहे हैं। मगर हिंद युगम पहली बार इनकी कहानियों को पाठक के लिए आया है। ठीक तुम्हारे पीछे मानव कौल का पहला क

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चलता-फिरता प्रेत

चलता-फिरता प्रेत

बहुत वक़्त से सोच रहा था कि अपनी कहानियों में मृत्यु के इर्द-गिर्द का संसार बुनूँ। ख़त्म कितना हुआ है और कितना बचाकर रख पाया हूँ, इसका लेखा- जोखा कई साल खा चुका था। लिखना कभी पूरा नहीं होता... कुछ वक़्त बाद बस आपको मान लेना होता है कि यह घर अपनी सारी

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चलता-फिरता प्रेत

चलता-फिरता प्रेत

बहुत वक़्त से सोच रहा था कि अपनी कहानियों में मृत्यु के इर्द-गिर्द का संसार बुनूँ। ख़त्म कितना हुआ है और कितना बचाकर रख पाया हूँ, इसका लेखा- जोखा कई साल खा चुका था। लिखना कभी पूरा नहीं होता... कुछ वक़्त बाद बस आपको मान लेना होता है कि यह घर अपनी सारी

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बहुत दूर कितना दूर होता है

बहुत दूर कितना दूर होता है

एक संवाद लगातार बना रहता है अकेली यात्राओं में। मैंने हमेशा उन संवादों के पहले का या बाद का लिखा था... आज तक। ठीक उन संवादों को दर्ज करना हमेशा रह जाता था। इस बार जब यूरोप की लंबी यात्रा पर था तो सोचा, वो सारा कुछ दर्ज करूँगा जो असल में एक यात्री अपन

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बहुत दूर कितना दूर होता है

बहुत दूर कितना दूर होता है

एक संवाद लगातार बना रहता है अकेली यात्राओं में। मैंने हमेशा उन संवादों के पहले का या बाद का लिखा था... आज तक। ठीक उन संवादों को दर्ज करना हमेशा रह जाता था। इस बार जब यूरोप की लंबी यात्रा पर था तो सोचा, वो सारा कुछ दर्ज करूँगा जो असल में एक यात्री अपन

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शर्ट का तीसरा बटन

शर्ट का तीसरा बटन

मैं अपने घर में थी जब मैंने ‘अपराध और दंड’ पढ़ी थी और घर छोड़ते ही मैंने ‘चित्रलेखा’ पढ़ना शुरू किया था। बहुत कोशिश के बाद भी मैं ‘अपराध और दंड’ को छोड़ नहीं पाई। मैंने उसे अपने बैग में रख लिया। बीच-बीच में ‘चित्रलेखा’ पढ़ते हुए मैं ‘अपराध और दंड’ के

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शर्ट का तीसरा बटन

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मैं अपने घर में थी जब मैंने ‘अपराध और दंड’ पढ़ी थी और घर छोड़ते ही मैंने ‘चित्रलेखा’ पढ़ना शुरू किया था। बहुत कोशिश के बाद भी मैं ‘अपराध और दंड’ को छोड़ नहीं पाई। मैंने उसे अपने बैग में रख लिया। बीच-बीच में ‘चित्रलेखा’ पढ़ते हुए मैं ‘अपराध और दंड’ के

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 तुम्हारे बारे में...

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मैं उस आदमी से दूर भागना चाह रहा था जो लिखता था। बहुत सोच-विचार के बाद एक दिन मैंने उस आदमी को विदा कहा जिसकी आवाज़ मुझे ख़ालीपन में ख़ाली नहीं रहने दे रही थी। मैंने लिखना बंद कर दिया। क़रीब तीन साल कुछ नहीं लिखा। इस बीच यात्राओं में वह आदमी कभी-कभी मेर

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मैं उस आदमी से दूर भागना चाह रहा था जो लिखता था। बहुत सोच-विचार के बाद एक दिन मैंने उस आदमी को विदा कहा जिसकी आवाज़ मुझे ख़ालीपन में ख़ाली नहीं रहने दे रही थी। मैंने लिखना बंद कर दिया। क़रीब तीन साल कुछ नहीं लिखा। इस बीच यात्राओं में वह आदमी कभी-कभी मेर

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अंतिमा

अंतिमा

कभी लगता था कि लंबी यात्राओं के लिए मेरे पैरों को अभी कई और साल का संयम चाहिए। वह एक उम्र होगी जिसमें किसी लंबी यात्रा पर निकला जाएगा। इसलिए अब तक मैं छोटी यात्राएँ ही करता रहा था। यूँ किन्हीं छोटी यात्राओं के बीच मैं भटक गया था और मुझे लगने लगा था क

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अंतिमा

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कभी लगता था कि लंबी यात्राओं के लिए मेरे पैरों को अभी कई और साल का संयम चाहिए। वह एक उम्र होगी जिसमें किसी लंबी यात्रा पर निकला जाएगा। इसलिए अब तक मैं छोटी यात्राएँ ही करता रहा था। यूँ किन्हीं छोटी यात्राओं के बीच मैं भटक गया था और मुझे लगने लगा था क

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प्रेम कबूतर

प्रेम कबूतर

मैं नास्तिक हूँ। कठिन वक़्त में यह मेरी कहानियाँ ही थी जिन्होंने मुझे सहारा दिया है। मैं बचा रह गया अपने लिखने के कारण। मैं हर बार तेज़ धूप में भागकर इस बरगद की छाँव में अपना आसरा पा लेता। इसे भगोड़ापन भी कह सकते हैं, पर यह एक अजीब दुनिया है जो मुझे बेह

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प्रेम कबूतर

प्रेम कबूतर

मैं नास्तिक हूँ। कठिन वक़्त में यह मेरी कहानियाँ ही थी जिन्होंने मुझे सहारा दिया है। मैं बचा रह गया अपने लिखने के कारण। मैं हर बार तेज़ धूप में भागकर इस बरगद की छाँव में अपना आसरा पा लेता। इसे भगोड़ापन भी कह सकते हैं, पर यह एक अजीब दुनिया है जो मुझे बेह

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कर्ता ने कर्म से

कर्ता ने कर्म से

हम जितने होते हैं वो हमें हमसे कहीं ज़्यादा दिखाती है। कभी एक गुथे पड़े जीवन को कलात्मक कर देती है तो कभी उसके कारण हमें डामर की सड़क के नीचे पगडंडियों का धड़कना सुनाई देने लगता है। वह कविता ही है जो छल को जीवन में पिरोती है और हमें पहली बार अपने ही

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कर्ता ने कर्म से

कर्ता ने कर्म से

हम जितने होते हैं वो हमें हमसे कहीं ज़्यादा दिखाती है। कभी एक गुथे पड़े जीवन को कलात्मक कर देती है तो कभी उसके कारण हमें डामर की सड़क के नीचे पगडंडियों का धड़कना सुनाई देने लगता है। वह कविता ही है जो छल को जीवन में पिरोती है और हमें पहली बार अपने ही

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