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आज मन की हलचलों ने कदमों को चलने न दिया।बहुत सोचा जाऊं या ना जाऊ । घर दूर, अपने आंखों से दूर, मौसम भी मगरूर ठंडी का है।सफर सहर में है। शाम की बातों ने मन को बोझिल कर दिया था।सब हलचलों और बोझिल शाम को समेट अपनी चारपाई पर तकिए के नीचे दबा लिया था। ठंडी की सिहरन
ना तेरा रहा ना मेरा रहा। प्रेम में हिसाब-किताब रखने का ना बहिखाता तेरा रहा, ना मेरा रहा। दौर जिंदगानी का बितता रहा, ना ईष्र्या रही ना द्वेष रहा। अपनेपन का अहसास कुछ तुझमें बाकी रहा, कुछ मुझमें बाकी रहा। चंद सांसें एक दूजे में उलझ जाये, रिश्ता ये उल्फत का सितम बन कर जहने सहर से टकराता रहा। थाम ले जो
स्पर्श (यादों का) मैं खेल रही हूं तेरे आंगन में, क्योंकि मैं आज भी तुम्हारी मुस्कान हूं। तुम ही कहते थे ना,तुम मेरे होंठों की मुस्कुराहट में हों। जब मेरे अंतर्मन में कोई बात लगती है मैं आज भी तुम्हारी मुस्कान को ले आती हूं अपने होंठो पर, तुम अपनी गिलगिली उंगलियों को मेरे होंठों पर रख देते थे ना, जब
भाषा है हर संवाद के लिए जरूरी, फिर क्यों बनें अंग्रेजी जरूरी? अपनी निज भाषा, क्यों बनें तमाशा? शब्दों के अर्थ में बंधकर, बोले जो भी भाषा, वहीं है अपनी आशा संवाद के लिए जरूरी है जितनी भाषा, खुद को सुनाने के लिए भी, जरूरी है अपनी भाषा। चहुंओर लड़ाई है, कहीं क्षेत्रवादिता, कहीं भाषावादिता, वाद, विवा
तनहाई घिरने लगा मन में अंधेरा, जब शांत होकर मैं आई। मन में होने लगी उथल-पुथल, यादों ने ली अंगड़ाई। कोई नहीं था, संग मेरे, मैं थीं खुद में समाई। मैं थीं,और थीं मेरी तन्हाई, खुशी हो, या हो गम हम दोनों ही तो है, इसके सिवा है किसकी परछाई? मैं और तन्हाई......... आंखों की नमी उभर आई, मुस्कुरा कर लबों ने
छुप ने लगे हैं रिश्ते कि चुभने लगें हैं रिश्ते। दर्द गहरा है, आंखों की कोर पर आंसू कोई ठहरा है। शामिल हो चले हैं लोगों के मेले में, खुद को खुद से छुपाने में शामिल होने लगें हैं झमेले में। रोज रोज कहां बहार आती है, बिन चाही बरसात भी आ जाती है। मन की जमीं सुलग रही है शोलो से, बात जुबां पर न आ जाए । चु
जब लोगों को अपने पन से तकलीफ होने लगें, आपकी बातें उन्हें ताने लगनी लगे, तो कहां जाओगे? उन्हें कब तक अपना समझ, समझाओगे, मनाओगे? जिसके दिल की जगहें संकुचित होने लगे। प्रेम और समझ ,शक में सिमटने, सिकुड़ने लगे। समाज जंजीर बन जकड़ने लगे। आपका विश्वास (साथी)आपसे अकड़ने लगे। तो दूरी के सिवा क्या दवा है।
आपके लबों का काला तिल, प्रेम से भरा मतवाला दिल, हमें आपका बताता है। गालों पर बिखरी, आपकी काली लट, आपके कंधे पर पड़ती, आंचल की चुनन्ट, हमें आपका बनाता है। आपकी गोरी कलाई में इतराता कंगना, बाहों में भर आपका कहना, ओ सजना... हमें आपका बताता है। आपके नाक की लोंग, कानों में लटकती सोने की लड़ियां। आपके ब
सजना, संवरना से जुड़ा कैसे है। यह मालूम न था। रोज रोज एक ही चेहरा आंखों के सामने आता था। मन उसे देखकर खिलखिलाता था। देख ले एकबार, वो मुझे गौर से और ठहर जाये उसकी नजर सिर्फ मुझपे, दिल यही चाहता था। उम्र है छोटी, इसमें यह सब खेल से ज्यादा भाने लगा था। रोज सुबह से शाम
बातों का खजाना  औरतों की अभिव्यक्ति को बातूनी कहकर दरकिनार कर दिया जाता है। औरत स्वयं में चलती फिरती कहानी है, वह अपनी वास्तविक जिंदगी के बहुत से क़िरदारों को जीती हैं। पिता का साया सिर पर नहीं हो तो पिता बन जाती है। घर की बड़ी स्वयं हों तो बेटा बन जाती है। औरत जिम्मेदारी की पहली जुबान है। जिसे हर
हिंदी है हम वतन है। अपनी अभिव्यक्ति कहने का जतन है, अपनी संस्कृति का न हो पतन, बस यही जतन है। हिंदी है हम वतन है। जुबानें बेहिसाब है जहां में, हम वतन के, खुद के आजाद ख्यालात की, जुबान है हिंदी... अपनेपन का अहसास, खुद के शब्दों की परवाज़ है हिंदी, कोयल की जुबान है हिंदी। हिंदी है हम वतन है...
वो मुझे सुबह भेजती, मैं उसे शाम भेजता। वो सुबह सी ताजगी देती, मैं शाम का सुकुन देता। वो सुबह की चहक बन जाती, मैं शाम का साज बनता। वो सुबह के फूलों सी, बन तितली, मेरे मन भाती, मैं शाम का झिगूंर, बन जुगनू , उसकी आस को रोशन करता। वो सुबह की लाली, मैं शाम का गोधूलि बेला। वो सुबह प्रीत मेरी, मैं शाम मी
बिन विश्वास के रिश्ते बिन विश्वास के रिश्तों में, सफाईयां, सबूत चलते हैं। फिर भी रिश्ते कहां चलते हैं? ये हैं आज के शिशमहल जैसे, बड़े सुंदर दिखते हैं। नादान पत्थर फेंकने वालों से चोटिल हो जातें हैं। ये रिश्तों के कांच भला कितने दिन टिकते हैं? ये रिश्ते बड़े सुंदर दिखते हैं। ये चाइना के सामान की तरह
ये मन... ये मन बिन डोर की पतंग, ये मन... इस का कोई ओर न छोर, ले चले चहुंओर। ये मन... कभी खुद से, तो कभी खुदा से, करें गिले शिकवे.. ये मन... ख्वाबों, चाहतों के बाग करें हरे, तो कभी इन्हीं के घाव लिए फिरे। ये मन... कभी लगे मनका(मोती), तो कभी लगे मण का( बोझिल)। ये मन... अदा भी इसी से, तबहा भी इसी से। य
एक दशक बीतने वाला है, बहुत कुछ बदल गया है, बदल रहा है। अगले दशक में जाने से पहले एक नजर देख ले। ये दशक बेटियों की दहशत और आदमी की वहशीपन की आबादगी का रहा। 16की निर्भया और दुधमुंही बच्चियों के जिस्म को नोचने का रहा। नोटों से गांधी गायब नहीं हुआ, बस ये शुक्र रहा। नोट गायब करने की साजिशों का रहा। कितन
समाज का चश्मा चंद रस्मों रिवाज का मोहताज है, तभी वो अपनेपन की पहचान देता है। बिन रस्मों के अपनापन भी आवारगी, अय्याशी की भाषा बन जाता है।
वो अम्मा है ना,अरे वही जो गली में एक घर छोड़ कर अगले ही घर में रहती हैं। हां दीदी, वही अम्मा जिनकी पलकें उनके बालों का साथ निभाते हुए सफेद हो गयी हैं। अच्छा.. वो अम्मा , जिनका मुंह पान की पींग से भरा और होंठ लाल रहते हैं। हां जीजी वहीं लम्बी सी गोरी अम्मा। उनको देख कभी कभी सोचती हूं कि ये अम्मा अभी
काफी अरसे से अखबार पढ रही हूं। हर रोज देश दुनिया के बदलते रंग, ख्वाहिशे, मिज़ाज, लिबास, देख रही हूं। बदलती तारीखों में ना बदलती सोच देख रही हूं। अखबारों की स्याही सूख नहीं पाती कि स्याह खबर फिर दर्ज हो जाती है अख्बार के किसी कोने, कालम में। जिन मुद्दों से लाभ है सियासत को उन्हें सुलझाया नहीं उलझाय
गली, मौहल्ले, गांव, कस्बा, शहर, प्रदेश, देश। सभी जगह है लाकडाउन। सभी जरूरी काम, मीटिंग, स्कूल, कालेज, आफिस हुए लाक। सभी जगह है लाकडाउन। राशन, दवाईयां, घर में रहना हुआ सबसे ज्यादा जरूरी, सभी जगह है लाकडाउन। घर में रहकर, तोता उड़, चिड़िया उड़, कैरम, गीटे, सांप-सीढी, लूडो गोटी, पासा बच्चों के संग खे
आज बैठी थी मैं, अपने परिवार अपने बच्चों के पास, आज सुन रही थी मैं पहले से खास, बच्चे कहने लगे, इस तरह घर में कैद रहने से कहीं अच्छी थी, वो स्कूल की चारदीवारी, जहां पर 5 घंटे के लिए ही जातें, घर से बाहर जाते थे हम। टीचर की सख्ती, फिर भी दोस्तों संग मस्ती, पानी, टायलेट
पैदल निकल गये हजारों लाखों लोग उसी पथ पर, जहां कोरोनावायरस के जीवन और उन पथगीरों के मौत के निशान हैं। क्यों निजामुद्दीन जैसे मकतब, मरकज हाटसपाट बन वायरस के, बढ़ा रहे कोरोना का फैलाव हैं? बार्डर, सरहद पर उतरी जनता, आने वाले खतरे से क्या अंजान है? कल तक जिस शहर को अपना माना, आज उसे छोड़ चल देना, इन स
काश! मैं तुम्हारा मोबाइल होती। तुम संभाल कर रख लेते मुझे, अपने दिल के पास वाली जेब में, हर पल मुझको देखा करते, हर पल मुझको चाहा करते, देखा करते मेरा चेहरा, देर रात तक, भी तुम मुझमें बस खोए रहते, काश! मैं तुम्हारा मोबाइल होती। तुम ख्याल रखते मेरी छोटी छोटी जरूरतों का, तुम ख्याल रखते मेरे वालपेपर क
चारों ओर कोरोना का शोर है। घर में ही रहों,पाबंदियों का दौर हैं। यहां अन्नदाता कमजोर है। नई नई दलीलों पर जोर है। घर में ही रहों,पाबंदियों का शोर है। यहां मजदूर कमजोर है। मजदूरों के बल पर बने बैठे, मालिकों का शोर है। घर में ही रहों, पाबंदियों का दौर हैं। कोरोनावायरस की चपेट में आ रहे लोग हैं। एक से हज
हम का दर्द हुआ कम, जब नशें का जाम लगा छलकने पैमाने में। शराबियों का ईमान भी उनके कदमों के जैसा डगमगाता है। मुफ्त में मिलें तो सरकार बदलती है। खरीद कर पिए तो देश की अर्थव्यवस्था बदलती है। अगर बेचकर पिए तो घर के हालात बिगड़ते हैं। चोरी कर पिए तो चरित्र की काया बदलती है। संसार का सबसे प्यासा, यही बेचा
घर में परिवार हुए एकल, मानव बड़े बूढों की छांव बिना, परछाई से नाता जोड़े हैं। अब बड़े बुजुर्ग पलक पसारे, अखियां रस्ता देखे हैं। अब आंगन में नीम, शीशम की छांव नहीं, आंगन भी अब सीमेंट से छाए हैं। बरामदे का दे नाम, दो गमले नीचे रख, कुछ छोटे गमले लटकाये है। बड़ा बूढ़ा दाढ़ी वाला बरगद पूजे का मिले नहीं
हौसला होता नहीं, जुटाना पड़ता है। पैर उठता नहीं, उठाना पड़ता है। दुनियां जरूरत की है, बिन जरूरत के बोल मिलता नहीं, मिलाना पड़ता है। काम, नाम होता नहीं, मेहनत से बनाया जाता है। हमेशा अच्छा मिलता नहीं, समझौता करना पड़ता है। मुश्किल वक्त जब भी आता है। चहेतों के सच्चे चेहरे लेकर आता है। आशियाना बनता नही
आंखों से पर्दा और तकदीर के लेख अपने समय पर ही खुलकर सामने आते हैं। बातों के फेर और मन भ्रम के फेर एक न एक दिन टूटते जरूर हैं लेकिन जब भी टूटते हैं, सोचने के लिए सवाल और सीख देकर जाते हैं। मन का भ्रम हो या हो मन प्रेम। मन के रिश्ते हैं। मन को ही समझ आते हैं। दिमाग तो है उलझनों का पिटारा, देखते हैं, क
किल में टंगी गर्दन को भी आजाद होना था। रिस्क लेने, झेलने का दर्द भी बहुत हुआ, अब इसे भी खत्म करना जरूरी था। काम की दुनिया से बंधे थे, जो रिश्ते.. वो भी काम की ही दुनिया में सिमट जाएंगे। बिना हक और जरूरत के रिश्ते कब तक साथ चलेंगे? एक न एक दिन बीतते वक्त की धूल में गुम हो जाएंगे। सब भ्रम के पर्दे एक
धर्म धर्म का उफान उठा है, मानव धर्म कोई ना निभाएं। चील, कव्वे, गिध, गधा, कुत्तों का नाम लेकर एक इंसान दूजे को कोसे, पर खुद के अंदर झांकने का इरादा ना पाए। बेटी पिता को बिठा साइकिल पर मीलों सफर कर, अपने गांव घर ले आए। पढ़ें लिखे लोगों के बीच भूख से व्याकुल हथिनी, खानें के नाम पर धोखा खाएं। कदमों के छ
मीठी जुबान बनके कटार हुई मन के पार, जब मुंह ढककर अपने सामने आने लगें। क्या बेटी, क्या बहु, क्या प्रेमिका, क्या मइया, सब मुंह ढककर घर बाहर आने जाने लगें। रिश्तों का भंवर, बीमारी के कहर से शरमाने लगें। छाया ऐसा कोरोना का डर कि अपने भी, गले मिलने से घबराने लगे। दो गज की दूरी, दो गज की कोठरी से है भली।
जब मांझी नाव को बीच मझधार में छोड़, खुद साहिल पर खड़ा हो जाएं तो नाव संभलते, चोट खाते हुए बहाव में ही तो जाएंगी ना... वो पार लगे या पातर पातर होकर मिट जाये, ये उसकी किस्मत। मेहनत करें तो ठीक है, पर चालाकी मेहनत से ऊंची हो कर, दूसरे की छवि पर दाग दे जाए तो क्या ये भी ठीक है? भरोसे के मायने अपने लिए
अपनी अपनी सब कहें, दूजे की सुनें समझें ना। दूसरे को भी अपने से बढ़कर समझें, तो दुःख काहे का होए। अपने को दूसरों की नजरों में, अच्छा बनाने के सो जतन, पर खुद से वास्ता ना होए, औरों के लिए जीने से अच्छा, अपनों संग खुद का भी बेहतर जीवन होए। ना जोगी बन, ना संन्यासी बन.. गृहस्थ जीवन से बढ़कर, ना कर्म तप
लोगों की दगाबाजी, दोगलेबाजी, से आहत होकर पतन की तरफ बढ़ने से अच्छा है, सबक समझकर परिवर्तन की ओर बढ़े..
कोई अपना होता तो कुछ कहते। सर्द हवाओं की चुभन होती या, तपती जून की रातों की बैचेनी उससे सांझा करते। बैचेन कटी रात, करवटों के बदलने का सबब कहते। कोई अपना होता तो कुछ कहते। कच्ची सी नींद, अचानक से आंख का खुल जाना, आंधी रात में झुंझला कर उठ जाना, और फिर मोबाइल में, या यादों की गली में मुड़ जाना। ना जा
वो आई थी मेरे घर, अपना घर बनाने को.. तांक झांक कर देख गई, उठ बैठ कर देख गई, अपना घर बसाने को, वो आई थी मेरे घर, अपना घर बनाने को.. तिनका तिनका बीनने को, दिन पूरा जोड़ दिया, कुछ कम पड़ा तो कुछ और जोड़ लिया। वो आई थी मेरे घर, अपना घर बनाने को.. मेरे घर की आंखें, उसको देखें, उसकी आंखें उनको देखें, थोड़
अर्थ जीते जी तो लोग नजर चुराते हैं, उंगली उठाने में खोए रहते हैं और मरते ही लोग कंधा देने चले आते हैं। चार का रिवाज कम सा हो रहा है। क्योंकि अब के इंसान का शरीर बेदम हो गया है। सिर्फ मुंह में जुबान और हाथ में कमान रह गई है। घरों से कई तानें बाने में बुनी चारपाई हट गई है। जिस पर बैठ लोग कितनी ही बात
दुनिया में आए अकेले हैं। दुनिया से जाना अकेले हैं। दर्द भी सहना पड़ता अकेले हैं। लोग मतलब निकलते ही छोड़ देते अकेला है। तो फिर काहे की दुनियादारी, लोगों से दूर रहने में ही ठीक है। दर्द जब हद से गुजरता है तो गा लेते हैं। जिंदगी इम्तिहान लेती है। कभी इस पग में कभी उस पग में घुंघरू की तरह बजते ही रहें
माना हम चिट्ठियों के दौर में नहीं मिलें, डाकिए की राह तकी नहीं हमने। हम मिले मुट्ठियों के दौर में। जिसमें रूमाल कम, फोन ज्यादा रहता था। माना हम किताब लेने देने के बहाने नहीं मिलें, जिसे पढ़ते, पलटते सीने पर रख, बहुत से ख्वाब लिए उसके साथ सो जाया करते। हम मिले मेसेज, मेसेंजर, वाट्स अप, एफ बी, इंस्टा
कल्पना को आज भी वह शब्द याद है। "साथी" सच इस शब्द के इर्द गिर्द उसने अपनी जिंदगी को बुनना शुरू कर दिया था। जिंदगी है क्या कभी जाना ही नहीं था। रात के अंधेरे में धीरज का मेसेज का स्करीन पर टू टू की आवाज के साथ आना। आज भी कल्पना की धडकनों में रमा है। शाम 8 बजे के बाद जब भी मेसेज की ट्यूनिंग आती। उसे व
कल्पना सपना से अबोध नहीं थी। कल्पना ने सपना को अपनी बातों की खनक से हमेशा धीर के सामने रखा। हालांकि वह दोनों के साथ नहीं होती थी लेकिन वह दोनों से कभी दूर भी नहीं थी। सपना धीरज का अर्धांग है और अर्धांग सांस, आस, विश्वास, से जुड़ा होता है। यह सच भी कभी झूठ नहीं हो सकता। लेकिन औरत भाषा और भाव में पु
ख्वाब और ख़्याल भी न जाने किस गली से आ जाए पता ही नहीं चलता। दिन नवरात्रि के चल रहें थे।कल्पना भी देवी की पूजा में मग्न रही। इन्हीं दिनों एक रात सपने में वह एक छवि देखती है कि लाल साड़ी और कुर्ते पजामे में एक जोड़ा उससे दूर खड़ा मुस्कुरा रहा है। यह कौन थे इतन
कल्पना को फिर सपने की वह लाल साड़ी और कुर्ता याद आया। कल्पना ने धीर से काम की दुनिया से छुट्टी ली मंगलवार की। आज कल्पना ने अपनी मामी को फोन करके रोहतक आने के लिए कह दिया। वह अपने आस पास के तीन चार बाजार में गयी। कल्पना साड़ी, कुर्ता पजामा पसंद करना चाहती थी। यह चाह धीर और सपना के लिए थी। नवरात्
अगले दिन कल्पना धीर से मिली। वह अपनी खुशी से लाए हुए सामान को देना चाहती थी फिर यह सोच कर रूक गई कि धीर अभी तो यही है। दो दिन बाद दे दुंगी लेकिन मन में सपना की शंका और धीर के सवाल के डर से वह उसे बता ही नहीं पाई। हालांकि वह खुश थी। कल्पना का मन होता कि वह उसे बनवाने के लिए दें दे कि आ
पढ़ें लिखे समझदार लोग, सांख्य, सवालों में गुम हो गए हैं। हर बात की नुक्ता चीनी में, रिश्ते दिमाग में कैद हो गये है। पहले से ज्यादा भावों के अभाव हो गये है। लोगों के दिल तंग हो गये है, दिलों में अब खूबसूरत अहसास कम हो गये है। लोग बैठ अकेले, तन्हाई के मेले में खोकर , दुनिया से ही गुम हो गए हैं। प्या
चाहतों की हरियाली है। घड़ी भर ठहर जाएं, इस पल में यहीं खुशहाली हों। कल कौन मिलता है किसी से? मिलता है वहीं जिसकी चाहत में, अपनेपन की खुशहाली हों। रैन और नैन कालें, दोनों ह
मशीनों के बलबूते बहती धाराओं पर, मनुष्य के लालच ने अवरोध लगाये। लहलहाती फसलों के लिए रसायनों के प्रयोग अपनाएं, आश्रित जीवों के क्रम को भेद, मनुष्य के लालच ने धरा को बंजर कर डाला है। ज़मीं के गड्ढे पाटें जातें नहीं, अंतरिक्ष में गेंद उछाला जाता है। धरा का स्वर्ग नरक कर डाला, इंसान अपने मतलब के लिए ह
मैंने तुम्हें सपने में देखा, अब तुम्हें देखने का, यही तो एक जरिया बचा है। इन दिनों... अब तुम तो हमें देखने या मिलने से रहें। भूलने की आदत जो है तुम्हें। खैर ! अब तुम्हें लेकर बुरा भी क्या मानें? क्योंकि उसके लिए भी, हक जो ढूंढने पड़ेंगे हमें। हां, आजकल तुम सपने में भी, मोबाइल में नजरें गड़ाए हुए द
वाह! क्या हाल और समाचार है? सावन की बौछार है। कोरोना की मार है। बनती बिगड़ती सरकार है, चुनाव कराने के लिए आयोग हर हाल में तैयार है। बाहरवी में बहुत से बच्चे 90% से पार है। वही दसवीं कक्षा का रिजल्ट पिछली बार से बेकार है। चीन, पाकिस्तान सीमा पर कर रहा वार है। इधर नेपाल भी कर रहा तकरार है। यूपी में
ना वैक्सीन, ना विकेंसी बेरोजगार तो पहले भी कम न थे। एक के पीछे लगने वाली लाइन हर जगह ही है। कोरोनावायरस ने लाइन को कुछ इस तरह खत्म किया कि अब हर चीज आनलाइन हो गई। पैसा, पढ़ाई, कला, कलाकार, काम, ख्वाब, रिश्ते, बात, मुलाकात। जो बेहतर मार्क्स लेकर आ रहे हैं, यह सरकारी तंत्र में कायदे कागज कानून वाली ज
वक्त की पुरानी अलमीरा से एक याद.. वक्त आने जाने का नाम है लेकिन आप अपने काम से वक्त के हिस्से से कुछ यादें संभाल कर रखते हैं। यही यादें हैं जो आपको बदलाव का आइना दिखाती है। कमरें के कोने से लेकर छत की धूप तक ले जाता था यह काम। खैर काम तो सर्द दर्द है। यही काम ही तो नहीं हो पा रहा था। काम का रोना ही
ए जिंदगी तू है तो रहस्य... तुझे तरस कहूं ,तुझे ओस कहूं तुझे पारस कहूं, तुझे नूर कहूं तुझे धारा कहूं, तुझे किनारा कहूं तुझे धानी चुनर कहूं , तुझे काली ओढ़नी कहूं तुझे आस कहूं, तुझे विश्वास कहूं तुझे रंग कहूं, तुझे जंग कहूं तुझे पतंग कहूं, तुझे बहता नीर कहूं तुझे उपहार कहूं, तुझे अभिशाप कहूं तुझे कर्म
मुझे कहता ए जमाना बिगड़ा, मैं किसी की सुनतीं ही नहीं.. मुझसे रूठे है मेरे अपने, घर बाहर यार परिवार, अब कोई बात करता नहीं। मुझे कहता है जमाना बिगड़ा, मैं किसी की सुनतीं ही नहीं... मैं भी हूं आखिर इंसान, कब तक मैं झुकती रहूं.. दिल पर लगें हैं कितने घाव, ये किसी ने कभी पूछिया ही नहीं, सब अपने गए हैं रू
जब मिल जाए फोन, हम रह लेंगे Alone, फिर घर की घंटी कोई बजाए, नहीं पूछेंगे तुम कौन? चाहें दूर से चलकर भैया आए, या ड्यूटी करने सैंया जाए, आने जाने से पहले घर में करना एक मिस कॉल। खाना बनाना हों, या हो खाना हाथ से दूर रह ना पाए फ़ोन.. जब घर, बाहर में बैठे हो लोग बहुत, या नेटवर्क सिग्नल दे ना साथ तो लेके
बिन डाल का पत्ता बिन डाल का पत्ता, उसके लिए जग सारा होता है। पहुंच जाता है बिन रोक टोक, गली, छत, बालकनी, मकान, दुकान, राह अनेक.. बिन डाल का पत्ता, आवारा बंजारा होता है। जहां ले चले, हवा के झोंके उनकेे संग उसका जहां में आना जाना दूर, दराज तक होता है। बिन डाल का पत्ता, बेचारा होता है। आ जाता है, कितनो
सुनो! तुम सच बोल दिया करो.. हम मानते हैं कि सच सुनकर खफा होंगे, रूठेगे लेकिन विश्वास है ना हम दोनों के बीच। यह विश्वास सब समझा देगा ... तुम्हारे मैं को मेरे तुम को हम बना देगा। मन ही तो है, कभी उड़ता है, कभी डरता है। जैसे सूरज का तेज हर समय, हर दिन हर मौसम में एक जैसा नहीं होता है। जैसे चन्द
भूख पर लिखने से कागज भलें ही भर जाएं, पर किसी का पेट नहीं.. लोगों को लोगों की जरूरत नहीं रहती है, पर लोगों की जरूरतें रहतीं हैं... भरोसा, विश्वास अपने पन के खंजर है, मारने वाले झूठ फरेब से, पीठ में ही नहीं सीने में भी मिठास के साथ उतार देते हैं। बचना ऐसे लोगों से, जो आपको चाहने का छलावा करते हैं। ल
कोरोना ने सोचने पर मजबूर किया। सवालों, अनुभवों, स्वअनुभवों से मजबूत किया कि "अच्छा इंसान किसी के काम का नहीं होता लेकिन सच यह भी है कि घटिया सामान घर को और इंसान जिंदगी को नर्क बना देता है। मतलब निकल जाने के बाद दूरी बना लेना भी सोशल डिस्टेंस है" इंसान की ट्रेनिंग चाहें प्रशासनिक हों या विभागीय हों
ना जाने किन ख्यालों में गुम रहते हों, अब आनलाइन कम, आफलाइन तुम रहते हो। गुनगुनाने वाली आवाज अब कानों से दूर रहतीं हैं। मुस्कुराते होंठ अब ओझल रहते हैं। बस यही सोच कर आंखें नम रहतीं हैं। ना जाने किन ख्यालों में गुम रहते हों। सामने बनें छज्जे पर कबूतर चंद रहते हैं। गौरेयों का भी होता है आना जाना, छत प
खुबसूरत रिश्ते आत्मा से जुड़े होते हैं। आत्मा से जुड़े एहसास चाहत लिए होते हैं।। रिश्ते तो किसी से कभी भी बन जाते हैं, पर बिना स्वार्थ के रिश्ते ही पवित्र और सच्चे होते हैं। हर बेगाने से बना रिश्ता महोब्बत नहीं होता, कुछ रिश्ते प्रेमी, प्रेमिका से भी ऊंचे कद (गुरू) लिए होते हैं। जिंदगी मांझी और सां
पीर बढ़ावे जब चोट करें अपने सखी साखा, चाकरी करें ना मिले, मान स्वाभिमान से ज्यादा। खुद की समझ से बढ़ावे पैर, नासमझी में उलझ समझदार से, कौन चाकर कमावे बैर ... अनपढ़ माली पाल पोस कर बगिया, अनपढ़ हाली खेत जोत कर अन्न उपजाए बढ़िया... पढ़ें लिखे बाबू साहेब पेन की नोंक से कुचले, ज़मीनी दुनिया... पढ़ें
खड़ी है दिवारें बिन छत के हैं घर । रात अंधेरी सुबह की तलाश में है घर। नींव गहरी, टूटा फर्श बेहतर अर्श के इंतजार में है। दो कच्चे कांधे, दो दीह का बोझ संभाले, ढूंढते हैं संग दिल वर, जहां मिलें उन्हें खुशियों भरा कल। बेचैन रातें, टूटी नींद मां को सोने नहीं देती, ज़मीन कोरी, खुला आसमान छाया नहीं छत की
छूट गयी है जिंदगी की धूरी लड़ रहे हैं नेता कुर्सी के लिए लड़ रहे हैं लोग धर्म को श्रेष्ठ बनाने के लिए लड़ रहे हैं बच्चे जीत के लिए लड़ रहा है युवा बेरोजगारी के लिए लड़ रहा है सैनिक सरहद बचाने के लिए लड़ रहा है वकील सच झूठ का जामा पहनाने के लिए लड़ रहा है मरीज जिंदगी पाने के लिए लड़ रही है औरत सम्मान
छूट गयी है जिंदगी की धूरी लड़ रहे हैं नेता कुर्सी के लिए लड़ रहे हैं लोग धर्म को श्रेष्ठ बनाने के लिए लड़ रहे हैं बच्चे जीत के लिए लड़ रहा है युवा बेरोजगारी के लिए लड़ रहा है सैनिक सरहद बचाने के लिए लड़ रहा है वकील सच झूठ का जामा पहनाने के लिए लड़ रहा है मरीज जिंदगी पाने के लिए लड़ रही है औरत सम्मान
जिंदगी लंबी नहीं बड़ी हों कमी न हो जिंदगी में प्यार की घड़ी सांचा प्रेम हों तो मूरत बोले माटी की, दूरी ने कर दिया, तुझे और भी करीब तेरा ख्याल आकर ना जाए तो क्या करें। तुझसे दूर होकर, ऐसे वक्त गुजर रहा है, कि बिन होंठ हिले, मैंने तुझे पुकारा है। जब तेरे दिल में एहसास ही ना बचा मेरा तो मेरे होने या ना
दिल क्या चाहें, कोई समझे ना.. खुद खुशी करने से अच्छा है कि किसी की खुशियों को सजाया जाएं, खुद को मारने से बेहतर है कि किसी के साथ जी लिया जाए,, बेमायने ही सही.... खुद पर यूं एक एहसान कर लिया जाए, शायद वक्त परेशानियों का कुछ कट जाए। भटके मन को राह दिखाना आसान कहां है? पर हर हाल में चलना ही बेहतरीन है
माटी को संवारने वाला अन्न का दाता काली सड़कों पर अपने हक के लिए अड़ा है। खुले रूप से मिले सबको ताजा ताजा, पैकेटों में बंद होकर बिकने वाली चीजें, उनके हक और न्याय के लिए अड़ा है। लाल बहादुर शास्त्री ने दिया था नारा... "जय जवान जय किसान" आज दोनों को एक दूसरे के सामने खड़ा देखा है। राजनिति ने बेटियां,
मन के सांचे जो ढल जाए, प्रेम सुधा वो पी जाएं.. वो हमराही, हमसफ़र सबको कहां मिलता है? मन से ही जो ठोकर खा जाएं, फिर भला वो कहां जाएं? जज्बातों का ज़लज़ला है, जिंदगी में सुख दुःख का फलसफा है... कुछ कह जाए, कुछ रह जाएं.. पूर्ण करने को सबकों मनमीत कहां मिलता है? जीने के लिए साथी है पर साथ कहां मिलता है