
लाल क्षितिज के उर आँगन में
खेल रहा था थोड़ा दिनकर,
मन-मंदिर में प्रेम-किरण
तूने चमकाया दीपक बनकर ।
नेत्र त्रिसित पुनि पुलक
उठे दर्शन रमणी का करने को,
भांति उसी दिनकर भी दौड़ा
निशि आंचल में छिपने को ।
आशा लिए निशा से बोला कुछ
तो मुझपे रहम करो,
अपने तारा वाले गहनों को
अंग-अंग में खूब भरो ।
बाजा बजा बंद आंगन में
नीरवता छवि टूट गई,
ह्रदय-द्वार पनघट बन बैठा
सरगम-लहरी गूँज गई ।
मंद-मंद दीपक की ज्योति
चौखट पर थी चमक रही,
उसमें उस मुस्कान की शोभा
क्षिति आंचल में दमक रही ।
चूड़ी की झंकार हुई पुनि
मृगनयनों के बांहों से,
मन का पुष्पक शीघ्र भरा आनंद
स्वयं की चाहों से ।
तरुवर नीचे मिलन हुआ दोनों
चुपचाप देखते रहे,
परख-परख कर सहम-सहम कर दोनों
हाथ बढ़ते रहे ।
अंग-अंग साथी पा पाकर लिपटे
रहे बेलि सम भांति,
विष भुजंग चन्दन लिपटे
ज्यों फिर भी जग कहता है शांति....!!!
कॉपीराइट @ दीप नारायण
त्रिपाठी