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... मौलिक सौंदर्यपरक पद्य रचना ...

18 नवम्बर 2015

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लाल क्षितिज के उर आँगन में खेल रहा था थोड़ा दिनकर,

मन-मंदिर में प्रेम-किरण तूने चमकाया दीपक बनकर ।


नेत्र त्रिसित पुनि पुलक उठे दर्शन रमणी का करने को,

भांति उसी दिनकर भी दौड़ा निशि आंचल में छिपने को ।


आशा लिए निशा से बोला कुछ तो मुझपे रहम करो,

अपने तारा वाले गहनों को अंग-अंग में खूब भरो ।


बाजा बजा बंद आंगन में नीरवता छवि टूट गई,

ह्रदय-द्वार पनघट बन बैठा सरगम-लहरी गूँज गई ।


मंद-मंद दीपक की ज्योति चौखट पर थी चमक रही,

उसमें उस मुस्कान की शोभा क्षिति आंचल में दमक रही ।


चूड़ी की झंकार हुई पुनि मृगनयनों के बांहों से,

मन का पुष्पक शीघ्र भरा आनंद स्वयं की चाहों से ।


तरुवर नीचे मिलन हुआ दोनों चुपचाप देखते रहे,

परख-परख कर सहम-सहम कर दोनों हाथ बढ़ते रहे ।


अंग-अंग साथी पा पाकर लिपटे रहे बेलि सम भांति,

विष भुजंग चन्दन लिपटे ज्यों फिर भी जग कहता है शांति....!!!


      कॉपीराइट @ दीप नारायण त्रिपाठी 

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deepnarayantripathi
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