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कविता- मौन आशीष

7 जून 2016

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(चित्र है एक बगीचे में एक नवविवाहित जोड़ा बैठा हंसकर बाते कर रहा है, उसी बगीचे के दूसरे कोने में एक विधवा बैठी है जो उस युगल को देख रही है। उस नवविवाहित दम्पति को देखकर विधवा के मन में क्या विचार उपजते है इसका काव्यात्मक रूप प्रस्तुत है) 


कितना सुखद लगता है अहा! 

प्रियतम का हंसते बोलना

दिनभर के किस्से बतलाकर 

गूढ रहस्य मन के खोलना

स्वयं को महंगी लगती थी 

तारीफे उनसे पाती थी

ऐसी भी कुछ बात नहीं जी

यह कह कर खूब लजाती थी


एहसास हुआ क्यों सावन में 

यह धरा हरी हो जाती है

प्रियतम सूरज को देख देख 

क्यों सूर्यमुखी इठलाती है ?

साजन से श्रृंगार सजे है, 

जीवन सरस कहानी लगती

यौवन तो यौवन होता है, 

जरता में भी जवानी जगती


यह दो खग जो एक डाली पर

अभी चहक रहे मुस्कान से

जिनकों अपना जीवन लगता 

शांत सुखद सकल जहान से

उसी चिड़िया के सौभाग्य पर 

मैं मन ही मन हर्षाती हूं

अपना सारा दुआ कोष मैं 

इन्हीं दोनों पर लुटाती हूं


बहिन! तुम्हारी सिर की लाली 

ऐसे सदैव आबाद रहे

जीवन में नित प्रणय गीत के 

गुंजित होते स्वर नाद रहे

नौ लाख सितारे दामन में 

यूं दीप्त होते रहे सदा

यह चांद तुम्हारे जीवन में 

पूनम सजाता रहे सदा


इतना ही बस शेष हृदय में

रही कष्टों की अधिकारिणी 

और तुम्हे क्या दे पाउंगी 

चिर दग्ध भाग्य की धारिणी 

मैं वह पुष्प कली अभागिनी

जो प्रसून बन ना खिल पायी

छली गई झोंके के हाथों

जी भर भ्रमर से न मिल पायी


इतना तुम्हें दे सकती मैं

ज्ञात है मुझकों विरही व्यथा

जब प्रियतम पास नहीं होते

रहती अनकही सारी कथा

मुझे जीवन के सुख क्षणों का

आभास हुआ भलीभांति है

इस हेतु तुम्हें शुभाशीष की

सद इच्छा मन में आती है


          - राम लखारा 'विपुल' 


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