संस्कृत की कोख में पली बढ़ी बड़ी बेटी का नाम है हिन्दी। हिन्दी अपने आप में भाषा नहीं है वरन् यह कई सदियों के परिष्कृत शब्दकोश का भंडार है। हिन्दी जिस रूप में आज है वैसी अपनी शिशु अवस्था में नहीं थी। और उस समय हिन्दी इतने वृहद् समुदाय द्वारा एकरूप में बोली नहीं जाती थी जितनी कि आज बोली जाती है। भाषा का निखार कठिन शब्दों के प्रयोग से नहीं बल्कि आसान शब्दों के प्रयोग से आता है। हिन्दी की लोकप्रियता का सीधा सरल रहस्य यही है कि उसने अपना दिल सबके लिए खुला रखा। हिन्दी भलीभाँति यह जानती थी कि विश्व की अधिकांश भाषाएँ लिपि, शैली की दृष्टि से भले ही भिन्न हो पर उसका संबंध किसी ना किसी रूप में उसकी माता संस्कृत से अवश्य है। स्वभावतः इसी सहिष्णुता और सामासिकता के कारण हिन्दी ने दूसरी भाषाओं के शब्दों को अपनाने में भी हिचक अनुभव नहीं की। हिन्दी की यही आत्मीयता उसके लिए वरदान साबित हुई।
संसार में जिन भाषाओं की पाचन शक्ति ठीक रही है, वे भाषाएँ ही अधिक लोकप्रिय हुयी है। हिन्दी का शुरू से स्वभाव रहा है कि जो भी शब्द सरल हो उसे अपना लो। हिन्दी का यह स्वभाव आज का नहीं है, चन्दरबरदायी और तुलसीदास कृत रामायण में भी अरबी शब्दों यथा फौज, बाग आदि का उपयोग हुआ है। हिन्दी मूलतः भारत की भाषा है इसिलिए भारतीय संस्कृति के अनुरूप ही स्वंय भी नेह और आत्मीयता की भाषा बन गयी। साहित्य के स्तर पर तो हिन्दी ने एकता का परिचय भी दिया है। हिन्दी और उर्दू के कई साहित्यकार अपने भाव अभिव्यक्ति के लिए परस्पर दोनो भाषाओं के शब्दकोश का पुरजोर इस्तेमाल कर रहे है।
हिन्दी के विकास में उसके आत्मीय स्वभाव ने बहुत सहयोग किया। मुगलों और अरबी आक्रांताओं के आने तक ब्रज, अवधी और अन्य भाषाओं का सम्मिलित रूप हिन्दी था जिसे उस समय भाषा या भाखा भी कहा जाता था। कालांतर में हिंदी और फारसी शब्दों के मेल से खड़ीबोली हिंदी का रूप विकसित हुआ क्योंकि भारत में विदेशी जातियों का आना बहुत पुराना हो चुका था जिससे एक मिश्रित रूप का अविर्भाव हुआ। इस खड़ीबोली हिन्दी भाषा में सर्वप्रथम अमीर खुसरों, रहीम, रसखान, कबीर आदि ने लिखा। इसे हिन्दवी या रेख्ता भी कहा जाने लगा। तब तक हिन्दी ने देशज के साथ साथ विदेशी शब्दों को भी अच्छे से समाहित कर लिया था। आगे चलकर यही खड़ीबोली हिन्दी और उर्दू में विभाजित हो गयी।दोनों परस्पर अलग होने के बावजूद भी एक दूसरे के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पायी। कालांतर में जब अंग्रेजों ने भारत के ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक धरातल को उनकी ही भाषा में अनुवादित किया तो उन्हें भारत की महानता का ज्ञान हुआ और खुले दिल से उन्होनें संस्कृत को विश्व की प्राचीनतम और समृद्ध भाषा स्वीकार किया। हिंदी और संस्कृत के उच्चारण शास्त्र की तर्ज पर अंग्रेजी में फोनेटिक्स का चलन हुआ। अंगे्रजो ने संस्कृत की सहायता से कई नए शब्द बनाए। अंग्रेजी की इसी सामासिकता के कारण हिन्दी का भी अंग्रेजी से अनुराग हो गया। शासकों की भाषा होने के साथ ही साथ, अंग्रेजी की सामासिकता भी हिन्दी में अंग्रेजी शब्द चलन का कारण बनी। ऐसा ही पे्रम हिन्दी ने जापानी, चीनी, फ्रांसीसी, तुर्की आदि भाषाओं के प्रति भी दर्शाया।
हिन्दी की सामासिकता उसके लिए निश्चित रूप से वरदान साबित हुयी। अपने इस गुण ने हिन्दी को उत्कृष्ट तो बनाया ही साथ में उन भाषाओं की श्रेणी में भी लाकर खड़ा कर दिया जो मानवता को एकता के सूत्र में पिरोती है। हिन्दी उदारता के मामले में इतनी भोली निकली कि कई विदेशी शब्दों को उसने स्थायित्व का दर्जा दे दिया। और अपने पारम्परिक शब्दों को न केवल बाहर किया बल्कि भूला भी दिया। पायजामा, रूमाल, शाल, अचार, चाय, लीची, पुलिस, टिकट, आदि विदेशी शब्दों को शुद्ध हिन्दी में क्या कहा जाता था यह पता लगाना मुश्किल है। कई ऐसे शब्द है जिनके हिन्दी पर्यायवाची उपलब्ध होने के बाद भी वे अधिक प्रचलन में है। यथा- मजदूर-श्रमिक, स्याही-मसि, कलम-लेखनी, स्कूल-विद्यालय, लेटर-पत्र, मार्कशीट-अंकतालिका, खत-पत्र, मशीन-यंत्र आदि। ऐसे शब्द भी है जो हिन्दी के प्राण बन चुके है जिनको हटाकर यदि शुद्ध रूप लिखे जाए तो हिन्दी अपनी सुंदरता खोने लगने लगेगी। जैसे रेल, बस, होटल, क्रिकेट, सिगरेट, साइकिल, कम्प्युटर, टेलीविजन, रेडियो, तूफान, गमला आदि। कई विदशी शब्द ऐसे भी है जिनके बिना का हिंदी काम नहीं चल सकता। यथा- जलेबी, जंजीर, चश्मा, सन्दूक, कुर्सी, जहाज, वकील, टेªन, कार, कैलकुलेटर, चाबी, मोबाइल, ईमेल, इंटरनेट आदि। आत्मीयता के इसी गुण से हिन्दी का साहित्य आज इतना समृद्ध हो गया है।
हिन्दी मुख्यतः हिन्दुओं की भाषा के रूप में नामित की गयी थी पर धीरे धीरे यह भारत की भाषा बन गयी। हिन्दी की ग्रहणशीलता ने हिन्दी को जनप्रिय भाषा बना दिया है। हिन्दी आसान बने रहने के प्रयास के चलते अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्दों को प्रयोग में लाती रही है। अपनी इसी खूबी के कारण हिन्दी कौमी एकता में भी अपनी भूमिका निभा रही है। उर्दू के बहुत से शायर हिन्दी को अपनी मौसी कहने लगे है।
लिपट जाता हुँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है,
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हुँ और हिन्दी मुस्कुराती है। - मुनव्वर राना
यही कारण है कि हिन्दी विश्व की सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषा में चीनी के बाद दूसरा स्थान सुनिश्चित करती है।
हिन्दी जनभाषा का रूप ले चुकी है साथ ही उसने अपने आपको रूचिकर बनाए रखने में भी पूरा ध्यान रखा है। अपनी सौम्य प्रकृति के उपरांत भी हिन्दी ने अपनी व्याकरण से कोई समझौता नहीं किया। और आज भी भारत के जन मन पर अपना एकाधिकार रखती है। हिन्दी ने निरंतर साधना से अपने आपकों ऐसी भाषा के रूप में विकसित कर लिया है कि हिन्दी भाषा जानने वाला सामान्यतः भारत के किसी भी अंचल में रह सकता है। ऐसे में हिन्दी द्वारा विदेशी भाषाओं के शब्दों का आत्मसात् करना उसके लिए आशीर्वाद साबित हुआ अभिशाप नहीं। दूसरी भाषा के शब्दों को समाहित कर हिन्दी ने दूसरे भाषियों का भी आत्मीय समर्थन प्राप्त कर लिया है। और यह सफर अनवरत जारी रहेगा ऐसा लगता है।
- राम लखारा 'विपुल'