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शिलान्यास सी खड़ी एक नार अपने समय की प्रतीक्षा कर आज भी जड़ है अपने चेतन मन के अंतर में कब होगा उसका भी प्रादुभाव पुरषों की इस विसंगति में (राम) उद्धारक केवल तुम बने अनुसरण हुई केवल
सिलसिला जज्बातों का जब भी चला दर्द हर दिल में इक सा मिला
पलकों से शबनम जब भी गिरी तेरे सीप में ढलकर मोती बनी
मुश्किलें कह कर दस्तक दे रही आजमाइश समझ इक दांव लगा